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टेलीविजन के सहारे बढ़ते बच्चे

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Oct 29, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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बाल मन

दिंनाक: 29 Oct 2011 16:27:37

पिछले दिनों एक समाचार पढ़ा कि मुम्बई के कुछ विद्यालयों में छोटे-छोटे बच्चे एक-दूसरे का अभिवादन हाथ मिलाकर, गले लगाकर और चुम्बन लेकर भी कर रहे हैं। बच्चों में बढ़ती इस प्रवृत्ति से शिक्षक परेशान हैं। नन्हे-नन्हे बच्चे वयस्कों जैसा व्यवहार करें, तो यह पूरे समाज के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। यह भी विचार करना चाहिए कि ये बच्चे चुम्बन की ओर कैसे बढ़े? इसके लिए बहुत हद तक संयुक्त परिवार का विखण्डन जिम्मेदार है।

भूमंडलीकरण की तेज आंधी में संयुक्त परिवार उड़ गये। पारिवारिक ढांचा बिखर गया है, आपसी मेल-मिलाप छूटता जा रहा है, इन सबका सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर पड़ा है। नाना-नानी, दादा-दादी की गोद में किलकारियां भरता शैशव और उनकी बांहों से लिपटकर कहानियां सुनने वाला बचपन टी.वी. के सहारे विकसित हो रहा है। उदारीकरण के दौर में उपभोक्ता संस्कृति विकसित हुई है जिसके कारण आर्थिक दबाव बढ़े हैं। इन दबावों के चलते माता-पिता भी बच्चों के बचपन से अनुपस्थित होते जा रहे हैं। ऐसे में बच्चों की दुनिया टी.वी., वीडियो गेम्स आदि पर निर्भर हो जाती है। ऐसे वातावरण में बच्चों का कैसा विकास हो रहा है, इस पर सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। जहर घुल रहा है। बच्चों का कोमल मन-मस्तिष्क कच्ची मिट्टी सा होता है जैसा ढाला जाए वैसा ही बन जाता है। अभद्रता की हदें पार करते टी.वी. कार्यक्रमों को देखते हुए ही अभिभावक फुर्सत के क्षण बिताते हैं या यूं कहिए वे इन कार्यक्रमों के लती हो गए हैं। ऐसे में बच्चों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे टी.वी. ना देखें। चिन्ता बड़ों की नहीं है, अवयस्क मस्तिष्क यानि बच्चों की है। घर के बड़े जिन अधखिले पौधों को चहारदीवारी के बाहर के दुष्प्रभावों से बचाकर उनके खिलने के लिए वक्त का इंतजार करते थे, वे घर की चहारदीवारी में ही समय से पहले वयस्क हो रहे हैं। अपरिपक्व, अविकसित मस्तिष्क के साथ वयस्क बनने की चाहत बुलंद हो रही है। बच्चों के दिमाग पर विज्ञापनों तथा टी.वी. द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता और अभद्रता के लगातार होते हमलों के दौर में हम उनसे संस्कारित होने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? समाज और माहौल उन्हें जो दे रहा है, वही तो वे लौटायेंगे।

दूसरे, पश्चिमी जीवनशैली को आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है। आधुनिक कहलाने की चाह में माता-पिता में इसे अपनाने की होड़ लगी है। माता-पिता बच्चे को हाथ जोड़कर अभिवादन करने या पैर छूकर आशीर्वाद लेने के बजाए हवाई चुम्बन करना सिखाते हैं और बच्चे के ऐसा करने पर खुश होते हैं। बच्चों का बालमन चुम्बन और हवाई चुम्बन को विभाजित करती उस हल्की सी रेखा को समझ पाने में असमर्थ होता है। सोचना अभिभावकों को है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अमरीकी या पश्चिमी जीवनशैली अपनाने की अंधी होड़ में आने वाली पीढ़ी का भविष्य अंधेरे में धकेल रहे हैं? अभी भी वक्त है भागदौड़ और आपाधापी की तेज रफ्तार जिन्दगी में से चन्द क्षण फुर्सत के इन नन्हे-मुन्नो के लिए निकालें, क्योंकि बच्चों के लिए कल महत्वपूर्ण नहीं होता, आज होता है।

दो वीर बालक

गोरा और बादल की वीरता

कहा जाता है कि राजस्थान का इतिहास खून से रंगा है। इसीलिए यहां की मिट्टी लाल है। यहां की गौरव गाथाएं त्याग और बलिदान से भरी पड़ी हैं।

