अर्थव्यवस्था को मिले नई दिशा
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डा. अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
2009 में आम चुनाव से पहले संप्रग सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 9 रुपये की कमी थी, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए, उसके कुछ ही समय बाद दो किश्तों में पेट्रोल के दाम उससे ज्यादा बढ़ा दिए गए। 2010 में पेट्रोल की कीमतें कई बार बढ़ाई गईं। 15 सितम्बर, 2011 को पेट्रोलियम कंपनियों ने पेट्रोल की कीमत फिर से 3 रुपये बढ़ा दी और दिल्ली में पेट्रोल लगभग 67 रुपये प्रति लीटर हो गया। इससे दो माह पूर्व ही कंपनियों ने रसोई गैस पर 50 रुपये प्रति सिलेण्डर, डीजल पर 3 रुपये और कैरोसिन पर 2 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी।
16 सितम्बर, 2011 को भारतीय रिजर्व बैंक ने मार्च 2010 से लगातार 12वीं बार ‘रेपोरेट’ और ‘रिवर्स रेपोरेट’ में 0.25 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए उसे क्रमश: 8.25 प्रतिशत और 7.25 प्रतिशत कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि यह कदम लगातार बढ़ती महंगाई के मद्देनजर उठाया गया है। ‘रेपोरेट’ वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं। ‘रिवर्स रेपोरेट’ वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा करते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा मात्र 17 से भी कम महीनों में 12 बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी सीधे तौर पर संकुचनवादी मौद्रिक नीति मानी जा सकती है। सामान्य तौर पर माना जाता है कि महंगाई का प्रमुख कारण मांग में वृद्धि होता है। वस्तुओं की कम उपलब्धता और बढ़ती मांग कीमतों पर दबाव बनाती है, इसलिए रिजर्व बैंक परंपरागत तौर पर ब्याज दरों में वृद्धि कर कीमतों को शांत करने का प्रयास करता है। लेकिन विडंबना यह है कि इतने कम समय में ब्याज दरों में भारी वृद्धि के बावजूद कीमत वृद्धि थमने का नाम नहीं ले रही और अगस्त माह तक आते-आते पिछले वर्ष की तुलना में महंगाई 9.78 प्रतिशत तक बढ़ गई। खाद्य पदार्थों में यह वृद्धि लगभग 10 से 13 प्रतिशत के बीच बनी हुई है। लेकिन रिजर्व बैंक की मृग-मरीचिका का कोई अंत नहीं है।
नीची ब्याज दरों के कारण विकास को गति
यदि पिछले 12 वर्षों का हिसाब देखें तो पाते हैं कि कृषि की विकास दर कम होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों में आमदनी बढ़ी और अर्थव्यवस्था की सकल संवृद्धि दर 6.5 से 9 प्रतिशत के बीच रही। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दशक के पहले 6-7 वर्षों तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटने लगीं। हालांकि घटती ब्याज दरों ने एक ऐसे वर्ग, जो ब्याज की आय पर आधारित था, को प्रभावित तो किया, लेकिन घटती ब्याज दरों ने देश में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। आवास, बुनियादी सुविधाएं और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना शुरू हुआ और देश दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया। यानी कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में ब्याज दरों के घटने की एक प्रमुख भूमिका रही है।
ब्याज दरों में वृद्धि का मध्यम वर्ग के लिए मतलब
आज बढ़ती आमदनियों के युग में मध्यम वर्ग, विशेष तौर पर मध्यम वर्गीय युवा अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की जुगत में रहता है। ऐसे में अच्छा और अपना घर, कार अथवा मोटर साइकिल और जीवन का अन्य साजो-समान खरीदने के लिए वह बैंकों से उधार लेता है और उसे किश्तों यानी ‘ईएमआई’ से चुकाता है। पश्चिमी देशों से आई इस जीवन पद्धति से जीवन स्तर तो बेहतर हुआ, लेकिन आम आदमी की देनदारियां भी बढ़ गईं। यह देनदारियां सामान्यत: स्थिर ब्याज दर पर आधारित नहीं होतीं। बढ़ते ब्याज दर से ‘ईएमआई’ भी बढ़ जाती है। ऐसे में मध्यम वर्ग की ‘ईएमआई’ बढ़ते जाने से दैनिक आवश्यकताओं के लिए उसके पास आमदनी बहुत कम बचती है।
