चर्चा सत्र
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भारत से निकटता ही समाधान
-मा. गो. वैद्य-
यह सर्वमान्य है कि पाकिस्तान आज की स्थिति में अपने बूते टिक नहीं सकता। वैसे भी वह कब का समाप्त हो गया होता, अगर अमरीका की फौजी और आर्थिक सहायता उसे नहीं मिली होती। उस समय अमरीका को पाकिस्तान की आवश्यकता थी। अफगानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत सेना ने आक्रमण किया था। उसने वहां अपनी एक कठपुतली सरकार बिठा दी थी। अफगानिस्तान में सोवियत दबदबा समाप्त करने के लिए तब अमरीका ने पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में फौजी और आर्थिक सहायता दी। वहां सोवियत वर्चस्व समाप्त होने के बाद कुछ वर्ष अफगानिस्तान में गृहयुद्ध चला। उसमें तालिबान सफल हुआ और 1994 में वहां तालिबान की सत्ता स्थापित हुई। इस तालिबान को पाकिस्तान की संपूर्ण सहायता प्राप्त थी। 2001 में न्यूयार्क शहर पर अल-कायदा ने आतंकी हमला करके तीन हजार से अधिक नागरिकों की हत्या कर दी थी। इसके बाद अमरीका फिर अफगानिस्तान में उतरा और उसने तालिबान को परास्त कर हामिद करजई की सरकार स्थापित की। तथापि, पाकिस्तान के तालिबान के साथ तार जुड़े रहे।
अमरीका की दृष्टि में तालिबान आतंकवादी संगठन है। अफगानिस्तान में अभी भी “नाटो” की फौज तैनात है। जब तक वह फौज वहां है, तब तक वहां तालिबान की दाल नहीं गलने वाली। 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमले के बाद आतंकवाद के उग्र संकट का अमरीका को अहसास हुआ और उसकी नीति आतंकवाद को दुनियाभर से मिटाने की बनी। अमरीका की कल्पना थी कि इस आतंकवाद विरोधी संघर्ष में पाकिस्तान सच्चे मन से उसकी सहायता करेगा, लेकिन वह कल्पना झूठ साबित हुई। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी -आईएसआई – के अफगानिस्तान में आतंकवाद फैलाने वाले गुट तालिबान के ही सिराज हक्कानी गुट के साथ अंदरूनी संबंध हैं, अमरीका को अब इसका पता लग चुका है। अमरीका के सैन्य कमांडर ने ऐसा स्पष्ट आरोप लगाया है। अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भी यही कहा है और अब तो अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा ने भी इसकी पुष्टी की है। अमरीकी संसद में ओबामा ने कहा, “आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान के योजित उपाय परिणाम देने में असफल रहे हैं। विद्रोही और अधिक शक्तिशाली बने हैं, नाटो की फौज के लिए खतरा और बढ़ गया है।”
अफगानिस्तान में नया मोड़
अमरीका के राजनीतिज्ञ और फौज के अधिकारियों के वक्तव्यों के कारण पाकिस्तान की मुश्किल बढ़ी है। अमरीका पाकिस्तान की उपेक्षा करेगा तो अपना एक “मित्र” खो बैठेगा, ऐसी सीधी धमकी पाकिस्तान की विदेश मंत्री ने दी है। लेकिन इस धमकी का अमरीका पर कोई असर नहीं होगा। इसके साथ ही पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान के तालिबान साथ के संबंध भी समाप्त नहीं होंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि उनकी सरकार तालिबान के साथ वार्ता करने के लिए तैयार है। लेकिन तालिबान के किस गुट के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी वार्ता करने वाले हैं, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। संभवत: वे सिराज हक्कानी गुट के साथ चर्चा करेंगे। इसी हक्कानी गुट ने अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हाल ही में हत्या की है। इस हत्या के कारण अफगानिस्तान की राजनीति ने नया मोड़ लिया है। पाकिस्तान को लेकर अफगानिस्तान की सरकार का भ्रम टूटा है। उसने तालिबान के साथ समझौते की वार्ता रोक दी है। आखिर उन्होंने पाकिस्तान का दबाव नहीं माना।
आज पाकिस्तान में अस्तित्व का संकट है। ऐसे में वहां की जनता को ही विचार करना है कि चीन के पीछे जाना है या भारत के साथ सौहार्द बनाना है। लेकिन वक्त रहते उस दिशा में कदम तो बढ़ने चाहिए।
भारत-अफगान मैत्री
