सरोकार
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सरोकार
मृदुला सिन्हा
चार शब्दों में संपूर्ण बारात के मन को भांप लिया। दुल्हा दुल्हन के लिए, समधी दान-दहेज के लिए और बाराती भोज खाने के लिए आते हैं। तीन श्रेणियों में बंटे बारातियों के मनोनुकूल स्वागत भी होता है।
मनुष्य का जीवन आपसी प्रेम और सहयोग से सजता-संवरता है, तो नोक-झोंक और लड़ाई-झगड़ों के छींटों से भी खुशनुमा बनता है। कहते हैं लड़ाई-झगड़े के बाद प्रीत की मधुरता गहरा जाती है। शायद इसीलिए विभिन्न पारिवारिक और सामाजिक त्योहारों, उत्सवों तथा विवाह के अवसरों पर भी छेड़-छाड़, ताने-बाने और उलाहने देखे-सुने जाते हैं। इस प्रकार के आपसी व्यवहार अपेक्षित होते हैं, इसलिए विशेष असर नहीं करते। होली जैसे त्योहार “जट जटिन” जैसे लोक नृत्य में खुल के नोक झोंक और छेड़छाड़ होती है। स्त्री-पुरुष के बीच भी छेड़छाड़, सब क्षम्य, समाज स्वीकृत।
विवाह दो परिवारों और दो गांवों का मिलन होता है। मात्र दो व्यक्तियों का नहीं। ऐसे अवसर पर दो दलों, दो रिश्तों और दो व्यक्तियों के बीच ताने-बाने खूब चलते हैं। छेड़छाड़ और मनुहार भी। सच मानें तो बिना छेड़छाड़ और ताने-बाने के रसहीन हो जाता है अवसर। विवाह के अवसर पर जहां शास्त्रीय विविध-विधान संपन्न होते हैं, वहीं लोकरंग से भी सरावोर होते हैं विवाह के रीति-रिवाज।
विवाह की रीति में सर्वप्रथम तिलक या सगुन देने का, लड़के को छेंकने का विधान है। इस रश्म अदायगी में लड़की वाले, लड़के के घर जाकर लड़के को तिलक चढ़ाते हैं। टीका लगाकर बर्तन, कपड़ा और नगदी चढ़ाए जाते हैं। तिलक के पूर्व वर पक्ष और कन्या पक्ष के बीच लेन-देन की भी बात तय होती है। पर कभी-कभी देखा यह जाता है कि लड़की पक्ष जितना कबूलता है उतना दे नहीं पाता। कबूल से अधिक दे भी दे तो क्या, वर पक्ष संतुष्ट नहीं होता। संतुष्टि भी आई तो क्या, छेड़छाड़ और शिकायत तो होती ही है। लड़के को टीका लगाकर हाथों में तिलक डाला गया, इधर महिलाएं गा उठती हैं-
“ठग लिया बबुआ हमार रे समधी बेईमान
वादा किया था सोने की घड़ी
ले आया घड़ी पीतल का रे, समधी बेईमान”
समधी परेशान! वह तो अपनी औकात से अधिक सामान ले आया। फिर ये ताने-बाने क्यों? शीघ्र ही अपनी स्थिति का भान होता है। वह होने वाले समधी के घर आया है। रिश्ता मधुर भी है और जीवन भर ताने-बाने का भी। इसलिए मुस्कुराता है। महिलाएं कहां थमने वाली हैं। गाती हैं-
“स्वागत में गाली सुनाओ, सुनाओ मेरी सखियां,
ई समधी साहब को टोपी नहीं है
कागज की टोपी पहनाओ, मेरी सखियां।
समधी महाशय नया सिल्क का कुर्ता, जैकेट और टोपी पहनकर आए हैं। पर इससे गीत गायक महिला को कोई लेना-देना नहीं। उन्हें तो समघी की खिंचाई करनी है। बस! विवाह का अवसर जो है।
वधु के दरवाजे पर दुल्हे की सवारी आ गई। इसे दरवाजा लगाना कहते हैं। महिलाएं चुप नहीं रहतीं। वे दुल्हे से भी छेड़छाड़ करती हैं-
“बागो बागो में तमाशा क्यों न लाया रे बन्ना
अपने दादा जी को साथ क्यों न लाया रे बन्ना
दादी रानी को नचाता क्यों न लाया रे बन्ना
(इसी प्रकार सभी संबंधों के नाम लेकर)
दुल्हा भौचक है। भला वह अपनी दादी, अम्मा, बहन भाभी को कैसे नचाता? वह भी दुल्हन के दरवाजे पर? आज तो ऐसा भी होने लगा है। फिर भी महिलाएं ये गीत गाती हैं-
ले चल बजार,बजार रे जिआ ना लागे ननदी
कइसन समधी गंवार, रे जिया ना लागे ननदी
हाथी ले आया, कार न लाया, कइसन समघी गंवार”
