ग्राम आत्मनिर्भर तो देश आत्मनिर्भर
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ग्राम आत्मनिर्भर तो देश आत्मनिर्भर

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Nov 26, 2011, 12:00 am IST
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पुस्तक समीक्षा

दिंनाक: 26 Nov 2011 12:36:29

 डा. प्रेम भारती

ग्रामीण विकास के संबंध में स्वतंत्रता के पश्चात जितनी भी चर्चा की गई, उससे ग्रामीण आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय का लाभ दूरस्थ गावों तक आज भी नहीं पहुंच पा रहा है। यह इस बात से सिद्ध होता है कि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि विकास दर एवं अर्थ व्यवस्था पर यदि हम दृष्टि डालें तो देश में प्रथम पंचवर्षीय योजना के अतिरिक्त कोई भी ऐसी योजना नहीं रही जिसमें कृषि विकास दर अर्थव्यवस्था की औसत विकास दर से अधिक रही हो। इस सम्बंध में यह स्पष्ट धारणा बनती जा रही है कि हमारे योजनाकारों ने नीतियां निर्धारित करते समय महज औपचारिकता निभाई है। नीतियां अधिक सफल हों, इसके लिए सतत व प्रभावी मूल्यांकन, अनुश्रवण तथा भौतिक सत्यापन की बात उन्होंने नहीं सोची। इस तथ्य को छानकर अंजनी कुमार झा ने एक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी है। 'ग्राम विकास और स्वदेशी संसाधन' पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में कृषि क्षेत्र की समस्याओं की जड़ आंतरिक विसंगतियां हैं, जिन्हें हम स्वयं ही दूर कर सकते हैं। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण को हम भले ही आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानें किन्तु स्वदेशी संसाधनों का दोहन उचित रूप से हो, इसे हमें सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। 

'ग्राम विकास और स्वदेशी संसाधन' आठ अध्यायों में विभाजित है। पहले अध्याय में पंचायती राज की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। लेखक का मानना है कि स्वशासन के इस तंत्र का विकास सर्वप्रथम भारत में हुआ था। भारत में ही इसका लम्बे काल तक संरक्षण भी हुआ। वैदिक काल से लेकर अंग्रेजों का शासन आने तक यह तंत्र विकासमान रहा, किन्तु अंग्रेजों के काल में इस पंचायती राज व्यवस्था का धीर-धीरे विघटन होने लगा। चूंकि तब वित्तीय अर्थव्यवस्था का अस्तित्व नहीं के बराबर था, अत: भ्रष्टाचार के लिए कोई स्थान नहीं था। स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक लाभ उठाने के लिए आमतौर पर पंचायतों को भ्रष्टाचार का माध्यम बनाया जाता है।

दूसरे अध्याय में ग्राम-समाज, ग्राम पंचायतों का गठन, अधिकार एवं कर्तव्य तथा आवश्यक कार्यक्रमों की विस्तृत रूपरेखा दी गई है। शेष पांच अध्यायों में स्वदेशी को आधार बनाकर उनके प्रयोग तथा स्वालंबन पर विस्तार से चर्चा की गई है। अंतिम अध्याय में लेखक ने 'गांव संभालो देश संवारो' पर बड़े ही सुन्दर ढंग से उदाहरण सहित व्याख्या की है। लेखक के खुद ग्रामीण अंचल से जुड़े होने के कारण उन्होंने कई प्रदेशों में घूम-घूम कर विकास के विराधाभासों की सच्चाई जानने का प्रयास किया है और उसे उकेरने में वे सफल भी रहे हैं।

यह भी एक प्रसन्नता का विषय है कि सूचना और प्रशासन मंत्रालय (भारत सरकार) ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है, अत: देशभर में  इस पुस्तक की पहुंच बनेगी। पुस्तक की विषय वस्तु बहुत कुछ शोधपरक है। ग्राम विकास को देश के विकास में समकक्ष मानकर हमें इस ओेर विशेष ध्यान देना होगा। यदि गांव आत्मनिर्भर होंगे तो देश भी आत्मनिर्भर होगा।

यह आवश्यक है कि ग्राम विकास का स्वदेशी मॉडल काल्पनिक न होकर वास्तविकता के आधार पर तैयार किया जाए। यह ठीक है कि प्रजातंत्र में वैचारिक भिन्नताएं होती हैं लेकिन चुनाव कराना और वैधानिक रूप मानकर पंचायतों का गठन कराना भर पर्याप्त नहीं है। वास्तविक रूप से प्रजातंत्र में सबकी भागीदारी होनी चाहिए। पुस्तक में ऐसे अनेक स्थल हैं जिनमें यह सच्चाई बताने की चेष्टा की गई। पुस्तक रुचिकर है, पठनीय है, इसकी विषयवस्तु संग्रहणीय है।

पुस्तक –       ग्राम विकास और स्वदेशी संसाधन

लेखक – अंजनी कुमार झा

प्रकाशक –     प्रकाशन विभाग,

             सूचना व प्रसारण मंत्रालय,

             भारत सरकार

           सी.जी.ओ. काम्प्लैक्स, नई दिल्ली

सम्पर्क: journalistanjani@gmail.com

                  (0) 9425303668

मूल्य – 85 रु.  पृष्ठ – 112

 

