सोनिया की मनमोहन सरकारकर रही है देश का बेड़ा गर्क
|
गत दिनों नई दिल्ली में लंबे तामझाम और रौब-दाब के साथ सम्पन्न कराई गई राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में केन्द्र सरकार की भावी नीतियों पर कई मुख्यमंत्रियों की कड़ी टिप्पणी से सरकार झुकने को मजबूर हुई थी। अब उस के बाद हाल में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक भी सोनिया की मनमोहनसरकार की संकुचित राजनीति का शिकार बन गयी। यह बैठक बुलायी तो गयी थी 12 वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र पर चर्चा और मंजूरी के लिए, पर वह दलगत राजनीतिक दुर्भावना के चक्रव्यूह में कुछ इस तरह उलझ गयी कि मंजूरी के अलावा इसमें कोई सार्थक चर्चा नहीं हो पायी। मंजूरी तो एक प्रक्रियागत मजबूरी थी, इसलिए मिलनी ही थी। लेकिन जिस पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र पर ही इतनी अधिक राजनीति हो जाये, वह किसका और कैसा विकास कर पायेगी, यह बात सहज समझी जा सकती है।
केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों की केन्द्र के सौतेलेपन की शिकायतें नयी नहीं हैं। ऐसी शिकायतें अक्सर रही हैं, और यह भी नहीं कहा जा सकता कि ये निराधार रही हैं। लेकिन वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह सरकार के पदारूढ़ होने के बाद से तो यह दलगत भावना स्थायी भाव बन गयी है। यही कारण कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ गैर राजग-गैर संप्रग दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी केन्द्र के इस भेदभावपूर्ण व्यवहार पर कड़ी आपत्ति जतायी है।
विकास के नये मानदंड स्थापित करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता तक और छोटे से खू
बसूरत राज्य हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल से ले कर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तक, कमोबेश हर मुख्यमंत्री का एक ही दर्द सर्वाधिक मुखर हुआ कि विकास के मामले में भी भेदभाव करने से केन्द्र सरकार बाज नहीं आती।
कहना नहीं होगा कि मनमोहन सिंह सरकार का राजनीतिक दुर्भावना-प्रेरित यह भेदभाव राज्यों के विकास पर ग्रहण लगा रहा है। देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश जातिवादी राजनीति के चक्रव्यूह में फंस कर विकास की दौड़ में पहले ही बुरी तरह पिछड़ चुका है। ऐसे में वहां कांग्रेस को फिर से पैरों पर खड़ा करने के एकमात्र एजेंडे से प्रेरित हो कर काम कर रही मनमोहन सिंह सरकार विकास के पहिये को पंचर ही कर रही है।
इसमें दो राय नहीं कि पहले मुलायम सिंह यादव और अब मायावती के शासन ने उत्तर प्रदेश को जातिवादी राजनीति का नहीं, बल्कि भ्रष्टाचा
र का भी बंदी बना दिया है। लेकिन इसके आवरण में इस सच्चाई को नहीं छिपाया जा सकता कि मनमोहन सिंह सरकार वहां जरूरी विकास योजनाओं के लिए भी धन नहीं दे रही है। वर्ष 2007 में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही मायावती राज्य के सबसे पिछड़े इलाके बंुदेलखण्ड के लिए विशेष पैकेज मांग रही हैं। अब उनका कार्यकाल पूरा होने को है, लेकिन मनमोहन का दिल नहीं पसीजा। हां, कांग्रेस के “युवराज” के मिशन 2012 को आसान बनाने के लिए उनकी कोई भी जायज-नाजायज मांग केंद्र से अवश्य पूरी हो जाती है।
बेनकाब दलीय एजेंडा
कांग्रेस कनेतृत्व वाली केंद्र सरकार का ऐसा सौतेला व्यवहार तो उन मायावती की सरकार के साथ है, जिनकी बहुजन समाज पार्टी केंद्र सरकार को बिना शर्त बाहर से समर्थन दे रही है। महंगाई पर चर्चा के बाद संसद में मत विभाजन का मौका हो या 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच करने वाली संसद की लोक लेखा समिति की रपट पर मतदान का – हर संकट के समय बसपा अक्सर कांग्रेस और उसकी अगुआई वाली केन्द्र सरकार को बचाती आयी है। यह अलग बात है कि यह सब मायावती के विरुद्ध लंबित आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार के मामलों में राहत की सौदेबाजी के तहत होता है। पर इससे केंद्र सरकार का कुटिल चरित्र और दलीय एजेंडा तो बेनकाब हो ही जाता है।
देश का दूसरा बड़ा राज्य है बिहार। लालू-राबड़ी जंगलराज की बदहाली से गुजरे बिहार को भाजपा के सहयोग से नीतिश कुमार विकास की पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके पहले मुख्यमंत्रित्वकाल की कोशिशों से संतुष्ट हो कर ही बिहार के मतदाताओं ने गठबंधन सरकार को दूसरा कार्यकाल दिया है। ऐसे में यह अपेक्षा अनुचित नहीं कही जा सकती कि एक अर्थशास्त्री की छवि वाले और अक्सर विकास की बातें करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार बिहार को विकास की पटरी पर लाने और उसे तेज रफ्तार से दौड़ाने की कोशिश में उदार भाव से केन्द्रीय मदद देती, पर हो उल्टा रहा है।
