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अपने-अपने दांव चलते शकुनियों के बीच

by
Nov 25, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 25 Nov 2011 18:42:09

चर्चा सत्र

राजनाथ सिंह “सूर्य”

डिगने न दें आस्था

देश में भ्रष्टाचार और अनैतिक आचरण में निरंतर वृद्धि कायम है। 15 अगस्त 1947 के बाद, जब से सत्ता अपनों के हाथों में आई, तब से इस देश के नेता अपने आचरण से प्रभावित करने की पारदर्शी जीवन शैली को छोड़कर वाणी-विलास से जनता को अपने अनुकूल बनाने का यत्न करने लगे। आजादी के संघर्ष के दौरान शीर्ष से लेकर निचले पायदान पर खड़े नेताओं के आदर्श चरित्र का समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ता था, लेकिन ज्यों-ज्यों इस आचरण में स्खलन आता गया, समाज भी उसके प्रति आग्रही नहीं रह गया। जिस प्रकार शिशु अपने अभिभावकों का अनुसरण करता है उसी प्रकार समाज “नेताओं” के आचरण से प्रभावित होता गया। राजनीति में शुचिता और चारित्रिक आग्रह समाप्त होता गया, फलत: सिद्धांत और आदर्शवाद का स्थान अवसरवादिता ने ले लिया। इससे सत्ता हासिल करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाने लगी, उसके लिए एक ही लक्ष्य रह गया- “सत्ता”। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जब सैद्धांतिक आस्था और चारित्रिक शुचिता का स्खलन बढ़ने लगा तो समाज के कुछ आस्थावान लोगों ने उस पर चिंता प्रगट करनी शुरू की।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया का लोप

निर्वाचन आयोग ने जहां निष्पक्ष और निर्भय होकर मतदान सुनिश्चित करने के लिए अनेक कदम उठाये, वहीं संसद ने भी दल-बदल जैसे कुछ कानूनी प्रावधान किए। इसके बावजूद सभी राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का लोप होता गया। जिस प्रकार किसी माफिया गिरोह का सरगना अपने लिए “सुप्रीमो” का संबोधन स्वीकार कर गर्व का अनुभव करता है कुछ वैसा ही शब्द प्रयोग किसी राजनीतिक दल के प्रमुख के संदर्भ में प्रयोग किया जाना उसकी एकमात्र सत्ता का अहसास कराता है। इससे राजनीति दलीय स्तर से सिमटकर व्यक्ति या परिवार में निर्णय की शक्ति को सीमित करती गयी जिसने अनेक क्षेत्रीय दलों को जन्म लेने और अकाल मृत्यु प्राप्त करने का चलन बढ़ाया। आमतौर पर जो अधिक शक्तिशाली होता है सब उसी का अनुसरण करते हैं। कांग्रेस बहुत समय तक चुनौती विहीन संगठन रही है। आज यद्यपि वह स्थिति नहीं है तथापि केंद्रीय सत्ता का नियंत्रण और संचालन उसी के अधीन है जो एक “सुप्रीमो” परिवार के आदेश पर गतिशील या गतिहीन हो जाता है। इसका भरपूर असर क्षेत्रीय दलों पर पड़ा है जो सीमित क्षेत्र में प्रभावी होने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं।

