कमजोर न पड़े यह मुहिम
|
बालेन्दु शर्मा दाधीच
भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिस तरह राष्ट्रव्यापी घृणा और उद्वेलन की अभिव्यक्ति आज दिखाई दे रही है, वह महज ऐतिहासिक महत्व की घटना नहीं है। यह हमारी राजनीति और समाज में शुचिता, सत्यनिष्ठा और स्वच्छता को पुनस्र्थापित करने का दुर्लभ राजनीतिक अवसर भी है। जनता के बीच से आंदोलन की ऐसी स्वत: स्फूत्र्त आंधियां कम मौकों पर उठा करती हैं। जनभावनाओं के इस प्रबल उभार की तुलना स्वाधीनता आंदोलन के दिनों और आपातकाल के दौरान उठे जनाक्रोश से की जा सकती है। उन दोनों अवसरों की तरह यह भी युगांतरकारी परिवर्तन का माध्यम बन सकती है, बशर्ते इसे श्रेय लेने की होड़ और राजनीतिक दुरुपयोग की पारंपरिक प्रवृत्ति से मुक्त रखते एक राष्ट्रीय संकल्प के रूप में लिया जाए।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष
प्रश्न यह नहीं है कि सारी प्रक्रिया क्यों शुरू हुई और इसमें किसने कितनी छोटी या बड़ी भूमिका निभाई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनाक्रोश सुप्त अवस्था में ही सही, कई दशकों से इस देश के नागरिकों के मानस को व्यथित करता रहा है। हमारे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तंत्र के लिए भ्रष्टाचार की समस्या अनजानी नहीं है। स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ वर्षों बाद ही राष्ट्र इस विभीषिका से जूझने लगा था। बीच-बीच में उसने चुनाव परिणामों के रूप में अपने आक्रोश और हताशा को अभिव्यक्त तो किया, किंतु स्वच्छ विकल्पों के अकाल ने उसके प्रयासों को फलीभूत नहीं होने दिया। हमारे राजनीतिक ढांचे में स्वच्छ राजनीतिक आचरण करने वालों की स्थिति लुप्तप्राय प्राणियों से बेहतर नहीं है। विकल्प बनना तो बहुत दूर की बात है, मौजूदा व्यवस्था में अपना अस्तित्व बनाए और बचाए रखना ही उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती बन जाती है। विकल्पों के नाम पर ले देकर सभी तरफ एक जैसे लोग हैं और उनमें से किसी एक को हटाकर दूसरे को लाने का अर्थ सिर्फ चेहरों का बदलाव है, आचरण का बदलाव नहीं। जब तक चुनावी व्यवस्था में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं होता, हम एक भ्रष्ट को हटाकर दूसरे भ्रष्ट, बड़े भ्रष्टाचारी को हटाकर छोटे भ्रष्टाचारी को कमान सौंपते रहने के लिए अभिशप्त हैं।
इसलिए, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई सिर्फ एक मोर्चे पर नहीं लड़ी जा सकती। जन-जागरण और जन-दबाव के साथ-साथ चुनाव सुधारों, राजनीतिक सुधारों, प्रशासनिक सुधारों और सामाजिक परिवर्तनों को भी लक्ष्य बनाए जाने की जरूरत है। भ्रष्टाचार एकतरफा प्रक्रिया नहीं है, इसलिए वह एक सामाजिक समस्या भी है। जहां ज्यादातर नेता किसी भी तरह से धन कमाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश करते हैं, उसी तरह आम लोग भी मजबूरी के कारण ही सही, भ्रष्टाचारी व्यवस्था के ढांचे में ढल चुके हैं। कभी झंझटों से मुक्ति के लिए तो कभी बेहतर अवसरों की तलाश में हममें से अनेक लोग न सिर्फ भ्रष्टाचार का प्रतिरोध करने से बचते हैं, बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस प्रक्रिया में हिस्सा भी लेते हैं। दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष पीछे हट जाए तो भ्रष्टाचार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती। सौभाग्य से, मौजूदा आंदोलन ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला है और लोग रिश्वत न देने का संकल्प ले रहे हैं। हम अपने उद्देश्य के कितने करीब पहुंचते हैं, वह इस संकल्प की मजबूती पर निर्भर करेगा।
जन-प्रतिरोध का असर
जन-प्रतिरोध और आक्रोश ने असर जरूर दिखाया है। वरना मायावती जैसी राजनेता से आप भ्रष्ट और अपराधी तत्वों को मंत्रिमंडल से निकालने जैसी कार्रवाई की उम्मीद नहीं कर सकते। केंद्र सरकार के कई पूर्व मंत्री न सिर्फ हटाए गए हैं, बल्कि जेल में पहुंचा दिए गए हैं, भले ही उसके पीछे अदालती दबाव जैसे अन्य कारण भी हैं। कुछ राज्यों में भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात मुख्यमंत्री बदले गए हैं। विभिन्न राज्यों में जन सेवा गारंटी अधिनियमों को लागू किए जाने की प्रक्रिया तेज हुई है, जो निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की उम्मीद जगाती है। कई राज्यों में लोकायुक्त की संस्था मजबूत हुई है और एक राज्य में तो उसकी वजह से सत्ता-परिवर्तन भी हो चुका है। चुनाव प्रक्रिया में गंभीर अपराधों वाले व्यक्तियों का प्रवेश रोकने के बारे में केंद्रीय स्तर पर गंभीर मंथन शुरू हुआ है और देर-सबेर इस पर अमल भी कर दिया जाएगा। जन-लोकपाल विधेयक को लेकर भी केंद्र सरकार रक्षात्मक स्थिति में आ चुकी है और उसके अधिकांश प्रावधानों को स्वीकार करने का वातावरण बन रहा है। हालांकि इस विधेयक की भी अपनी सीमाएं हैं जिन्हें दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। बहरहाल, भ्रष्टाचार की समस्या अब वैसी अजेय नहीं दिख रही, जैसी वह छह महीने या सालभर पहले दिख रही थी। और सबसे बड़ी बात, जनता को इस बात का अहसास हो गया है। अहसास तो उसे अपनी शक्ति का भी हुआ है और कुछ हद तक अपने दायित्वों का भी, जो हमारे लोकतंत्र के लिए एक शुभ शकुन है।
सौभाग्य से अण्णा हजारे, बाबा रामदेव, यूथ अगेन्स्ट करप्शन आदि के रूप में हमीं लोगों के बीच से कुछ चेहरे उभरे हैं, जिन्होंने पिछले कुछ महीनों के आंदोलनों और मुहिमों के माध्यम से जनता के बीच साख अर्जित की है। अरसे बाद भारत में ऐसा हुआ है, जब हम राजनीति और धर्म-कर्म से इतर लोगों की आवाज को भी महत्व दे रहे हैं। उनका संदेश सुन रहे हैं और जहां सही लगता है, समर्थन भी कर रहे हैं। सामाजिक वातावरण में एक स्पष्ट बदलाव दिखाई दे रहा है। लोगों के मन में उम्मीदें पैदा हुई हैं। भ्रष्टाचार ही नहीं, कई अन्य मोर्चों पर भी कुछ बुनियादी समस्याओं के समाधान की शुरुआत का भरोसा पैदा हुआ है। ऐसा नहीं है कि इस प्रक्रिया में किसी एक राजनीतिक पक्ष या संगठन का ही हाथ है। सभी दलों में कुछ न कुछ ऐसे लोग अवश्य हैं, जो स्पष्ट रूप से नहीं तो मन से राजनीतिक शुचिता की इस मुहिम के साथ हैं। वैसे ही, जैसे कुछ लोग सभी संगठनों और पक्षों में ऐसे भी हैं जो इस मुहिम को पटरी से हटते हुए देखना चाहते हैं। राष्ट्रहित में वर्तमान माहौल को सकारात्मक और रचनात्मक ढंग से इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है।