एक रश्म होती है – “कन्या निरीक्षण”। विवाह से पूर्व दुल्हे का बड़ा भाई लड़की के आंगन में आता है। लड़की को जेवर-कपड़े चढ़ाता है- पंडित जी मंत्र पढ़ते हैं। इधर गीतगायक महिलाएं व्याकुल हो जाती हैं-
टीका ले लाया, भैंसूर डिब्बा में मूंद के
खोल-खोल रे बेवकूफ नहीं तो गाली दूंगी चून-चून के।
भैंसूर मुस्कराता हैं। बुरा नहीं मानता। फिर आती है लड़के के छोटे भाई से छेड़छाड़ की बारी। दुल्हा मंडप पर आया। उधर दुल्हन की सखियों और बहनों ने दुल्हे के जूते छुपा लिए। विवाह मंडप पर शास्त्रविधि से मंत्रोच्चारण के साथ विवाह की रस्म आदायगी होती है तो बाहर दोनों पक्षों की युवा पीढ़ी के बीच जूते को लेकर खींचतान, छेड़छाड़। ताने-बाने। यह एकमेव अकसर होता है जब कन्या पक्ष के लड़के-लड़कियां ही वर पक्ष से पैसे मांगती हैं। नहीं देने या कम देने पर कंजूस, कंगाल, बेशर्म जैसे शब्दों का भी प्रयोग करती हैं।
विवाह के अवसर पर वर और कन्या पक्षों के बीच एक दूसरे को दोयम दर्जे का दिखाने के प्रयास होते रहते हैं। ये भाव गीतों के माध्यम से प्रकट होते हैं। दुल्हे को भी नहीं बक्शा जाता। यह मान्यता है कि विवाह मंडप पर दुल्हा दान-दहेज के लिए रूठेगा। दान, दहेज लेकर ही रस्म अदायगी करेगा। दुल्हे का रूठने का ही विधान रहा है। क्योंकि दुल्हे भी कम उम्र के होते थे यदि दुल्हा रूठा नहीं तो महिलाएं गाती हैं-
रूठ न पाहुन हमार हे, जरा रूठु-रूठु।
अच्छा धड़ी लगी रूठन लागू अच्छा पापा देवो इनाम हे, वर रूठु-रूठु
दुल्हा हैरान है। यदि दुल्हा रूठ गया तो पूछिए मत। दुल्हे की इस स्थिति के लिए भी ताने तैयार हैं-
“घड़ी लागी रूसल छथीन, लड़िका जमाए,
घड़ी त हइन ससुर जी के पास, अंगुली धड़ाय बाबू के ले जबईन बजार,
बांस के घड़ी देवइन फुसलाय।
परिछावन का एक महत्वपूर्ण विधान होता है। थाली या डाले में दीप रखकर दुल्हे की आरती होती है। इस वक्त भी महिलाएं दुल्हे को ताना देने से नहीं चूकतीं-
आंखिया निरेखू रे वर तोरा कजरो नहीं
तोहरा बुआ फुहरियों के लुरियो नहीं।
विवाह गीतों में तो विवाह करा रहे पंडितों को भी ताने दिए जाते हैं-
दुल्हा के मइया पंडित तोहरे देबऊ रे
पंडित जल्दी-जल्दी पढ़ वेद मंत्र
दुलहिन हमर सुकुमार हुई रे।
विवाह संपन्न होने के बाद समधी के लिए “भतखई या जेबनार की रस्म होती है। विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियां बनती हैं। कच्चा खाना खिलाया जाता है बड़े आग्रह पूर्वक। पर महिलाएं गीत के माध्यम से समधी और बारातियों का छेड़छाड़ करती हैं-
समधी सुनिए मधुर स्वर गालियां
वाह! समधी से गाली पर ध्यान देने के लिए आग्रह करती हैं। गाली और मधुर स्वर भी। फिर निर्देश देती हैं-
थोड़ा-थोड़ा खाना रे महंगी का जमाना
चावल भी महंगा, दाल भी महंगी, महंगी है तरकारी रे, महंगी का जमाना।
इस अवसर पर पुरुषों को गालियां सुनाई जाती हैं। आश्चर्य होता है कि सभी गालियों में महिलाओं को ही गालियां दी जाती हैं, पर सुनाई जाती हैं पुरुषों को। पुरुषों से छेड़छाड़ महिलाएं करती हैं, पर गाली पुरुषों को नहीं देतीं।
सबसे बड़ी बात है कि ये छेड़छाड़ और ताने-बाने रिश्तों में खटास नहीं, मानो मिश्री घोलते हैं। ये गोंद का काम करते हैं। रिश्तों में चिपककर बंध जाते हैं दो परिवार। जिस विवाह में इस प्रकार के ताने-बानों का प्रयोग नहीं होता, उसमें मजा नहीं आता है। छेड़छाड़ करने वालों को मजा नहीं आता। ताना सुनने वालों को भी रसहीन लगता है। अब यह पारंपरिक स्वरूप बदल रहा है। इसलिए भी बारातियों को बारात जाने की सुखद अनुभूति नहीं होती, बस बारात एक औपचारिकता भर रह गई है। द
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