राजस्थान का ही एक जिला है चितौड़। यह मेवाड़ के राणाओं की राजधानी रही है। यहां के खंडहर आज भी इसके गौरव की कहानियां सुनाते हैं। यहां का विजय-स्तंभ इसका जीता-जागता उदाहरण है।

चौदहवीं शती के शुरू में चित्तौड़ पर राणा रतन सिंह का राज्य था। उनकी पत्नी पद्मिनी बहुत ही सुंदर थीं। उनकी सुंदरता की चर्चा सारे देश में होती थी।

दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने भी पद्मिनी के अपूर्व सौंदर्य की कहानी सुनी। वह अपने आप को उसे पाने से रोक न सका। उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। लेकिन चित्तौड़ के वीरों के सामने उसकी एक न चली।

हारकर उसने धोखे से राणा रतन सिंह को बंदी बना लिया। उसने चित्तौड़ में यह सूचना भेज दी कि अब पद्मिनी को पाने पर ही रतन सिंह को मुक्त किया जाएगा।

महारानी पद्मिनी ने एक योजना बनाई कि सात सौ डोलियों में बैठकर चुने हुए वीर खिलजी के पास जाएं और रतन सिंह को मुक्त करा लाएं। डोलियों के कहारों की जगह भी वीर ही जाएं, किन्तु अलाउद्दीन को यही बताया जाए कि पद्मिनी अपनी सहेलियों के साथ उसके पास आई है।

रानी पद्मिनी ने प्रजा के दिल में आग की चिनगारियां सुलगा दीं। दो बालक-गोरा और बादल सामने आए और बोले, “मां, तू शक्ति है। तू धन्य है। हम रावल को छुड़ा लाएंगे। हमें आज्ञा दो, मां! हम दुश्मनों के खून की नदियां बहा देंगे।”

उन बालकों का साहस देखकर वीर सैनिकों के मुंह से निकला, “हम राजलक्ष्मी की रक्षा के लिए मर मिटेंगे, पर राजलक्ष्मी पर आंच भी न आने देंगे।

योजना के अनुसार अलाउद्दीन को समाचार भेजा गया कि रानी पद्मिनी अपनी सहेलियों के साथ आ रही हैं।

अलाउद्दीन उत्सुकता से पद्मिनी की प्रतीक्षा करने लगा। गोरा ने आगे आकर कहा, “हमारी महारानी आपसे मिलने से पहले रावल रतनसिंह से थोड़ी देर के लिए अकेले में मिलना चाहती हैं।”

अलाउद्दीन ने मंजूरी दे दी। लेकिन पद्मिनी के लौटने में देर देखकर वह स्वयं डोली के पास पहुंच गया। उसने डोली से परदा भी हटा दिया।

बस फिर क्या था, लड़ाई छिड़ गई। मार-काट होने लगी। गोरा-बादल की वीरता देखते ही बनती थी। दोनों गाजर-मूली की तरह यवनों को काट रहे थे। यवन सेना के पैर उखड़ गए। वह भाग खड़ी हुई।

इस भागदौड़ में रतन सिंह तो बचकर चित्तौड़ के किले में आ गए मगर गोरा घिर गया। वह वहीं वीरगति को प्राप्त हुआ।

इस पराजय से बादशाह तिलमिला उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि वह पद्मिनी को पाकर ही रहेगा और चित्तौड़ को मिट्टी में मिला देगा। उसने बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ पर दोबारा चढ़ाई कर दी। इस बार उसके साथ तोपें भी थीं।

तोपों की मार से चित्तौड़ की नींव हिल गई। जब विजय की कोई आशा न रही तो पद्मिनी जौहर की आग में कूद पड़ी।

उधर बादल शत्रुओं को मौत के घाट उतारता हुआ शहीद हो गया। चित्तौड़ श्मशान बन गया। वहां या तो जौहर की आग सुलगती थी या लाशों के ढेर।

अलाउद्दीन पागलों की तरह पद्मिनी को खोजता हुआ गढ़ में घुसा। लेकिन वहां आग की लपटें देखकर वह वापस लौट आया। उसे लगा कि पद्मिनी आग की लपटों में हंसती हुई दिखाई दे रही है और  गोरा-बादल हाथों में नंगी तलवारें लिए उसे चेतावनी दे रहे हैं कि लौट जा, पापी यहां की किसी भी वस्तु पर तेरा अधिकार नहीं।

राजस्थानी लोकगीतों और गाथाओं में गोरा-बादल की वीरता का बखान आज भी उनकी याद को ताजा किए है। द

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