जागरण अभियान

इसके दुष्परिणामों से समाज को सुरक्षित करने का राजनीतिक प्रयास कांग्रेस का ही आचरणीय अनुसरण करने के कारण असफल होता रहा है। “मैं और मेरा परिवार” की कांग्रेसी परंपरा में सिमटे दल दलदल में फंसते गए। फलत: कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पहल की और शुरू किया जनजागरण अभियान। अण्णा हजारे, बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर के प्रयासों को इसी रूप में देखना चाहिए। इनके प्रयास से जो जनजागरण हुआ उससे राजनीतिक क्षेत्र में घबराहट पैदा होना स्वाभाविक है। इसलिए राजनीति करने वालों ने इनके प्रभाव को कम करने के लिए कुछ सामान्य प्रकार के और बड़ी मात्रा में कल्पित अवगुणों का प्रचार करना शुरू किया तथा जिस मीडिया ने इनके जनजागरण अभियान को अमूल्य बल प्रदान किया था उसने भी इन कल्पित आरोपों और सामान्य वैचारिक भिन्नता को इतना अधिक उछाला कि उनके प्रति आम जनता में जो श्रद्धा और निष्ठा उत्पन्न हुई थी उसे संदिग्धता का शिकार बनाया जाने लगा। जनता फिर से राजनीतिक दलों के बारे में अपनी इस अवधारणा कि “जैसे उदई वैसे भान, न उनके पूंछ न उनके कान” वाली मानसिकता की ओर लौटने लगी तथा राजनीतिक दलों में यह विश्वास फिर से उभरने लगा कि वे अपने वाणी-विलास से जनता को प्रभावित करने में सफल हो सकते हैं। ऐसे दलों ने अवसरवादियों और चाटुकारों को प्रश्रय देने के साथ-साथ सत्ता के दुरुपयोग से विरोधियों को सताने और अकूत सम्पत्ति बटोरने का अभियान  शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन में अधिकांश दलों द्वारा ऐसे ही लोगों को प्राथमिकता देने के कारण धन के प्रभाव और जातीय तथा सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने के साथ-साथ थोथे वादों से प्रभावित करने की मानसिकता हावी हो गई है। जहां एक दल राज्य को विभाजित करने का प्रस्ताव पारित करा रहा है, वहीं दूसरा किसानों को मुफ्त बिजली देने और तीसरा मुसलमानों को “आरक्षण” देने का पांसा फेंक रहा है। ऐसे में चुनावी भ्रष्टाचार को रोकने में निर्वाचन आयोग के उपाय और चेतना जागृत करने के सद्प्रयासों का कितना असर होगा, यह कहना कठिन है, क्योंकि ऐसे प्रयास करने वाले सत्ता की आपस में उलझाने वाली साजिश को नाकाम करने के प्रयास में रक्षात्मक होकर अपने प्रयास की सार्थकता पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं तथा यह माहौल फिर उभरने लगा है कि सत्ता से तात्कालिक लाभ ही हितकर है, कल क्या होगा कौन जाने।

पारदर्शी जीवन से आस

ऐसी स्थिति में क्या यह मान लिया जाय कि व्यक्तिगत और सार्वजनिक आचरण की शुचिता और पारदर्शिता वाला नेतृत्व अब लौट पाना असंभव है? सत्ता की स्वार्थपरता अब पूरी तरह से हावी हो गई है? कुछ ऐसा ही माहौल बनाने का काम जाने-अनजाने मीडिया भी कर रहा है इसलिए न केवल सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में जो व्यक्तिगत जीवन की शुचिता और पारदर्शितायुक्त जीवन के उदाहरण हैं उनकी भी छवि “सत्ता के लिए पहल” के रूप में प्रचारित कर निराशा पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। पारदर्शी आचरण करने वाले व्यक्ति से सभी सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है। महात्मा गांधी के सभी विचारों से उनके निकटतम अनुयायी सहमत नहीं रहते थे, लेकिन किसी ने उन पर “लाभ” का आरोप नहीं लगाया।

सतर्क रहना होगा

ये वही जीवन-मूल्य हैं जिन से स्खलित होते जाने के कारण हम आज बुरे हालात के शिकार हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि आजादी के आंदोलन के समय अंग्रेजी सत्ता की मजबूती के लिए जिस दल ने उनका “इंफारमर” बनने की पेशकश की थी, उसने उस समय के नेताओं, चाहे महात्मा गांधी हों या नेता जी सुभाषचंद्र बोस के चरित्र हनन का कैसा अभियान चलाया था। वह राजनीतिक संगठन तो मृतप्राय हो गया है, लेकिन उसी प्रकार का अभियान चलाकर जनता को भ्रमित करने वाले “बुद्धिजीवी” आज भी सक्रिय हैं, जो अण्णा हजारे, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर की देश के प्रति चिंता को संशयात्मक बनाने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं। हमें इनसे सतर्क रहना है और इनके प्रयासों से कुछ महीने पूर्व जो जागरूकता उत्पन्न हुई थी उस माहौल को बनाए रखना है। इसी में देश का भला है। द

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