गवाक्ष
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सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार घनश्याम अग्रवाल का एक रूप लघु-कथाकार का भी है, और यह रूप बेहद प्रभावी है। उनका लघु कथा संग्रह 'अपने-अपने सपने' (प्रकाशक-दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-35, मूल्य-200/-रु.) इसकी प्रामाणिक उद्घोषणा करता है। एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार एक श्रेष्ठ गीतकार भी होता है- अपने अन्तस् के गहन केन्द्र में। उसकी कराह ही अक्सर कहकहों की शक्ल में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। घनश्याम अग्रवाल का आत्मकथ्य उनकी लघुकथाओं का जन्म-सत्य इस इस प्रकार प्रकट करता है-
'एक गीत जैसा कुछ लिखने का मन रहा। मगर गीत के लिए जो एक दिल लगाने से दिल जलाने की कूवत, एक गुनगुनाहट और एक फूटी तकदीर चाहिए, वह सब मेरे पास नहीं था। था तो बस केवल गीत लिखने का मन। इस मन से जो देखा, सोचा, लिखा, महसूसा-उसे सिर्फ सुविधा के हिसाब से लघुकथा कह सकते हैं। जब भगवान की मूर्ति छोटी हो तो भी उसकी भगवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता। ना किसी बौने आदमी का जीवन बौना होता है और ना ही छोटा टीका लगाने भर से कोई महिला जल्दी विधवा होती है। तो फिर एक छोटी-सी कथा किसी की जिन्दगी की बड़ी व्यथा क्यों नहीं हो सकती?'
हिन्दी कथा-साहित्य में इन दिनों लघु-कथा पर्याप्त लोकप्रिय है। जीवन के किसी एक बिन्दु को भावमय दृष्टि से देखकर एक विशिष्ट कलात्मक संस्पर्श के साथ उसकी प्रभावपूर्ण प्रस्तुति किसी भी लघु कथा को पुन: पुन: पठनीय बना देती है। हम उसके आईने में अपने को, अपनों को, अपने परिवेश और परिपार्श्व को प्रतिच्छवित पाते हैं और अनायास अपनी विकृतियों के प्रति सजग, अपनी विडम्बनाओं के प्रति सचेत हो जाते हैं और यही चैतन्य अन्तत: उनमें अपेक्षित परिवर्तन का प्रयास बन जाता है।
इस पुस्तक के अन्तिम आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित पंक्तियां काव्यपंक्तियां भी कही जा सकती हैं-
मानो या न मानो
जानो या न जानो
पर यह सच है
कि दुनिया में जब एक आदमी भी
भूखा सोता है
तो भरपेट खाने वाले
एक रात के लिए
आतंकवादी होते हैं!
सुप्रसिद्ध लघु कथाकार विनोद भट्ट की टिप्पणी घनश्याम अग्रवाल की रचनाधर्मिता का सम्यक् आकलन प्रस्तुत करती है-'व्यंग्य की जननी वेदना है। इनकी (घनश्याम अग्रवाल की) रचनाओं में मर्मस्पर्शी विचार होते हैं, जिसे पढ़ने के बाद मन पर एक उदासी-सी छा जाती है। हास्य-व्यंग्य की यह ताकत अग्रवाल जी की रचनाओं में उजागर होती है।…. अनछुआ विषय, गहरी संवेदना, बाल मनोविज्ञान और निरीक्षण-दृष्टि इन कथाओं की विशेषता है।'
हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन की विद्रूपता को उजागर करने वाली 'पुरस्कार' नाम की उनकी एक लघुकथा उनकी रचनाशीलता के दृष्टान्त रूप में यहां प्रस्तुत है-
'जब उसका नाम पुकारा गया तो वह माइक पर आया और कहने लगा- कल एक गरीब आदमी को भरपेट भोजन मिला। उसकी बीमार पत्नी को सरकारी अस्पताल से बिना कुछ दिए सही दवा मिली। उसके बच्चों ने भी उस दिन सुबह पानी के बदले दूध पिया। इन सबके लिए उसने चोरी नहीं की। किसी को धोखा नहीं दिया। इतना ही नहीं, उस दिन वह शहर में घूमता रहा तो भी राह चलते किसी पुलिस वाले ने उसे गरीब और शरीफ आदमी समझकर सताया भी नहीं और वह शाम को हंसता हुआ घर लौटा। ….उसके इस कथन पर उसे उस दिन आयोजित 'गप्प प्रतियोगिता' में प्रथम पुरस्कार दिया गया।'
एक लोकतांत्रिक समाज में जो आचरण और जीवन-चर्चा हर व्यक्ति के लिए सहज-स्वाभाविक होनी चाहिए उसका उल्लेख गप्प प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाता है-इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी?
