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Nov 19, 2011, 12:00 am IST
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महिला विकास के आधार स्तम्भ

दिंनाक: 19 Nov 2011 15:10:46

महिला विकास के आधार स्तम्भ

 डा. अनीता मोदी

 

वर्तमान वैश्वीकरण के युग में देश में शनै:-शनै: लैंगिक भेदभाव की दीवारें ढह रही हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण व विकास में उत्तरोत्तर सुधार दर्ज किया जा रहा है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की प्रभावी सहभागिता बढ़ रही है। इन सब उपलब्धियों के बावजूद हकीकत यह है कि महिलाओं की स्थिति विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं की हालत संतोषप्रद नहीं है। विडम्बना का विषय है कि देश  में महिलाओं के विकास, शिक्षा, रोजगार व हितों के संवर्द्धन एवं संरक्षण हेतु अनेक कानून, नीतियों व संवैधानिक व्यवस्थाओं का प्रावधान होने के बावजूद देश की महिलाओं पर शोषण, अत्याचार, अन्याय व भेदभाव का दंश बढ़ता जा रहा है। बलात्कार, दहेज हत्या, यौन हिंसा व कन्या  भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। देश की अधिकांश ग्रामीण महिलाएं गरीबी के दंश से आहत हैं। प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में ऐसे कौन से कारण, परिस्थितियां एवं तत्व हैं जिनकी वजह से ये महिलाएं इन कानूनों, योजनाओं व कार्यक्रमों के लाभों से वंचित रह जाती हैं।

विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि सूचना, साक्षरता, साहस व सोच का अभाव  ही महिलाओं के विकास पथ में अवरोधक है। महिलाओं की निराशाजनक व दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार मूलभूत कारण यह है कि देश की अधिकांश महिलाओं को महिलाओं से संबंधित विविध कानूनों व योजनाओं की सूचना व जानकारी ही नहीं है। निरक्षरता, जिज्ञासा का अभाव, कार्य का बोझ, संकुचित सामाजिक सम्पर्क तथा आधुनिक संचार व्यवस्थाओं तक अपर्याप्त पहुंच आदि की वजह से देश की अधिकांश ग्रामीण महिलाएं इन सब योजनाओं व कानूनों से अनजान व अनभिज्ञ होती हैं। महिलाओं में जागरूकता, सूचना व चेतना का अभाव होने से ये सब योजनाएं 'कागजी कार्रवाई' बन कर रह जाती हैं। कानून मात्र कानून ही बन कर रह जाते हैं तथा महिलाओं की स्थिति 'यथावत' ही रह जाती है। सूचना के अभाव में महिलाओं के विकास व सुधार की कल्पना बेमानी हो जाती है, योजनाओं की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है।

ऐसा भी पाया गया है कि अनेक महिलाओं को कानूनों के बारे में जानकारी होने के बावजूद वे घरेलू हिंसा, प्रताड़ना व भेदभाव का दंश मौन रूप से सहती रहती हैं। 'साहस' का अभाव महिलाओं की इस निराशाजनक स्थिति के लिए जिम्मेदार है। स्वयं, परिवार व बच्चों का भविष्य, समाज का तिरस्कार, परिहास व उपेक्षा जैसे तत्व महिलाओं को चुपचाप विविध प्रकार के शोषणों का विषघूंट पीने के लिए विवश करते हैं। निसंदेह महिलाएं 'मौन संस्कृति' के जाल में जकड़ी रहती हैं तथा शिकायत दर्ज करने का 'साहस' नहीं जुटा पाती हैं।

निरक्षरता भी वह अभिशाप है जिसके कारण महिलाएं विविध योजनाओं, कानूनों व नीतियों के लाभों से वंचित रह जाती हैं। योजनाओं की प्रक्रिया को पूर्ण करने में सक्षम नहीं होने के कारण महिला विकास की अवधारणा धूमिल हो जाती है। सोच भी महिलाओं की शिक्षा, रोजगार व विकास को प्रभावित करती है। उल्लेखनीय तथ्य है कि अभी भी ग्रामीण परिवार 'बालिकाओं' को बोझ व पराया धन समझते हैं। ग्रामीण परिवारों की सोच व मानसिकता के कारण बच्चियां शिक्षा से वंचित रह जाती हैं, उनके लिए प्रगति के द्वार बंद हो जाते हैं। जबकि तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि महिला जागरूकता, चेतना व सोच, साक्षरता के कारण शहरी बालिकाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण के दृष्टिकोण  से सुधार परिलक्षित हो रहे हैं। इन बालिकाओं के कदम व्यावसायिक व उच्च शिक्षा की ओर बढ़ रहे है। यही नहीं, शिक्षित परिवार अपनी बच्चियों को उच्च शिक्षा हेतु महानगरों व नगरों में भेज रहे हैं।