धरी रह गई आस
दरअसल कांग्रेस को उम्मीद थी कि जब वहां राष्ट्रीय जनता दल का तंबू उखड़ेगा तो उसकी सत्ता वापसी का मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जायेगा। इसी उम्मीद में कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को अंगूठा दिखा दिया। परिस्थितियों को अनुकूल समझ कर “युवराज” ने भी किसी चमत्कार का श्रेय लूटने की फिराक में वहां मोर्चा संभाल लिया। लेकिन कांग्रेस के कुशासन और लालू-राबड़ी जंगलराज में भी उसकी भूमिका को न भूल पाये बिहार के मतदाताओं ने जनता दल (ए)-भाजपा गठबंधन को फिर बागडोर सौंप दी। नतीजतन कांग्रेस को वहां भविष्य ही नहीं, अस्तित्व का खतरा सताने लगा है। सो, वहां भी केंद्र सरकार का सौतेलापन चरम पर है, ताकि विकास की दौड़ में पिछड़ने का ठीकरा राज्य में शासित दलों के सिर फोड़ कर दुष्प्रचार किया जा सके।
उदाहरण भले ही उत्तर प्रदेश और बिहार के हांे, पर सच यह है कि गैर संप्रग शासित तमाम राज्य केंद्र के इसी सौतेलेपन के शिकर हैं। दूसरी ओर संप्रग शासित राज्यों के लिए तिजोरियों के मुंह कुछ इस तरह खोल दिये गये हैं, मानो वे भारत सरकार की नहीं, कांग्रेस की तिजोरियां हों। पश्चिम बंगाल इसका नवीनतम उदाहरण है, जहां संप्रग के दबंग घटक दल तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम बंगाल के विकास को गति देने में कोई बुराई है। अतीतजीवी वामपंथियों के तीन दशक से भी लंबे शासन में पश्चिम बंगाल में विकास जड़ हो कर रह गया है। इसलिए उसे गति मिलनी ही चाहिए, पर अन्य राज्यों की कीमत पर हरगिज नहीं। इससे भी ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि केन्द्रीय मदद उसकी नेकनीयती का नतीजा न होकर ममता के दबदबे का परिणाम है। यह एक ऐसी परंपरा की शुरुआत है, जो केंद्र-राज्य संबंधों के समीकरण ही बदल देगी।
दरअसल राष्ट्रीय विकास परिषद की इस बैठक में यह खतरा मुखर भी हुआ। कई राज्य सरकारों ने इस बात पर कड़ी आपत्ति जतायी कि केंद्र सरकार उनसे विचार-विमर्श के बिना ही नीतियां बना देती है, जिन्हें लागू करने की जिम्मदारी उनकी हो जाती है। यही नहीं, नये कानूनों तक पर उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता। सांप्रदायिक व लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक इसका ज्वलंत उदाहरण है। अल्पसंख्यक मतों को कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत करने की मंशा से प्रेरित इस कानून पर ज्यादातर राज्य सरकारों की असहमति है, जो, जैसा शुरू में बताया, राष्ट्रीय एकता परिषद की पिछली बैठक में मुखर भी हो चुकी है।
संघीय ढांचे पर प्रहार
राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में संघीय ढांचे पर हो रहे प्रहारों का मुद्दा भी उठा। गुजरात में जिस तरह राज्यपाल ने मुख्यमंत्री से सलाह किये बिना ही लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी, वह केंद्र सरकार द्वारा ही देश के संघीय ढांचे पर चोट का ज्वलंत उदाहरण है। चुक गए कांग्रेसियों की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति कर राजभवनों के दुरुपयोग के अनगिनत उदाहरण हैं, तो अब लोकायुक्त को भी हथियार बनाया जाने लगा है। कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा लोकायुक्त की रपट के चलते इस्तीफा दे देते हैं, लेकिन दिल्ली में कांग्रेस के मंत्री राजकुमार चौहान लोकायुक्त रपट में लताड़े जाने के बाद भी पद पर बने रहते हैं। यही नहीं, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो लोकायुक्त के पद पर ही सवाल उठा रही हैं।
इसलिए केंद्र-राज्य संबंध और भी जटिल होते जो रहे हैं। यह प्रधानमंत्री के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में अपने समापन भाषण में न सिर्फ सौतेलेपन के आरोपों को नकार दिया, बल्कि धमकी भी दी कि केंद्र सरकार भी राजनीतिक बयानबाजी के लिए तैयार बैठी है। जिस सरकार का अपना दृष्टिकोण इतना संकुचित है, उसके द्वारा तैयार 12वीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिकोण पत्र पूरे देश के समान विकास के सपने को कितना साकार कर पाएगा, यह देखना दिलचस्प भी होगा और महत्वपूर्ण भी। विकास की ऐसी आधी-अधूरी व भेदभावपूर्ण अवधारणा लेकर संप्रग सरकार देश का बेड़ा ही गर्क कर रही है, यह अब स्पष्ट हो गया है।
टिप्पणियाँ