सम्पादकीय
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कोई भी श्रेष्ठ नहीं और कोई भी निम्न नहीं है। सभी को सबके हित के लिए प्रयत्न करना चाहिए और सबकी मिलकर प्रगति करनी चाहिए। -ऋग्वेद मण्डल 5 सूक्त 60 मंत्र 5
संप्रग सरकार जम्मू-कश्मीर में शांति के नाम पर कभी कार्यदल तो कभी वार्ताकार नियुक्त करने जैसे तरह-तरह के प्रयोग करती रही है, लेकिन वह यह नहीं समझ पा रही कि राज्य में सक्रिय अलगाववादियों व पाकिस्तान परस्त तत्वों को सरकार की शह मिलने और उनके विरुद्ध कोई कड़ा कदम न उठाए जाने से ही कश्मीर घाटी में अशांति व उपद्रव देशद्रोह की सीमा तक फन फैलाने लगते हैं। सख्ती दिखाने में कांग्रेस की वोट राजनीति आड़े आती है, इसीलिए वहां खुलेआम राज्य के इस्लामीकरण का एजेंडा चलता है और भारत का राष्ट्रध्वज जलाने व पाकिस्तान का झंडा फहराने जैसी राष्ट्रविरोधी हरकतें सामने आती हैं। यहां तक कि कांग्रेस की सहभागिता वाली राज्य सरकार का मुखिया भारत में कश्मीर के विलय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने का दुस्साहस करता है और कांग्रेस व उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार इसकी अनदेखी करती है! यदि यह सरकार संसद द्वारा कश्मीर पर एकमत से पारित प्रस्ताव को ध्यान में रखती तो ऐसी घातक स्थितियां नहीं बन सकती थीं कि अलगाववादियों का हौसला इस कदर बढ़ जाए कि उनके सरगना सैयद अली शाह गिलानी जैसे लोग दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे “आजादी-द ओनली वे” जैसे देशद्रोही राग अलापने लगें और अरुंधती राय जैसे सेकुलर व राष्ट्रविरोधी विचार के लोग उनके सुर में सुर मिलाकर कहें कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा।
ऐसे तथाकथित मानवाधिकारवादी व बौद्धिक आडम्बर में जीने वाले लोग भारत के प्रति राष्ट्रीयता के बोध से किस तरह कटे हुए हैं, इसका ताजा प्रमाण है टीम अण्णा के महत्वपूर्ण सदस्य प्रशांत भूषण का बयान कि “कश्मीर की जनता को जबरन अपने साथ रखना देशहित में नहीं, वहां जनमत संग्रह कराना चाहिए। यदि वहां के लोगों के विचार नहीं बदलते हैं तो, उन्हें अलग होने देना चाहिए।” उन्होंने जम्मू-कश्मीर से सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म करने व सेना को वापस बुलाने की भी मांग की है। प्रशांत भूषण नामी वकील होने के नाते कानून की तो अच्छी समझ रखते ही होंगे, फिर वह इस तथ्य से क्यों अनभिज्ञ हैं कि 26 अक्तूबर, 1947 को भारत के साथ तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरिसिंह ने अपने राज्य का पूर्ण विलय स्वीकार कर बाकायदा विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। यह कानूनी दस्तावेज है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भारत की संसद जम्मू-कश्मीर पर पूर्ण प्रस्ताव पारित कर संकल्प व्यक्त कर चुकी है कि पाकिस्तान के कब्जे में गया कश्मीर भी हम वापस लेकर रहेंगे। जम्मू-कश्मीर में निरंतर लोकसभा व राज्य विधानसभा के लिए मतदान होता रहा है, लोकतांत्रिक तरीके से सरकारें निर्वाचित होती हैं, तब जनमत संग्रह का प्रश्न उठाने का क्या अर्थ है? और जहां तक सेना का प्रश्न है, अलगाववादी तो अपनी राष्ट्र विरोधी हरकतों पर पर्दा डालने के लिए कथित मानवाधिकारों का शोर मचाकर सेना के विरुद्ध जहर उगलते रहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि भारतीय सेना ही है जो उनका फन कुचलकर कश्मीर को भारत से अलग कर देने का उनका मंसूबा पूरा नहीं होने दे रही। राज्य में उसका विशेषाधिकार छीनकर या उसकी वापसी कराकर पाकिस्तान की शह पर भारत की पीठ में छुरा घोंपने की उनकी नीयत बहुत पहले से है। दुर्भाग्य से अरुंधती राय व प्रशांत भूषण जैसे लोग जब उनके समर्थन में आ खड़े होते हैं तब ये विघटनकारी व राष्ट्रद्रोही तत्वों का हौसला ही बढ़ाते हैं। उधर, अण्णा हजारे जैसे गांधीवादी समाजसेवी के बगलगीर होकर ये अपना स्वार्थ साधते हैं।
