मनरेगा में खुला भ्रष्टाचार
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मनरेगा में खुला भ्रष्टाचार

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Nov 12, 2011, 12:00 am IST
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राज्यों से

दिंनाक: 12 Nov 2011 15:37:00


उत्तर प्रदेश/ शशि सिंह

अफसरों की शह पर करोड़ों की लूट-खसोट

माया ने आंखें मूंदकर दी

दोषी अफसरों को खुली छूट थ्  नई दिल्ली-लखनऊ के बीच चिट्ठी-जंग


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केंद्र सरकार द्वारा पूरी तरह पोषित महत्वाकांक्षी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) उत्तर प्रदेश में राजनीति, अफसरशाही और भ्रष्टाचारियों की भेंट चढ़ गई है। संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में लागू की गई यह योजना ग्रामीण इलाकों में गरीबों और बेसहारा लोगों को रोजगार कम, प्रधानों, ग्राम विकास अधिकारियों, खंड विकास अधिकारियों, मुख्य विकास अधिकारियों और जिला अधिकारियों की जेबें भरने का जरिया ज्यादा बन गई है। विडंबना यह कि राज्य सरकार इस योजना में हो रहे करोड़ों रुपये के घोटाले पर कड़ी कार्रवाई करने की बजाय बड़े दागी अफसरों को बचाने की कोशिश में जुटी है। उधर केंद्र सरकार आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर चिट्ठीबाजी का सहारा ले रही है।

 

एक अनुमान के अनुसार, पिछले चार साल में प्रदेश को 20 हजार करोड़ रुपये मनरेगा के तहत मिल चुके हैं। कार्यों की पूरी जांच तो हुई नहीं, लेकिन कुछ जिलों की बानगी को आधार मानें तो 40 फीसदी से कम ही धन का सीधा और लाभकारी उपयोग हो पाया है। बाकी 60 फीसदी धन किसी न किसी अफसर, अफसरों के समूह, प्रधानों, वीडीओ (ग्राम विकास सचिवों) और बीडीओ (खण्ड विकास अधिकारियों) की जेबों में जाने आरोप लग रहे हैं। इन आरोपों में दम भी दिख रहा है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कुछेक जिलों में धांधलियों का उदाहरण देते हुए जब राज्य सरकार को पत्र में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से जांच कराने को कहा तो मुख्यमंत्री मायावती ने उसे राजनीतिक लाभ के नजरिये से लिखा पत्र बता प्रकारांतर से घोटालेबाजों के हौसले को ही बढ़ाने का काम किया। यही सच है। जिन जिलों में जांच हुई, वहां दोषी डीएम, सीडीओ पर हाथ नहीं डाला गया, अलबत्ता नीचे के अफसरों, विकास अधिकारियों, वीडीओ, बीडीओ, प्रधानों को दोषी बताकर दंडित किया गया।

घोटालों के लिए कुख्यात गोंडा, बलरामपुर, महोबा, कुशीनगर, मीरजापुर, संत कबीर नगर और सोनभद्र में जांच हुई तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। इनके अतिरिक्त सहारनपुर, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, मुरादाबाद, महामायानगर, अलीगढ़, बहराइच, बलिया, फीरोजाबाद, ओरैया, छत्रपित शाहूजी महराज नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी, बुलंदशहर, ज्योतिबा फुले नगर, सुल्तानपुर और चित्रकूट समेत कम से कम 40 जिलों में जांच कराई जाए तो योजना में बड़े घोटालों से पर्दा उठ सकता है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित भी मानते हैं कि घोटाले केवल सात जिलों तक सीमित नहीं हैं वरन् उनका दायरा इससे बड़ा है। संजय दीक्षित ने कुछ समय पहले कुछ जिलों में “मनरेगा” में धांधली की जांच की थी, उसकी रपट राज्य सरकार को दी गई थी, लेकिन अभी तक दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। राज्य सरकार पूरी रपट पर कुंडली मारकर बैठी है। घोटालों के दोषी किसी भी बड़े अफसर पर आंच नहीं आई। सवाल यह उठता है कि किसी बड़े अफसर की शह के बिना क्या करोड़ों रुपये का घोटाला हो सकता है? फिर ऐसे अफसरों पर आंच क्यों नहीं आई? राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है।