राष्ट्रभक्त–आत्मजाग्रत मनुष्य बनने की प्रेरणा

 विभूश्री

कुछ वर्ष पहले प्रकाशित व प्रशंसित हो चुकी पुस्तक 'मां की पुकार' का नवीनतम संस्करण कुछ समय पूर्व पुन: प्रकाशित होकर आया है। पुस्तक के लेखक, भारत सरकार के अतिरिक्त गृह सचिव व महानिदेशक (नागरिक सुरक्षा) रहे भारतेन्दु प्रकाश सिंहल ने इस पुस्तक में जिस तरह आत्म चिंतन में राष्ट्र चिंतन का समावेश कर 'चिंतन' का नया शास्त्र रचा है, वह अपने आपमें विलक्षण है। उनके चिंतन में आत्मोत्थान से राष्ट्रोत्थान और राष्ट्रोत्थान से आत्मोथान की व्याख्या जिस तरह से की गई है, वह चिंतन के  सर्वथा नए आयाम खोलती है। लेखक ने खोखले सिद्धांतों और नीतियों को ही अपने चिंतन का आधार नहीं बनाया है बल्कि वर्तमान संदर्भों में मानव समाज के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का व्यावहारिक और तार्किक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया है। पुस्तक के प्राक्कथन में लेखक ने मार्टिन लूथर किंग के उस कथन की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जिसमें उन्होंने कहा है, 'किसी राष्ट्र की शक्ति की परख उसके कोषागार की दौलत से नहीं, सुरक्षा के लिए बनी किलेबंदी से नहीं, देश में मौजूद गनगचुम्बी इमारतों और अट्टालिकाओं से नहीं होती है, बल्कि किसी देश की शक्ति का मूल आधार है तो केवल एक- कि उस देश के सपूत कितने जागृत हैं? कितने पुरुषार्थी हैं? कितने चरित्रवान हैं?' लेखक के इस उद्धरण को संदर्भित करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने इस कृति के माध्यम से देश की युवा शक्ति को जागृत कर उसे राष्ट्रोत्थान हेतु प्रेरित करने की कोशिश की है। पुस्तक के दूसरे अध्याय 'मनुष्य की संरचना तथा गतिविधियां' में लेखक ने शारीरिक संरचना की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ ही आत्मिक संरचना की भी विस्तार से व्याख्या की है। इस अध्याय में शरीर, जीव और आत्म तत्व का तुलनात्मक अध्ययन बेहद विस्तृत और विश्लेषणात्मक है। इससे आगे के अध्यायों- 'मानव क्या है' तथा 'मानव जीवन का उद्देश्य' में विस्तार से मानवीय जीवन के लक्ष्यों को परिभाषित किया गया है। इन अध्यायों के द्वारा मानव जीवन के आत्मिक स्वरूप और उसके उद्देश्यों को सहजता से समझा जा सकता है। पुस्तक के अगले दो अध्यायों-'लक्ष्य क्यों बनाएं?' व 'लक्ष्य कैसे बनाएं?' में प्रेरणादायी शैली में लेखक ने अपनी बात स्पष्ट की है, जो किसी भी पाठक को जीवन दिशा देने में सहायक सिद्ध साबित हो सकती है। इसी तरह 'लक्ष्य क्या बनाएं?' शीर्षक अध्याय में लेखक ने अत्यंत सूक्ष्मता से उन लक्ष्यों का विश्लेषण किया है जो एक चेतनाशील मनुष्य कभी नकार नहीं सकता है। यहां एक बार फिर लेखक राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व व लक्ष्य को स्मरण दिलाते हुए हुए लिखता है, 'राष्ट्र को सशक्त बनाने के संदर्भ में भौतिक कर्म को करना उतना ही मूल्यवान है जितना आत्मतत्व के लिए पूर्णता की प्राप्ति।' इससे स्पष्ट होता है कि लेखक ने राष्ट्रहित को आत्महित और आत्मकल्याण के समान पुण्यकारी और महान लक्ष्य माना है।

इसी क्रम में 'सफलता का स्वरूप' और 'मूल्यों का मूल्यांकन' दो अत्यंत प्रेरणास्पद अध्याय हैं। इनमें लेखक ने बहुत गंभीरता से जीवन में वास्तविक सफलता प्राप्त करने का मार्ग और उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना के महात्म्य को सिद्ध किया है। पुस्तक के अन्य सभी अध्याय भी प्रेरणादायी और आज के संकटों और विषमताओं से घिरे समय में बहुत प्रासंगिक हैं। हालांकि इस पुस्तक में उठाए गए सभी विषय हर युग और काल में प्रासंगिक रहे हैं और रहेंगे, लेकिन देश और समाज की जो वर्तमान स्थिति है, उसमें इनकी प्रासंगिकता व आवश्यकता और भी अधिक महसूस होती है। वास्तव में आज एक नहीं, हजारों-लाखों आत्मजाग्रत और संकल्पवान पुरुषार्थी लोगों की आवश्यकता है, जो भारत मां के आंचल में फिर से दूध की नदियां बहाने के लिए अपनी प्राणशक्ति से सक्रिय हो जाएं। इस दृष्टि से यह कृति बेहद प्रेरक है।

पुस्तक   – मां की पुकार

लेखक – भारतेन्दु प्रकाश सिंहल

प्रकाशक      –        किताबघर

             24/4855, दरियागंज,

             दिल्ली-110002

मूल्य   – 400 रु.

पृष्ठ    – 656

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