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अर्थहीन फतवे

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Nov 12, 2011, 12:00 am IST
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अर्थहीन फतवेशरीयत तथा भारतीय संविधान

दिंनाक: 12 Nov 2011 13:36:06

शरीयत तथा भारतीय संविधान

 डा.सतीश चन्द्र मित्तल

फतवा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है इस्लामी कानून पर आधारित व्यक्तिगत राय। फतवा शब्द यद्यपि कुरान में नहीं है, परन्तु मुसलमानों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। समय–समय पर मुस्लिम परम्पराओं के विश्लेषण, उसकी व्याख्या अथवा अर्थ को स्पष्ट करने के लिए फतवों का सहारा लिया जाता है। इन फतवों (सलाह) के माध्यम से इस्लामी विद्वान (मौलाना या मुफ्ती) अपने अनुयायियों की मजहबी तथा सामाजिक परम्पराओं को बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु ये परम्पराएं देश–काल, भौगोलिक या राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार कभी एक–सी नहीं रही हैं। अत: विश्व के भिन्न–भिन्न भागों में जहां–जहां इस्लाम फैला, उसकी व्याख्या में भी परिवर्तन होते रहे हैं। सामान्यत: ये इस्लामी विद्वान स्वयं को परम्पराओं का रक्षक तथा अपने द्वारा दिए गए फतवों को इस्लामी कानून पर आधारित निर्देश बताते हैं।

विश्व के प्रसिद्ध फतवे

गत लगभग 1400 वर्षों के इस्लाम के इतिहास में समय–समय फतवे दिए गए जो व्यक्तिगत जीवन, आर्थिक अवस्था, विवाह के प्रसंग, नौतिक जीवन आदि के सम्बंध में हैं। कुल मिलाकर इन फतवों की संख्या लाखों में होगी। आवश्यक नहीं कि उनमें एकरूपता हो अथवा वे सर्वमान्य हों। अनेक बार ये परस्पर विरोधी अथवा विवादास्पद भी रहे हैं। आधुनिक काल में ईरान के प्रसिद्ध मौलवी व शासक अयातुल्ला खुमैनी के सलमान रुशदी को मारने के फतवे ने विश्व का ध्यान आकृष्ट किया था। इसी भांति संयुक्त अरब अमीरात ने बच्चों के 'पोकेमान' खेल के विरुद्ध तथा मिश्र ने 'कौन बनेगा करोड़पति' सरीखे कार्यक्रम के विरुद्ध दिए गए फतवों ने विश्व मानस को चौंकाया। इसी भांति गद्दाफी, जीरेट वाइलडेर्स (डच राजनीतिक), जेरी फैटवेल (अमरीकी ईसाई) तथा रहील रज्जा आदि को मारने के फतवों ने विश्वभर को सोचने पर विवश कर दिया। अनेक व्यक्तियों के विरुद्ध दिए गए फतवों के अलावा मुस्लिम महिलाओं के सम्बंध में भी कई विवादित फतवे दिए गए। मोरक्को में मुस्लिम महिलाओं को इमाम जैसा सम्मानित पद देने के विरुद्ध फतवा दिया गया। बहरीन में एक 40 वर्षीय महिला को जुम्मे की नमाज पढ़ाने पर गिरफ्तार किया गया। मलेशिया में एस.एम.एस. (मोबाइल पर लघु संदेश) द्वारा तलाक को स्वीकार करने का भी फतवा दिया गया।

भारत में फतवों के केन्द्र व चर्चित फतवे

सामान्यत: भारत के विभिन्न प्रदेशों में मुल्ला–मौलवियों तथा मजहबी विद्वानों द्वारा समय–समय पर फतवे दिए जाते हैं। देवबन्द, बरेली, भोपाल, हैदराबाद, लखनऊ तथा केरल आदि इस्लाम के प्रमुख केन्द्र हैं।  विश्व में काहिरा विश्वविद्यालय के बाद देवबंद स्थित दारूल उलूम को इस्लाम का प्रमुख केन्द्र माना जाता है, जिसकी स्थापना 1866 ई. में हुई थी। 145 वर्षों के काल में देवेबंद के दारुल उलूम ने लगभग 12 लाख फतवे दिए हैं। आज भी प्रतिवर्ष आठ से दस हजार फतवे दिए जाते हैं। अनेक बार मुफ्ती इन फतवों को इस ढंग से प्रस्तुत करते हैं मानो मुस्लिम समाज के लिए यह शरीयत का आदेश है तथा सर्वमान्य है। यदि भारत में पिछले दस वर्षों में दिए गए फतवों को सरसरी निगाह से देखें तो पता चलता है कि ये फतवे देश की बदलती हुई स्थिति के अनुकूल नहीं हैं। कभी–कभी फतवों के दोहरे मापदण्ड दिखाई देते हैं। कभी–कभी मुफ्तियों के परस्पर विरोधी फतवों से उनकी फजीहत भी हुई है।

