बात बेलाग
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समदर्शी
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को फिर अचानक महंगाई की चिंता सताने लगी है। इस बार अपनी चिंता का इजहार उन्होंने केन्द्रीय खाद्य मंत्री के.वी. थामस को तलब कर किया। देश पिछले तीन साल से भी ज्यादा समय से बेलगाम महंगाई की मार झेल रहा है, पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार राहत की नित नयी तारीख का आश्वासन देने से ज्यादा कुछ करती नजर नहीं आती। कहना नहीं होगा कि तीन सालों में ये तारीखें अनगिनत बार बदल चुकी हैं, पर खुद को 'आम आदमी की सरकार' बताने वाली मनमोहन सिंह सरकार के वायदे हैं कि पूरे होते नजर नहीं आते। अभी इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त सरकार से बेलगाम हुईं तेल कम्पनियों ने पेट्रोल 1.82 रु. प्रति लीटर महंगा कर दिया है। डीजल और रसोई गैस भी महंगे होने के कगार पर हैं! मनमोहन सिंह सरकार के पिछले कार्यकाल में ही महंगाई की मार शुरू हो गयी थी। तब भी सोनिया गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाकर, तो कभी कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर अपनी चिंता की रस्म अदायगी कर देती थीं। कांग्रेस को उन मगरमच्छी आंसुओं का फायदा भी मिला, जब वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में भरमाये मतदाताओं ने उसे एक और कार्यकाल का जनादेश दे दिया। उसके बाद मनमोहन सरकार फिर लंबी तानकर सो गयी। दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों के समय अक्तूबर महीने में महंगाई की दर फिर दो अंकों में ही नहीं पहुंच गयी, बल्कि छह माह के रिकार्ड स्तर पर भी चली गयी। तिस पर डेढ़ साल में तेरहवीं बार भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ा दीं। आम आदमी पर यह दोहरी मार है। सोनिया गांधी की चिंता का आम आदमी की इस पीड़ा से कोई सरोकार नहीं है। दरअसल सोनिया की चिंता एक बार फिर चुनावी है। अगले साल उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। जन लोकपाल विधेयक पर सरकार और कांग्रेस के गिरगिट की तरह बदलते रंगों से खफा अण्णा हजारे की टीम ने भी उसके विरुद्ध इन राज्यों में अभियान चलाने का ऐलान कर दिया है। ऐसे में बेलगाम महंगाई की मार से त्रस्त आम आदमी के प्रति चिंता जताना सोनिया की चुनावी मजबूरी भी है।
'बाबा लोग' की राजनीति
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की राजनीति को 'बाबा लोग की राजनीति' भी कहा जाता है। जाहिर है इस संबोधन पर कांग्रेसी मन मसोसकर राहुल की राजनीतिक परिपक्वता के उदाहरण गढ़ कर सुनाते हैं। राहुल खुद और कांग्रेसी भी, मीडिया में अथक प्रयासों से बनायी गयी छवि के प्रति बेहद सजग रहते हैं। इसलिए उदाहरण के तौर पर कुछ मामले भी बताये जाते हैं। मसलन हिमाचल प्रदेश में मंडी विधानसभा क्षेत्र से जब पूर्व मुख्यमंत्री एवं मौजूदा केन्द्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी को टिकट नहीं दिया गया तो कांग्रेसियों ने उसका श्रेय राहुल को देते हुए कहा था कि वह परिवारवाद के बजाय कार्यकर्त्ताओं को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं। लेकिन सच इसके उलट ही है। खुद परिवारवाद की देन राहुल चुनाव के दिखावे के बावजूद युवा कांग्रेस में वंशवाद को ही बढ़ावा दे रहे हैं। हरियाणा प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष राज्य के वरिष्ठ मंत्री कैप्टन अजय यादव के बेटे चिरंजीव हैं तो अब हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य का पद पर बैठना तय है। उनके विरुद्ध दूसरे उम्मीदवार रघुवीर सिंह भी वंशवाद की ही देन हैं। वह पूर्व मंत्री बाली के बेटे हैं। यह फेहरिस्त और भी लंबी बन सकती है, यानी राहुल की राजनीति दरअसल 'बाबा लोग की राजनीति' ही है।
क्या थे, क्या हो गये
रामविलास पासवान याद हैं आपको? वह भारतीय राजनीति के उन चेहरों में से एक हैं, जो सत्ता के किसी भी सांचे में बेझिझक फिट होने के लिए लालायित रहते हैं। लंबे अरसे बाद ऐसा हुआ है, जब वह केन्द्र में मंत्री नहीं हैं, वरना तो केन्द्र में सरकार किसी दल या गठबंधन की रही हो, पासवान का मंत्री बनना एक स्थायी भाव बन गया था। लेकिन कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले पासवान बेचारे आज लोकसभा सदस्य तक नहीं हैं। लालू की मेहरबानी से वह राज्यसभा में आ पाए। अब हालत यह है कि उनकी लोक जनशक्ति पार्टी का लोकसभा और बिहार विधान परिषद में कोई नामलेवा भी नहीं है।
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