सम्पादकीय
|
सम्पादकीय
एक चोरी करता है, एक चोरी में मदद करता है, एक चोरी का इरादा करता है, तीनों चोर हैं।
-महात्मा गांधी (बापू के आशीर्वाद, पृ. 287)
सत्ता में बैठै कुछ लोगों को लगता है कि दुनिया उनकी मुट्ठी में है और वे जब चाहें जो चाहें कर सकते हैं, कानून भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दुर्भाग्य से आजादी के बाद पिछले 64 वर्षों में हमारा राजनीतिक ढांचा और व्यवस्था तंत्र उसी प्रकार का विकसित हुआ है जहां इस प्रवृत्ति को और बल मिलता गया। लेकिन भारत की न्यायपालिका ने लगातार यह जताया है कि कानून के ऊपर कोई नहीं, भारत की संवैधानिक, लोकतांत्रिक व लोक कल्याणकारी राज्य की संकल्पनाओं को यदि कोई चोट पहुंचाएगा या वैसा प्रयास करेगा तो उसे सजा मिलेगी। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जो तब भारत की सबसे ताकतवर हस्ती मानी जाती थीं, चुनावी अनियमितता के आरोप में न्यायमूर्ति जनमोहन सिन्हा ने उनका निर्वाचन अवैध ठहराकर इसी सत्य को रेखांकित किया था। अतीत के ऐसे और भी कई उदाहरण हैं, लेकिन मौजूदा दौर में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सच्चाई सामने लाने और दोषियों पर शिकंजा कसने में सर्वोच्च न्यायालय की जो भूमिका है, वह स्वतंत्र भारत की इस सबसे भ्रष्ट व अनैतिक संप्रग सरकार के दंश को झेल रही देश की जनता के लिए राजनीतिक पतन और सत्ता के सर्वाधिक दुरुपयोग से उपजी हताशा के अंधकार को चीरकर आशा व विश्वास जगाने वाले एक दीपस्तंभ की तरह है।
सत्ता स्वार्थों व भ्रष्ट मानसिकता के कारण सरकार इस महाघोटाले से आंखें मूंदे बैठी रही, प्रधानमंत्री मूकदर्शक बने रहे और देश का खजाना लुटता रहा। जब दोषियों पर शिकंजा कसा गया तब भी सरकार सीबीआई के दांवपेंच से मामले को रफा-दफा करने की भरसक कोशिश करती रही, गठबंधन की मजबूरी कहकर अपने राजधर्म की अनदेखी करती रही, सहयोगी दल द्रमुक के दबाव में सख्त कार्रवाई से बचती रही, लेकिन न्यायपालिका ने उसकी एक न चलने दी। महाघोटाले के मुख्य आरोपी तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा व द्रमुक प्रमुख करुणानिधि की बेटी कनिमोझी सहित करीब एक दर्जन लोग सलाखों के पीछे धकेल दिए गए। अब सरकार के इशारे पर सीबीआई उन्हें जमानत पर छुड़ाने को कसमसा रही है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तो कई बार उनकी हिमायत कर चुके हैं। एक बार फिर कनिमोझी सहित 8 लोगों की जमानत अर्जी दाखिल की गई, जिसे विशेष न्यायालय ने बड़ी सख्ती से खारिज कर दिया। सीबीआई का रुख तो इसी से समझा जा सकता है कि उसने कनिमोझी व चार अन्य की जमानत अर्जी का कोई विरोध नहीं किया। जबकि अदालत का कहना है कि यह एक गंभीर आर्थिक अपराध है और अभूतपूर्व प्रकृति का मामला है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर भी व्यापक असर पड़ सकता है। अदालत ने यह तर्क भी खारिज कर दिया कि इनका नाम पूरक आरोप पत्र में शामिल किया गया है और कहा कि मुख्य और पूरक आरोप पत्र एक ही मामले से जुड़े हैं जो कि बेहद गंभीर किस्म का है। इसलिए इस आधार पर रियायत नहीं दी जा सकती। कनिमोझी के महिला होने का तर्क भी अदालत ने यह कहकर खारिज कर दिया कि कनिमोझी संभ्रांत समाज से ताल्लुक रखती हैं और वह एक सांसद भी हैं। ऐसी परिस्थिति में सिर्फ महिला होने की वजह से वह किसी भेदभाव की शिकार नहीं हैं, लिहाजा उन्हें इस आधार पर छूट नहीं दी जा सकती।
इस सारे प्रकरण से स्पष्ट है कि सीबीआई केन्द्र सरकार के इशारे पर नाच रही है और कांग्रेस अपने राजनीतिक समीकरण साधे रखने के लिए सरकार के द्वारा सीबीआई का दुरुपयोग करवा रही है। आरोपियों के प्रति दिग्विजय सिंह की हमदर्दी से भी यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है। लेकिन कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकार का क्या देश और जनता के प्रति कोई दायित्व नहीं है? यदि वह सत्ता स्वार्थों व राजनीतिक समीकरणों के प्रति ही प्रतिबद्ध है तो एक क्षण भी उसे सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। देश को लूटने की खुली छूट देना और जनता की खुशहाली व देश का विकास दांव पर लगाना, यह कौन से राजधर्म का पालन है? दूसरों को राजधर्म की पट्टी पढ़ाने वाली कांग्रेस जरा अपने गरेबां में तो झांककर देखे।
टिप्पणियाँ