इसमें कुछ प्रमुख फतवे परिवार नियोजन अथवा नसबन्दी, टेलीविजन देखने, जीवन बीमा कराने, पोलियो की खुराक लेने आदि के विरुद्ध दिए गए। अनेक फतवे भारत की मुस्लिम महिलाओं के जीवन से जुड़े हैं जैसे महिला के नौकरी करने को हराम बताया गया है। इसी भांति पंचायत चुनावों में बिना बुर्का पहने प्रचार करने या पोस्टर पर मुस्लिम महिला का बिना बुर्के वाला फोटो छापने के विरुद्ध फतवा, यहां तक की प्रसिद्ध बैडमिटन खिलाड़ी सानिया मिर्जा के खेल के दौरान वेषभूषा के खिलाफ भी फतवे दिए गए। इसके विपरीत फोन पर तलाक की स्वीकृति का भी फतवा दिया गया। इसमें मुजफ्फरनगर की इमराना के साथ उसके श्वसुर के शारीरिक सम्बंध स्थापित किए जाने पर दिए गए फतवे सर्वाधिक चर्चित रहे।  महिलाओं के सन्दर्भ में पिछले एक दशक में एक पुरुष को एक साथ एक ही दिन में चार–चार लड़कियों से निकाह का फतवा दिया गया, जो भारतीय कानून में वर्णित आयु (कम से कम 18 वर्ष) का भी पालन नहीं करता था। स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी सूर्य नमस्कार तथा प्राणायाम के विरुद्ध भी फतवे दिए गए। एक फतवे में रक्तदान का विरोध किया गया। 'वन्देमातरम्' के विरुद्ध दिया गया फतवा भी चर्चित रहा। हरिवंश राय बच्चन की 1935 ई. में लिखित पुस्तक 'मधुशाला' के 73 वर्ष बाद उसके विरुद्ध फतवा दिया गया तथा इसे युवकों में अनैतिकता फैलाने वाली बताया गया।

फतवों की कानूनी स्थिति

वस्तुत: फतवे केवल मुफ्ती या मौलाना की व्यक्तिगत राय है। इनको मानना या न मानना उन व्यक्तियों पर निर्भर करता है जिनके सन्दर्भों में इन्हें दिया गया है। फतवा कोई मजहबी आदेश नहीं है। फतवा मानना कोई मजबूरी नहीं है, बल्कि यह एक सुझाव है। कानूनी रूप से इन फतवों की कोई मान्यता नहीं है। शरीयत के आधार पर दिए गए सुझावों को कई बार कुछ मुस्लिम विद्वान सर्वोपरि तथा मजहबी आदेश के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए–तकी रजा खां (अध्यक्ष, आल इंडिया इत्तेहाद काउंसिल, बरेली) ने एक बार कहा, 'कोई भी मुसलमान शरीयत के अर्न्तगत लिए गए फतवे के विरुद्ध सोच भी नहीं सकता है।' कुछ ने इस सन्दर्भ में सरकार के हस्ताक्षेप को अल्पसंख्यक मामलों में दखल बताया तथा इसे न मानने वालों को सच्चा मुसलमान न मानने की बात कहीं। (देखें, टाइम्स आफ इंडिया, 4 नवम्बर, 2006) परन्तु इस बारे में केन्द्र सरकार को दिया गया उच्चतम न्यायालय का यह निर्देश अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इस्लामी विद्वानों द्वारा दिया गया कोई भी फतवा कानूनी रूप से बाध्य नहीं है। फतवे से यदि किसी की भी असहमति है तो वह न्यायालय में जा सकता है। (विस्तार के लिए देखें, टाइम्स आफ इंडिया, 3 नवम्बर, 2006) अर्थात् भारतीय संविधान में कानूनी रूप से शरई अदालतों की कोई मान्यता नहीं  है। शरई अदालतों को कानूनी रूप से मान्य नहीं किया गया है। भारतीय संविधान की धारा 25 में धार्मिक स्वतंत्रता की बात तो की गई है, परन्तु उसके आधार पर न्याय–प्रशासन से स्वतंत्रता की नहीं। अत: कोई भी फतवा भारतीय संविधान से ऊपर नहीं है।

समय की आवश्यकता

फतवों का अत्यधिक सीमित दायरा होने पर भी अनेक तथाकथित सेकुलर राजनेता अपने निजी या अपनी पार्टी के राजनीतिक स्वार्थ के लिए इन मजहबी विद्वानों से फतवा प्राप्त करने, उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोशिश करते हैं। विशेषकर चुनावों के दिनों में मुस्लिम वेषभूषा में इन बहुरूपियों को देखा जा सकता है। क्या भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में इन छद्मवेशी लोगों के प्रयासों की तीव्र भर्त्सना नहीं होनी चाहिए? क्या इसे चुनाव संहिता के विपरीत नहीं माना जाना चाहिए?

यह अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्रशंसनीय है कि देश के पढ़े–लिखे मुस्लिम छात्र–छात्राओं ने इस दिशा में कुछ पहल की है। क्योंकि अनेक फतवे उनके स्वतंत्र चिंतन तथा विकास में साधक की बजाय बाधक बन गए हैं। यह महत्वपूर्ण है कि भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.एम.अहमदी तथा अनेक मुस्लिम विद्वानों ने कुरान के शाब्दिक अर्थ निकालने की बजाय उसके व्यावहारिक अर्थ को सर्वोपरि स्थान दिया है। आवश्यकता है अर्थहीन फतवों की कटु आलोचना कर देश की मुस्लिम युवा शक्ति को स्वतंत्र चिन्तन तथा विकास तथा राष्ट्रोपयोगी पथ पर अग्रसर करने की ।

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