ग्रामीण महिलाओं की निराशाप्रद स्थिति में सुधार करने हेतु यह आवश्यक है इन महिलाओं को कानूनों, योजनाओं व नीतियों के प्रति जागरूक किया जाय। इस कार्य में शिक्षित व सेवाभावी महिलाएं तथा गैर सरकारी संगठन समूह महती भूमिका निभा सकते हैं। ग्रामीण समाज की मानसिकता, लड़कियों के प्रति विकृत व एकपक्षीय सोच तथा परम्परागत रूढ़ियों व अंधविश्वासों में परिवर्तन की लहर उत्पन्न करने हेतु शिक्षित व जागरूक महिला समुदायों को एकजुट होकर प्रयास करने होंगे। अनेक बार महिलाएं अपराधियों के विरुद्ध बदनामी व सामाजिक तिरस्कार के भय से एफआईआर या शिकायत दर्ज करवाने का साहस नहीं जुटा पातीं। ऐसी विकट स्थिति में 'महिला संगठनों' व स्वयं सहायता समूहों का दायित्व बनता है कि ऐसी पीड़ित महिलाओं को मानसिक व आर्थिक संबल प्रदान करते हुए उनको शिकायत दर्ज करवाने हेतु प्रेरित व प्रोत्साहित करें। कानून का संरक्षण व फायदा महिलाओं को तभी प्राप्त हो सकता है जब वे कानून की शरण मे जायें, शिकायत दर्ज करवाएं। इस के साथ ही यह प्रावधान किया जाना जरूरी है कि हमारी न्याय व्यवस्था चुस्त दुरूस्त हो ताकि महिलाओं को अविलम्ब न्याय सुलभ हो तथा दोषी को कड़ी सजा मिल सके। ऐसा प्रावधान करके भविष्य में अपराधों की बढ़ती प्रवृत्ति पर लगाम कसी जा सकती है। महिलाओं को कानूनों के बारे में जानकारी प्रदान करने हेतु यह कदम उठाया जाना चाहिये कि बालिकाओं को शिक्षा के साथ-साथ कानूनी शिक्षा भी प्रदान की जाय।

स्पष्ट है कि सूचना, साक्षरता, साहस व सोच में परिवर्तन जैसे आधारस्तम्भों के बल पर ही महिलाओं को अन्याय, गरीबी, शोषण, भेदभाव व उत्पीड़न के दंशों से विमुक्त किया जा सकता है। महिला विकास की सार्थकता इसी तथ्य में सन्निहित है कि सभी महिलाएं एकजुट होकर महिलाओं के विरुद्ध हिंसा व शोषण को समूल उखाड़कर 'नारी की गरिमा' को मूर्त्त रूप प्रदान करें।

 

व्रत–त्योहार

(पाक्षिक)

विनायक चतुर्थी   (सोम) 28 नवम्बर, 2011

श्रीराम विवाह पंचमी (मंगल) 29नवम्बर, 2011

चम्पा स्कन्द षष्ठी (बुध)  30 नवम्बर, 2011

पंचक प्रारम्भ 8.56 (गुरु)  1 दिसम्बर, 2011  

सर्वार्थ सिद्धि योग (रवि)  4 दिसम्बर, 2011   

गीता जयन्ती      (मंगल) 6 दिसम्बर, 2011

प्रदोष व्रत            (बुध)   7 दिसम्बर, 2011 

पूर्णिमा, खग्रास चन्द्र ग्रहण (शनि)  10 दिसम्बर, 2011 

 

 

स्त्री–रत्न

ऐसी थीं गान्धारी

गान्धार (आज का अफगानिस्तान) पहले भारत का ही अंग था। द्वापर युग में महाराज सुबल गान्धार के राजा थे। गान्धारी उन्हीं की लाड़ली बेटी थी। भीष्म के पौरुष, बल और पराक्रम से डर कर तथा अपने मंत्रियों व सभासदों के समझाने-बुझाने पर उन्होंने अपनी सुन्दर, गुणवान व साध्वी कन्या का विवाह अंधे धृतराष्ट्र से कर दिया। धृतराष्ट्र महाबली और धर्म में अद्वितीय थे। कहा जाता है धृतराष्ट्र में दस हजार हाथियों की शक्ति थी। वे धर्मज्ञ थे।