गत वर्ष केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर संकट का समाधान खोजने के लिए जो तीन वार्ताकार नियुक्त किए थे, उनके द्वारा गृहमंत्री को सौंपी रपट को लेकर भी जो बातें छनकर आ रही हैं, उनका स्वर भी कमोबेश ऐसा ही है। उन्होंने भी कश्मीर से सशस्रबल विशेषाधिकार कानून व अशांत क्षेत्र कानून हटाने का सुझाव रपट में दिया है। अलगाववादी तत्व व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी तो यही राग छेड़े हुए हैं, फिर वार्ताकार यदि उनके सुर में सुर मिला रहे हैं तो संकट का समाधान होने की बजाय और बढ़ेगा, क्योंकि तब जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रद्रोही तत्वों पर कोई अंकुश ही नहीं रहेगा। राज्य और केन्द्र सरकार तो पहले ही उनके सामने घुटने टेके बैठी हैं, ऐसे में सेना ही उनके लिए बड़ी बाधा है। हालांकि गृहमंत्री चिदम्बरम स्वयं सेना की वापसी व विशेषाधिकार कानून हटाने के पक्ष में हैं, वहां से 3000 जवान तो पहले ही हटाए जा चुके हैं। राज्य को और अधिक स्वायत्तता देने की भी सिफारिश वार्ताकारों ने की है, हालांकि 1953 से पहले जैसी नहीं। लेकिन स्वायत्तता का अर्थ क्या है? राज्य को पहले से ही धारा 370 के अंतर्गत अनेक सुविधाएं प्राप्त हैं, इसी वजह से वहां भारत से अलगाव की प्रवृत्ति को बल मिला। यह प्रावधान अस्थाई होने के बावजूद अभी तक जारी है। अलगाववाद की इस जड़ को समाप्त करने की बजाय और स्वायत्तता की बात करना आग में घी डालने जैसा ही है। प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त कार्यदल, जिसके प्रमुख न्यायमूर्ति सगीर अहमद थे, ने भी गत वर्ष अपनी सिफारिशों में स्वायत्तता को प्रमुखता दी थी। कश्मीर के बारे में विचार करते समय भारत की एकता व अखंडता के भाव को प्राथमिकता देने पर ही सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। वोट राजनीति व तुष्टीकरण के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष वहां संकट को और बढ़ाएंगे ही। ये वार्ताकार तो शुरू से ही अपनी नियुक्ति और पाकिस्तान की सहमति से ही कश्मीर का समाधान निकालने की पहल किए जाने जैसे निष्कर्षों व अलगाववादियों की मिजाजपुर्सी करने को लेकर विवादों में रहे हैं। अमरीका में पकड़े गए आईएसआई पोषित, और कश्मीर मुद्दे पर दुनिया भर में भारत विरोधी अभियान चलाने वाले फई के आयोजनों में कुछ वार्ताकारों के शामिल होने पर पहले ही उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है। ऐसे में इनकी सिफारिशें जब प्रकट रूप में सामने आएंगी, तब उनमें भारत के राष्ट्रीय हितों को कितनी तवज्जो दी गई है, यह साफ हो जाएगा। लेकिन जो संकेत अभी मिले हैं वे कश्मीर में स्थायी शांति का “रोडमैप” तैयार करने जैसे तो कतई नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस सरकारों की गलत कश्मीर नीति को ही आगे बढ़ाने वाले हैं। इन सुझावों में समग्रता का पूरा अभाव है, क्योंकि इनमें गत 20 वर्षों में घाटी से षड्यंत्रपूर्वक विस्थापित किए गए लाखों हिन्दुओं और 1947 में पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से विस्थापित होकर आए हिन्दुओं के लिए कोई योजना सामने नहीं आई है। कश्मीर में केवल मुस्लिम हितों की चिंता करके कोई सटीक समाधान नहीं निकाला जा सकता है।
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