समाज सुधार की जरूरत
सुधार की जरूरत सिर्फ राजनीति को ही नहीं है, समाज को भी है। अगर हमारे बीच से कुछ लोगों की ध्वनि प्रभावी होकर उभरी है तो उसका प्रयोग सिर्फ राजनीतिक साफ-सफाई तक ही सीमित क्यों रहे? ऐसे लोगों को समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, भेदभाव, दहेज, बाल विवाह, अशिक्षा, महिलाओं के साथ अन्याय, बाल श्रम, दरिद्रनारायण के शोषण, भूमि हड़पो मानसिकता, श्रमिक शोषण, अपराध, तथाकथित “ऑनर किलिंग्स”, सामाजिक विभाजनों आदि के विरुद्ध जनमत जागृत करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसा कि लेख में जिक्र किया गया है, भ्रष्टाचार के लिए भी सिर्फ राजनीति और अफसरशाही ही दोषी नहीं ठहराई जा सकती। भ्रष्टाचार के शिकार बनने वाले हम लोग जो उसे होता देखकर भी चुप रहते हैं और रिश्वत लेने-देने की प्रक्रिया में कोई न कोई भूमिका निभाते हैं, उतने ही दोषी हैं। राजनीति की सफाई का अभियान वास्तव में समाज सुधार के व्यापक अभियान का ही एक हिस्सा है या यूं कहें कि होना चाहिए। गांधीजी ने कहा था कि जिस बदलाव को आप दूसरों में देखना चाहते हो, पहले स्वयं उसे अंगीकार करो। लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार पर सिर्फ दूसरों को दोषी ठहराने या उन्हें सुधारने का प्रयास करना ही पर्याप्त नहीं है, हमें अपने भीतर भी देखना होगा। आइए, इस बहाने सामाजिक बदलाव की एक आंधी चलाई जाए।
अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान ऐसे भी बहुत से लोग सक्रिय दिखाई दिए थे, जिनकी अपनी छवि बहुत उज्ज्वल नहीं है। हरियाणा में हिसार के उपचुनाव को ही देख लीजिए। वहां भी ऐसे तत्व मौजूद हैं जो स्वयं भ्रष्टाचार के आरोपों से आकंठ घिरे हैं, किंतु आज भ्रष्टाचार विरोधी माहौल के सुर में सुर मिलाते हुए राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास कर रहे हैं। इस आंदोलन को इस तरह के विरोधाभासों का शिकार नहीं बनने दिया जाना चाहिए। ऐसा और भी कई राज्यों में हो रहा है, जहां सत्ताधारी या विपक्षी दल वर्तमान मुहिम के समर्थन का दावा कर रहे हैं, किंतु स्वयं आरोप मुक्त नहीं हैं। यदि आप इस आंदोलन पर किंतु-परंतु करते हुए समर्थन देते हैं तो स्पष्ट है कि आपकी दिलचस्पी किसी और चीज में है। मुद्दा चाहे लोकायुक्त का हो, कालेधन का, भ्रष्ट दलों से राजनीतिक गठजोड़ का या फिर भ्रष्ट व्यक्तियों को सरकारी पद देने का, सभी मामलों में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींची जानी चाहिए। आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं तो फिर ऐसे हर मामले पर स्पष्ट मत प्रकट कीजिए और कदम उठाइए। अन्यथा आप समझें या नहीं, जनता इसे अवश्य समझती है। मायावती को ही लीजिए, भले ही वे कितने ही विधायकों को निलंबित कर दें और कितने भी मंत्रियों को हटा दें, वे किस तरह स्वयं को भ्रष्टाचार विरोधी सिद्ध कर सकती हैं जब वे स्वयं ही सीबीआई की जांच के दायरे में हैं और विभिन्न जरियों से धन जुटाने के मामले में उनका रुख तथा इतिहास किसी से छिपा नहीं है?