अमरीका के हवाई हमलों से ध्वस्त हुए अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत उसकी सहायता कर ही रहा था। सड़क निर्माण और चिकित्सा, इन दो क्षेत्रों में भारत अफगानिस्तान को बड़ी मात्रा में सहायता दे रहा है। अब हाल में हुए नए अनुबंध के तहत भारत अफगानिस्तान की फौज और सुरक्षा बलों को भी प्रशिक्षण देगा। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने पाकिस्तान को अपना “जुड़वां भाई” और भारत को सच्चा मित्र बताया है, लेकिन अफगानिस्तान के इस “जुड़वां भाई” को भारत-अफगान मित्रता हजम नहीं होगी। चाणक्य के भू-राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार भारत और अफगानिस्तान “सहज” मित्र हैं। अमरीका को भी यह मित्रता मान्य होगी। अमरीका और “नाटो” राष्ट्रों ने 2014 में अफगानिस्तान से अपनी फौजें वापस लेना तय किया है। तब तक, अफगानिस्तान में पाकिस्तान गड़बड़ नहीं मचा सकता। चीन के उकसावे पर भी वह ऐसा नहीं कर सकता। दूसरी बात यह भी है कि चीन का दुनिया के इस भाग में वर्चस्व स्थापित होना अमरीका को नहीं भाएगा। “नाटो” फौज हटने के बाद अफगानिस्तान की मदद भारत ही कर सकता है। भारत इस बीच तीन साल में अफगान फौज को और सक्षम बनाएगा। इसके अलावा, पाकिस्तान ने दु:साहस किया तो भारत ही पाकिस्तान को रोक सकेगा।
इस्लाम और सर्व समावेशकता
आज पाकिस्तान घोर राजनीतिक संकट में फंसा है। उसने अमरीका का भरोसा खो दिया है। चीन पाकिस्तान को हड़पने का मौका तलाश रहा है। अमरीकियों को यह स्थिति रास आएगी, इसकी संभावना नहीं है। लेकिन अन्य राष्ट्र भले कुछ सोचें, पाकिस्तान की जनता को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक मूलभूत बात यह है कि, पाकिस्तान की निर्मिति “इस्लाम खतरे में है” की घोषणा से हुई थी। यह “खतरा” किससे है? भारत से, और स्पष्ट कहें तो हिंदुस्थान से! तब आधारभूत तत्व था हिंदूद्वेष का और दिखावटी तत्व था इस्लामी बंधुभाव का। इसी दिखावटी तत्व के कारण डेढ़-दो हजार किलोमीटर की दूरी होते हुए भी पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान मिलकर एक पाकिस्तान बना था। लेकिन, स्पष्ट है कि इस्लाम की शिक्षा में सर्वसमावेशकता और सौहार्द नहीं हैं। ये दोनों होते तो पूर्वी पाकिस्तान केवल 25 वर्ष के भीतर अलग नहीं होता। इस विभाजन ने यह सिद्ध किया कि भाषा का अभिमान इस्लामियत को मात दे सकता है। सर्वसमावेशकता न होने के कारण ही पाकिस्तान में गत करीब 45 वर्षों से अहमदिया मुसलमानों को गैर मुस्लिम ठहराया गया है। यहां यह ध्यान दें कि पाकिस्तान की निर्मिति होने के बाद उसके पहले विदेश मंत्री जफरुउल्ला खान अहमदिया थे। आज वहां शिया बनाम सुन्नी, पंजाबी बनाम सिंधी, पंजाबी बनाम बलूची आदि संघर्ष होते रहते हैं।
फौज का प्राबल्य
अत: भविष्य में पाकिस्तान का टूटना अटल है। वह कभी भी एक राष्ट्र नहीं था। एक “राज्य”, एक सभ्य राज्य के रूप में वह टिक नहीं सकता। हां, फौज फिर अपनी सत्ता स्थापित करेगी। जरदारी-गिलानी के स्थान पर कयानी आ सकते हैं। ऐसे में वहां की जनता हिंदुस्थान के मुसलमानों की ओर कुछ खुले दिल से और निर्विकार दृष्टि से देखे। 14 अगस्त 1947 के समान अगर पाकिस्तान भारत का एक घटक बनता है, तो जो प्रांत मिलाकर पाकिस्तान बना है, वहां कोई मुसलमान नेता मुख्यमंत्री हो सकता है, क्योंकि वह चुनाव जीत कर आएगा। प्रत्येक प्रांत का स्वतंत्र और स्वायत्त अस्तित्व भी रहेगा। उन्हें सब प्रकार की व्यावहारिक स्वायत्तता होगी। अंग्रेजों की सत्ता के समय भारत में अनेक रियासतें थीं- हैदराबाद, मैसूर, कश्मीर, ग्वालियर आदि। उनके राजाओं को सब प्रकार की आंतरिक स्वतंत्रता थी। भारत के साथ संलग्न होने के बाद पाकिस्तान के प्रांतों को भी वैसी स्वतंत्रता मिल सकती है। आंतरिक कारोबार के लिए उन्हें पूर्ण स्वायत्तता मिल सकती है। लेकिन उस स्थिति में भी तीन क्षेत्रों पर भारत का नियंत्रण रहेगा- (1) विदेश संबंध, इसमें आर्थिक अनुबंधों का भी समावेश है। (2) सुरक्षा, और (3) जनतांत्रिक व्यवस्था। पाकिस्तान में जनतांत्रिक राज्यप्रणाली ही रहनी चाहिए। आज पाकिस्तान में अस्तित्व का संकट है। ऐसे में वहां की जनता को ही विचार करना है कि चीन के पीछे जाना है या भारत के साथ सौहार्द बनाना है। लेकिन वक्त रहते उस दिशा में कदम तो बढ़ने चाहिए।*
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