इसी तरह 'हम हिन्दुस्तानी' नामक लघुकथा अपने राष्ट्र के प्रति सच्चे सम्मान के भाव से रहित एक हिन्दुस्थानी का चित्र प्रस्तुत करती है। इस कथा में सरकारी वकील एक आदमी को अदालत में प्रस्तुत कर उस पर आरोप लगाता है कि यह आदमी भारतीय नहीं है। वह अपने तर्कों में यह बात जोरदार तरीके से रखता है कि चूंकि इस आदमी के पास राशनकार्ड नहीं है, इसका नाम मतदाता सूची में नहीं है, इसकी बातों में न सरकार से कोई शिकायत है और न ही मंहगाई का रोना है।… यह विदेशी जासूस होगा। भारत में तो ऐसा आदमी देखा नहीं जाता।… इस बात पर न्यायाधीश जब आरोपित व्यक्ति से प्रश्न करता है तो वह शपथ लेकर स्वयं को भारतीय बताता है। फिर सरकारी वकील उससे राष्ट्रगान सुनाने को कहना है। वह आधा ही सुना पाता है। इस पर सरकारी वकील अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो जाता है। और तब न्यायाधीश अपना निर्णय उद्घोषित करते हैं। घनश्याम अग्रवाल के शब्दों में- 'जज साहब ने सरकारी वकील की बात काटकर फैसला सुनाते हुए कहा- अदालत सरकारी वकील से इत्तेफाक रखती है। उसने जो-जो लक्षण बताए वे किसी भारतीय के नहीं हो सकते। किन्तु अन्त में आरोपी को राष्ट्रगीत का पूरा-पूरा याद न होना, इससे शक होता है कि कहीं ये भारतीय ही न हो। अत: सन्देह का लाभ देते हुए अदालत आरोपी को बाइज्जत बरी करती है।'
घनश्याम अग्रवाल की लघु-कथाएं जब बाल मनोविज्ञान का संस्पर्श करती हैं अथवा आज के चर्चित विषय स्त्री-विमर्श को आधार बनाती हैं, तो उनकी सम्प्रेषणीयता और प्रभाव-क्षमता (प्रहार-क्षमता भी) अप्रतिम हो जाती है। चाहे 'अपने-अपने सपने' की वह बच्ची हो जो हर रात एक नए ढंग से रोटी का सपना देखती है, चाहे 'तुलसा का कलसा' की मजबूर लेकिन बेहद खुद्दार तुलसा हो, चाहे 'रोशनी ढोते हुए' बब्बुओं की समूह वार्ता हो और चाहे 'मदद' की सोलह वर्षीया लड़की की सहायता को उत्सुक समर्थ शोषक की क्रूर करुणा हो, घनश्याम अग्रवाल की तमाम लघु कथाएं हमारे परिवृत्त में श्वास लेती वे व्यथाएं हैं जो प्रश्नचिन्ह बनकर उत्तर तलाश रही हैं।
तनहा के तेवर
सुकवि सचिन अग्रवाल 'तनहा' के प्रभावी अशआर मुझ तक एक खास ढंग से पहुंचे। मेरी सुपुत्री अस्मिता पन्त और साहित्यानुरागी जमाता मनीष पन्त इन दिनों आस्ट्रेलिया में हैं। मनीष अन्तरजाल (इंटरनेट) के माध्यम से 'तनहा' के सम्पर्क में रहते हैं और अक्सर उनके अशआर मुझे सुनाते हैं, मोबाइल पर भेजते हैं। मुझे उन्होंने बताया कि 'तनहा' एक युवा रचनाकार हैं और अलीगढ़ (उ.प्र.) में निवास करते हैं। इस युवा कवि के पास गजल विधा में दक्षता तो है ही, एक राष्ट्रवादी चिन्तना और अति संवेदनशील अन्तस् में आलोड़ित भावाकुलता के साथ-साथ कलात्मक निपुणता भी है। 'तनहा' के तेजस्वी बयान की एक बानगी यहां प्रस्तुत है-
वो पेरिस के लबादे थे जिन्हें खादी कहा हमने,
भरम था वो जो बंटवारे को आजादी कहा हमने!
तथा-
ये जलते घर ये चिथड़े आदमी के
औ धुआं कब तक,
ये नफरत के निशां कब तक
ये आतिशबाजियां कब तक,
न जाने कितना झुलसेगी जमीं
इक बूंद की खातिर,
न जाने और देखेगा तमाशा
आसमां कब तक?
भारतीय राजनीति से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक विडम्बनाओं के बिम्ब 'तनहा' की गजलों में पूरी दमदारी के साथ उपस्थित हैं और तमाम विपरीतताओं के मध्य उनकी आत्मविश्वस्ति आश्वस्त करती है-
यही जिद है गरीबी गर तेरी तो आजमाती रह,
ये भूखा पेट हमको और भी खुद्दार कर देगा।
उनका अभी तक कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ है-यह जब मुझे पता लगा तो मेरे चित्त में भाई प्रमोद तिवारी का एक शेर कौंध गया। उसी को उद्धृत करते हुए उनके लिए शुभकामना करता हूं-
इतनी तरह के अश्क हैं उस सिरफिरे के पास,
देखोगे किसी रोज निकालेगा संकलन। n
अभिव्यक्ति मुद्राएं
जिन्दगी है चन्द सपनों की कहानी,
जिन्दगी विश्वास के प्रति सावधानी
जिन्दगी इतिहास है निर्मम समय का,
जिन्दगी है आसुंओं की राजधानी।
–कमल किशोर भावुक
वही महाजन वही हम वही हमारा गांव,
वही गरीबी भुखमरी वही कर्ज की छांव।
लगे हुए हैं पोस्टर गांव हुए खुशहाल,
लेकिन शहरों की शरण हर होरी का लाल।
–कुन्दन सिंह सजल
थोड़ी मस्ती थोड़ा–सा ईमान बचा पाया हूं,
ये क्या कम हैं मैं अपनी पहचान बचा पाया हूं।
-अशोक रावत
… पुरखों की यादें
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
नई ताजगी भर जाती हैं,
पुरखों की यादें
मन को दिया दिलासा,
दुख के बादल जब छाए
खुशियां बांटी संग,
सुखद पल जब भी घर आए
सपनों में भी बतियाती हैं
पुरखों की यादें
स्वार्थ पूर्ति का पहन मुखौटा
मिलता हर नाता
अवसादों के अंधड़ में जब
नजर न कुछ आता
बड़े प्यार से समझाती हैं
पुरखों की यादें
कभी तनावों के जंगल में
भटके जब–जब मन
और उलझनें बढ़ती जाएं
दूभर हो जीवन
नई राह तब दिखलाती हैं
पुरखों की यादें
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