गंभीर नहीं राजनीतिक वर्ग
सवाल वही है कि क्या इस देश का राजनीतिक वर्ग विशेषाधिकारों और अर्थलाभ वाली अपनी मौजूदा स्थिति से स्थायी समझौता करने को तैयार है या वह सिर्फ जुबानी जमाखर्च कर आंदोलन के इस दौर को निकल जाने देना चाहता है? इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि आज देश में राजनीति में प्रवेश करने के पीछे सबसे बड़ा प्रेरक धन कमाना ही है। जो लोग इस एकमेव सिद्धांत के साथ सत्ता में आए हैं या थे या आ सकते हैं, वे ऐसे सकारात्मक आंदोलनों को कितना आगे बढ़ने देंगे? मौजूदा आंदोलनों के संदर्भ में एक बड़ा खतरा यह है कि यह किसी के राजनीतिक लाभ हेतु इस्तेमाल न हो जाए। इसका सामाजिक आंदोलन के रूप में आगे बढ़ना ही इसकी साख और प्रभाव के लिहाज से श्रेयस्कर होगा- जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए।
वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा पिछले आम चुनावों से पहले उभारा गया कालेधन का मुद्दा कुछ वर्ष के अंतराल के बाद नए रूप में, नए लोगों द्वारा पुन: उठाया गया है। भ्रष्टाचार की ही तरह इस मुद्दे पर भी एक तरह की राष्ट्रीय सहमति बनती जा रही है। हालांकि स्विटजरलैंड तथा अन्य देशों की बैंकों में मौजूद कालेधन की वास्तविक मात्रा पर विरोधाभासी आंकड़े सामने आ रहे हैं, किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसा धन सही माध्यमों से अर्जित नहीं किया गया है। हालांकि उसे राष्ट्रीय संपदा घोषित करने और वापस मंगवाने का प्रतीकात्मक महत्व ज्यादा है। वास्तव में वापसी के बाद इसमें से कितना धन विकास के लिए खर्च होगा और कितना सचमुच जमीनी स्तर तक पहुंचेगा, इस बारे में सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं। खासकर उस स्थिति में, जब हजारों करोड़ की योजनागत राशि कई विभागों द्वारा बिना खर्च किए हर साल “लैप्स” हो जाती है।
जब किसी के पास इतनी बड़ी ताकत आती है तो वह उत्तरदायित्व भी साथ में लाती है। मौजूदा जन उभार से सुर्खियों में आए लोगों को इस अपार जनसमर्थन का महत्व समझना चाहिए। भ्रष्टाचार, कालेधन और राजनीतिक कदाचरण के विरुद्ध इस देश के लोगों के मन में दशकों से आक्रोश था। मौजूदा आंदोलन के जरिए वह आक्रोश सड़क पर आया और संसद के बाहर-भीतर तक उसका प्रभाव दिखाई दिया। कुछ लोगों ने इस प्रक्रिया में माध्यम की, कुछ ने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई, जबकि कुछ ने परदे के पीछे रहते हुए योगदान दिया। मीडिया ने भी इसे एक राष्ट्रीय दायित्व के रूप में लिया। इन सबका अपना-अपना महत्व है और श्रेय की चाह में इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए। यह आंदोलन निरंकुशतावाद और मनमानेपन के विरुद्ध भी है और सामूहिकता इसकी सबसे बड़ी शक्ति रही है। वह भावना कुंद नहीं होने दी जानी चाहिए और न ही लक्ष्यों के मामले में भटकाव की कोई गुंजाइश है। राजनीतिक व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को निशाना बनाते हुए संसद, न्यायपालिका और संविधान पर अनावश्यक आघात न किए जाएं, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। जो बुनियाद है, उसे हिलाने की कोशिश नहीं की जाती।
टिप्पणियाँ