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत और आदमी
सरकार का यह तर्क है कि तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे के मद्देनजर पेट्रेलियम पदार्थों की कीमतों का बढ़ाना आवश्यक है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थ उपभोग का मात्र एक पदार्थ नहीं है। यह यातायात, उद्योग आदि के लिए एक कच्चा माल भी है। जाहिर है कि किसी भी उद्योग के कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि होने पर उस उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें भी बढ़ जाती हैं। यानी बसों और यातायात के अन्य साधनों के किराये तो बढ़ेंगे ही, साथ ही साथ वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ने के कारण उनकी कीमतों में भी वृद्धि होगी।
पेट्रोलियम कंपनियों का घाटे का झूठ
पिछले एक वर्ष में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 64 डॉलर प्रति बैरल से लेकर 90 डॉलर प्रति बैरल तक रिकॉर्ड की गईं। यदि पिछले 2 वर्षों का हिसाब लें तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत 34.57 डॉलर प्रति बैरल रिकॉर्ड की गई। इसलिए पेट्रोलियम कंपनियों को पुरानी व्यवस्था यानी कीमतों पर सरकारी नियंत्रण में भी कोई नुकसान नहीं होता था। यदि इन कंपनियों का हिसाब-किताब देखें तो वर्ष 2008-09 में ओ.एन.जी.सी को 16041 करोड़ रुपये, ‘गैल” को 2814 करोड़ रुपये, इंडियन ऑयल को 2570 करोड़ रुपये और ऑयल इंडिया को 2166 करोड़ रुपये का लाभ हुआ। वर्ष 2009-10 में यह लाभ और ज्यादा बढ़ता हुआ क्रमश: 16745 करोड़ रुपये, 3139 करोड़ रुपये, 10321 करोड़ रुपये और 2611 करोड़ रुपये हो गया। इन दोनों वर्षों में पुरानी व्यवस्था लागू थी। इसके अलावा एक अन्य रोचक बात यह है कि 217 सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों द्वारा जो 92593 करोड़ रुपये का लाभ हुआ, उसमें मात्र तेल कंपनियों द्वारा ही 32857 करोड़ रुपये का लाभ हुआ। यानी कुल लाभ का 36 प्रतिशत मात्र पेट्रोलियम कंपनियों से ही प्राप्त हुआ। यानी पेट्रोलियम कंपनियों के नुकसान का तर्क सीधे तौर पर गलत सिद्ध होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर करों से केन्द्र और राज्य सरकारों को लगभग 2 लाख करोड़ रुपये का राजस्व भी प्राप्त होता है। ऐसे में यदि पेट्रोलियम पदार्थों के वितरण में थोड़ा-बहुत नुकसान भी हो तो भी सरकारें अपने इस राजस्व में से उसकी भरपाई आसानी से कर सकती हैं और सामान्य जन को महंगाई के इस आक्रमण से बचा सकती हैं।
महंगी होती दवाइयां
देश की 1978 में घोषित दवा नीति के अनुसार विदेशी कंपनियों के कार्यकलापों पर कुछ अंकुश लगाये गये थे और भारतीय कंपनियों को वरीयता देने का प्रावधान भी उसमें शामिल था। 1979 के दवा मूल्य नियंत्रण आदेश के अनुसार 347 दवाइयों पर कीमत नियंत्रण का प्रावधान लागू था। लेकिन हाल ही के वर्षों में विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण के बाद इन प्रावधानों को कुंद किया जा रहा है। अब देश का दवा मूल्य नियंत्रण आदेश केवल 76 दवाओं तक ही सीमित है। इस कारण से आम आदमी को दवाइयों की अधिक कीमतें तो देनी पड़ ही रही हैं, साथ ही साथ दवाइयों के गैर जरूरी मिश्रण भी अब बढ़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ समय से बड़ी भारतीय दवा कंपनियों का विदेशी कंपनियों द्वारा तेजी से अधिग्रहण किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व देश की सबसे बड़ी दवा कंपनी ‘रैनबैक्सी” को जापान की एक कंपनी ‘डाइची सैन्क्यो” द्वारा खरीद लिया गया। उसके बाद ‘मैट्रिक्स लैबोरेटरी” को अमरीकी कंपनी ‘माइलन”, ‘डाबर फार्मा” को सिंगापुर की कंपनी ‘फ्रैसीनियस कैबी”, ‘शांता बायटैक” को फ्रांस की कंपनी ‘सैनोफी एवेंतीस” और ‘औरचिड कैमिक्लस” को अमरीका की ‘हौसपीरा” और ‘पीरामल हैल्थ” केयर को अमेरिका की ही ‘एबट लैबोरेटरी” द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। इसके अतिरिक्त कई भारतीय कंपनियों के विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम और अन्य समझौते भी हो रहे हैं। जैसे- ‘डॉ. रेडिज” के साथ ‘जीएसके” का, ‘फाइजर” का तीन कंपनियों के साथ, एबट का ‘कैडिला हेल्थ केयर” के साथ और ‘एस्ट्रा जैनेका” का ‘टोरेंट” के साथ समझौता हुआ है। ऐसे में एक बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है कि कहीं देश का सारा दवा उद्योग विदेशी कंपनियों के हाथ मे न चला जाए। इसके कारण देश में दवाइयां और ज्यादा महंगी तथा आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेंगी।
कुप्रबंधन बनाम सुप्रबंधन
स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों से संप्रग सरकार के द्वारा जो आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं, उससे महंगाई तो बढ़ी ही है, साथ ही विकास की संभावनाएं भी उत्तरोत्तर कम हो रही हैं। आम आदमी केवल खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई से नहीं, बल्कि पेट्रोल, डीजल और गैस की भयंकर रूप से बढ़ती कीमतों से भी त्रस्त है। राजग सरकार के समय से घटती ब्याज दरों के कारण जिन लोगों ने कम ‘ईएमआई’ के आर्कषण में घर और अन्य साजो समान खरीदे, अब बढ़ती हुई ‘ईएमआई’ के कारण परेशान हैं। कम ब्याज के कारण देश की बुनियादी सुविधाओं का जो तेजी से विकास हो रहा था, अब थम सा गया है। अब नई सड़कों का निर्माण लगभग रुक गया है और जो हवाई अड्डे इत्यादि नये बन भी रहे हैं, भारी उपयोग शुल्क के कारण आम आदमी को सुविधा के बजाय बढ़ते वायु यातायात के किरायों के रूप में मुश्किल का सबब बन गये हैं।
विकास की ऊंची दर के लिए जरूरी है कि ब्याज दरों को नीचा रखा जाए। लेकिन बढ़ती महंगाई के दौर में यह बात मुश्किल हो जाती है। एक ओर तो रिजर्व बैंक को महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करनी पड़ती है, तो दूसरी ओर ब्याज अर्जित करने वाले वर्ग को बचत करने और उसे बैंकों के पास जमा करने हेतु प्रेरित करने के लिए ब्याज दर को महंगाई की दर से ऊंचा रखना पड़ता है। इसलिए देश में आर्थिक संवृद्धि की दर को तेज करने के लिए ब्याज दरों को घटाना जरूरी है और ब्याज दरों को घटाने के लिए महंगाई पर काबू पाना जरूरी है।
देश का दवा उद्योग हो अथवा खुदरा व्यापार अथवा खनिज भंडार सभी विदेशियों को सौंपे जा रहे हैं। विदेशी निवेश आधारित विकास के पैरोकार आम आदमी की कठिनाइयों के प्रति पूर्णतया संवेदनहीन हो चुके हैं। भारी भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के मद्देनजर एक देशभक्त और ईमानदार सरकार की बहुत आवश्यकता है। यदि खेती पर ध्यान देते हुए खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ा दी जाए, पेट्रोलियम कंपनियो पर अंकुश लगाते हुए पेट्रो कीमतों पर नियंत्रण हो और महंगाई पर काबू रखते हुए ब्याज दरों को नीचा रखा जाए तो भारत कहीं बेहतर ढंग से विकास के रास्ते पर चल सकता है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जो अपने विकास के लिए दुनिया के दूसरे देशों से मांग पर आश्रित नहीं है। हमारी अभी तक की आर्थिक संवृद्धि घरेलू मांग से पोषित है। ऐसे में जब अमरीका और यूरोप के देश आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो रहे हैं, जिसके चलते चीन के निर्यातों की मांग घट रही है। यदि हम अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक प्रकार से कर सके तो भारत प्रगति की राह पर निरंतर बढ़ता जायेगा। सरकार को विदेशी निवेश के मोह को त्यागते हुए देश की प्रज्ञा और युवाओं के कौशल पर विश्वास दिखाते हुए अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देनी होगी।
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