शकुनि गान्धार के राजा सुबल का पुत्र था। वह अपनी बहिन गान्धारी के साथ बहुत सा सामान लेकर हस्तिनापुर पहुंचा। हस्तिनापुर में ही विधिवत् धृतराष्ट्र का विवाह हुआ। तब गान्धारी ने यह कहकर 'कि जब मेरे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे भी देखने का कोई अधिकार नहीं है' कपड़े की मोटी तह बनाकर उसकी पट्टी अपनी आंखों पर बांध ली। इसके बाद वे इसे अंत समय तक अपनी आंखों पर बांधे रहीं। गान्धारी बड़ी पतिव्रता महिला थीं। उन्होंने मन, वचन और कर्म से धृतराष्ट्र की सेवा की-उन्हें सदैव प्रसन्न और सन्तुष्ट रखा।

महर्षि वेदव्यास जी ने गान्धारी को एक सौ पुत्रों का वरदान दिया। कालान्तर में गान्धारी ने सौ पुत्रों और एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री का नाम दु:शला रखा गया। पुत्रों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। दुर्योधन स्वभाव से ही दुष्ट और महत्वाकांक्षी थी। ऋषियों ने भविष्यवाणी की थी कि 'यह बालक बड़ा होकर कुलघातक सिद्ध होगा।' गान्धारी दुर्योधन को त्यागने के लिए तैयार थी, पर धृतराष्ट्र ने यह कहकर 'कि मैं इसे ठीक कर लूंगा' गान्धारी को रोक दिया।

दुर्योधन पाण्डवों से, जो उसके चचेरे भाई थे, ईर्ष्या करता था और सदा उनके अहित की ही सोचता था। पर गान्धारी सदा दुर्योधन को इसी बात के लिए डांटती थी। वह नहीं चाहती थी कि भाई-भाई आपस में झगड़ें और पाण्डवों को कोई कष्ट हो। गान्धारी पति (धृतराष्ट्र) को भी यही कहा करती थी कि आप दुर्योधन को रोकें-दण्ड दें। पर धृतराष्ट्र पुत्र मोह के कारण वैसा नहीं कर पाते थे।

दुर्योधन ने अपनी मां गान्धारी की हमेशा उपेक्षा ही की। गान्धारी सदा यही कहती थी- 'जहां धर्म है, वहीं विजय है।' उसने अपने पुत्र दुर्योधन को विजयी होने का आशीर्वाद कभी नहीं दिया। जब युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण सन्धि दूत बनकर हस्तिनापुर आए, गान्धारी ने दुर्योधन को बहुत समझाया पर उसने उनकी एक न सुनी।

महाभारत के युद्ध में गान्धारी के सभी सौ पुत्र मारे गए। वह अपनी बहुओं के साथ जब कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में गईं तो बहुओं के करुण रुदन से उन्हें बहुत दु:ख हुआ और वह विचलित हो उठीं। तब श्रीकृष्ण के समझाने पर किसी प्रकार वह शान्त तो हो गईं पर उन्होंने क्रोध में शाप दिया-'हे कृष्ण, आज से छत्तीस वर्ष बाद तुम भी अपने कुल का इसी प्रकार विनाश होते स्वयं देखोगे। तुम्हारे कुल की स्त्रियां भी इसी प्रकार विलाप करेंगी।'

महात्मा विदुर जी के परामर्श से अंतिम समय में गान्धारी एवं धृतराष्ट्र वन में चले गए। माता कुन्ती भी उनके साथ गईं। यह सभी हिमालय की ओर बढ़ने लगे। मार्ग में धृतराष्ट्र ने अपने मुंह में पत्थर रख लिया और वे केवल हवा ही ग्रहण करते थे। माता गान्धारी जल पीकर ही जीवित थीं। माता कुन्ती केवल एक समय फल खाकर ही जी रही थीं। तीनों प्राणी पूजा-पाठ करते, ऋषियों से ज्ञान की बात करते आगे बढ़ रहे थे। एक दिन वन में आग लग गई, जिसे दावाग्नि कहते हैं। तीनों उसी स्थान पर वन में भस्म हो गए। गान्धारी के पातिव्रत्य और सतीत्व की आहुति पाकर अग्निदेव भी स्वयं को धन्य समझने लगे। गान्धारी का नाम अमर है। भारतवर्ष में पातिव्रत्य धर्म की महिमा अमर है।

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