मनरेगा योजना प्रदेश में अफसरों की कमाई का जरिया तो बनी ही है, इसके साथ ही अफसर अपने निजी हित को विकास से जोड़कर उसका लाभ ले रहे हैं। मुख्यमंत्री कार्यालय में पदस्थापित वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी अनिल संत ने पूरी योजना को बाराबंकी में अपने फार्म हाउस तक सीमित करा दिया। मुख्यमंत्री का इशारा हो और जिले में कोई काम न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। हुआ भी वही। यहां जिला प्रशासन ने 17 करोड़ से अधिक की लागत से 17 किलोमीटर लंबी नहर को “मनरेगा” के धन से पक्का कराया। जहां संत का फार्म हाउस है, वहां पानी को रोकने के लिए दीवार बना दी गई है। तर्क दिया गया कि नहर वहीं खत्म हो गई है। सच्चाई यह है कि नहर की लंबाई 23 किलोमीटर है। लेकिन जांच कौन कराए कि सच क्या है? यही नहीं, नहर में कुल 97 कुलाबों में जो दो कुलाबे इनके खेतों की ओर बनाए गए हैं, उनकी ऊंचाई न के बराबर है और वे बिल्कुल तलहटी को स्पर्श कर रहे हैं। बाकी के कुलाबों की ऊंचाई तीन से चार फुट की है। स्वाभाविक है कि नहर में थोड़ा सा भी पानी आएगा तो उनके फार्म हाउस को जरूर मिलेगा, बाकी किसानों को मिले, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

नियम है कि “मनरेगा” के धन से आठ मीटर लंबी पुलिया का ही निर्माण किया जा सकता है। लेकिन कुशीनगर में तो हद हो गई। वहां “मनरेगा” के धन से 30 मीटर लंबा पुल बना दिया गया। लागत आई 69 लाख रुपये। घोर अनियमितता के कारण कुछ ही दिनों में उसमें बड़ी दरार आ गई। बात मीडिया में आई, लेकिन किसी भी अफसर पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई।

गोंडा, बलरामपुर, महोबा, कुशीनगर, मीरजापुर, संत कबीर नगर और सोनभद्र तो मनरेगा घोटाले के पर्याय हो चुके हैं। कहीं-कहीं तो पूरे प्रखंड में सैकड़ों लोगों के “जॉब कार्ड” नहीं बने और उनके नाम से भुगतान हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला। किसी प्रखण्ड में कुछ लोगों के “जॉब कार्ड” बने, उन्होंने काम नहीं किया, दरअसल उन्हें जरूरत ही नहीं थी, उन्हें आंशिक भुगतान हुआ, बाकी अफसरों की जेब में। बिना काम किए अगर पैसे जेब में आ रहे हैं तो कौन आपत्ति जतायेगा? गोंडा में दो साल के भीतर चार करोड़ से अधिक के घोटाले की बात सामने आई है। बगैर टेंडर के एक निजी संस्था से एक करोड़ से अधिक के टेंट खरीदे गए। इसके अलावा मजदूरी करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए एक करोड़ के खिलौने खरीदे गए। दो करोड़ रुपये के फावड़े और तसले तथा 50 लाख रुपये की पानी की टंकी भी खड़ी की गई। गोंडा के पड़ोसी जिले बलरामपुर में भी चार करोड़ की अनियमितता की बात सामने आयी है। मीरजापुर में चार करोड़, कुशीनगर में ढाई करोड़ और महोबा में 51 लाख रुपये की धांधली सामने आयी है। यह लेखा-जोखा दो साल का है।

सोनभद्र का तो और भी बुरा हाल रहा। प्रदेश के अति पिछड़े जिलों में शामिल नक्सल प्रभावित इस जिले में 2009-10 में सर्वाधिक 250 करोड़ खर्च किए गए। मानकों की अनदेखी कर “चेक डैम” बनाये गए, कुछ ही दिनों में वे टूट गए। इसे बनाने में फर्जी मस्टर रोल तैयार किये गए। जांच में पाया गया कि मृतकों के भी मस्टर रोल तैयार कर लिये गए थे। एक प्रखण्ड में 24 रुपये में एक ईंट की खरीद दिखायी गई। पूरे प्रदेश में सामान्यतया एक ईंट की अधिकतम कीमत (फुटकर खरीद पर) पांच रुपये है। इतनी अंधेरगर्दी पर भी किसी तरह की कार्रवाई न होने का सीधा मतलब है कि बड़े अफसर इसमें शामिल हैं।

पूरे देश में उत्तर प्रदेश पहला ऐसा राज्य है जहां से मनरेगा के कामकाज संबंधी सर्वाधिक शिकायतें केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास पहुंची हैं। 2008 और 2009 के बीच के कुछ महीनों में करीब करीब सभी राज्यों से केंद्र के पास शिकायतें की गई थीं। कुल 1010 शिकायतों में केवल उत्तर प्रदेश से 337 शिकायतें थीं। यानी एक तिहाई शिकायतें केवल उत्तर प्रदेश से। शिकायतों में उसके बाद मध्य प्रदेश (158), राजस्थान (138), बिहार (103) तथा झारखंड (67) का नंबर आता है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश में विभिन्न जिलों से एक दर्जन सांसदों और इतने ही विधायकों ने घोटाले की आशंका जताते हुए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय से जांच की मांग की। मंत्रालय ने भी उन शिकायतों को राज्य सरकार के पास जांच के आग्रह के साथ अग्रसारित कर दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के पास आयीं शिकायतें ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। अभी तक उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया गया है।

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