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धर्ममय राजनीति

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Oct 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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इतिहास दृष्टि

दिंनाक: 15 Oct 2011 16:00:14

भारतीय राष्ट्र जीवन का आधार है

डा.सतीश चन्द्र मित्तल

विश्व अथवा यूरोपीय देशों के पंथ तथा राजनीति के पारस्परिक संबंधों के संदर्भ में भारत का एक विशिष्ट अंतर है। भारत में हमेशा से धर्म से राजनीति संचालित होती रही है, जबकि विश्व में राजनीति से पंथ नीति प्रभावित होती है। इसका प्रमुख कारण है कि भारत में धर्म का पयार्यवाची “रिलीजन” या मजहब नहीं है बल्कि धर्म का व्यापक अर्थ कर्तव्य, नैतिकता, आचरण, जीवन के नैतिक मूल्य तथा आध्यात्मिकता है। जबकि “रिलीजन” के अर्थ में यह किसी विशिष्ट सम्प्रदाय, वर्ग, पंथ अथवा पूजा-पद्धति के साथ जुड़ा है। धर्म कर्तव्य की अनुभूति कराता है जबकि राजनीति अधिकार का अनुभव करती है। राष्ट्र की आत्मा श्री अरविन्द ने धर्म को राष्ट्र की आत्मा माना है। भारत में राष्ट्र नीति का आधार कभी भी राजसत्ता नहीं रही, दोनों का सहयोग अवश्य रहा है। विद्वानों ने इसे ब्रह्म तेज तथा क्षात्र तेज का समन्वय कहा है। भारतीय जीवन मूल्यों की एक विशिष्टता यह रही है कि इसे अधिक से अधिक राजसत्ता के मोह से प्रकार बचाए रखा गया। इसके उपाय हिन्दू सामाजिक और पारिवारिक जीवन पद्धति में पाए जाते हैं। राजनीति को जीवन के सभी क्षेत्रों पर छा जाने का अधिकार कभी भी किसी को नहीं दिया। व्यवस्था की धुरी केन्द्रीयकरण नहीं, विकेन्द्रीयकरण रही है। यदि जीवन के विभिन्न दायरे बनाए जाएं तो श्रेष्ठता तथा सर्वोच्चता की दृष्टि से क्रमश: आत्मा, बुद्धि, हृदय, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन और तब राजनीतिक जीवन आते हैं। अत: राजनीति जीवन की सबसे ऊपरी परत है। जीवन मूल्यों के लिए संघर्ष भारत के विजय तथा संघर्ष के इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग है जहां जीवन के नैतिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों के लिए धर्म तथा राजनीति में टकराव हुआ हैं। इसमें निर्णायक तत्व ऋषियों, मनीषियों, संतों, महात्माओं, समाज सुधारकों के संदेश, वचन तथा चेतावनियां रहीं, न कि राजनेताओं के आदेश अथवा घोषणाएं। इसलिए समय-समय पर अनेक श्रेष्ठ राजपुरुषों ने भी राजसत्ता का त्याग किया। उदाहरणत: राजा हरिशचन्द ने सत्य के लिए राज्य छोड़ा। श्री राम ने धर्म के लिए अयोध्या छोड़ी। श्री कृष्ण ने नीति के लिए मथुरा छोड़ी। भीष्म पितामह ने वचन के लिए राजगद्दी छोड़ी। इतना ही यहां के बालकों-ध्रुव, प्रह्लाद, हकीकत राय, जोरावर सिंह व फतेहसिंह ने भी जीवन मूल्यों से समझौता न करके कष्ट का मार्ग अपनाया। यदि बाद के ऐतिहासिक कालखंड को देखें तो भारत में इस्लाम की आंधी आई। परंतु संघर्ष का मुख्य आधार राजनीतिक कम, सांस्कृतिक तथा धार्मिक अधिक रहा। मुख्य प्रश्न रहा कि किसे प्राथमिकता दें, निर्णय किया-धर्म परिवर्तन नहीं, चाहे सब कुछ गंवाना पड़े। इस्लाम ने क्रूरतापूर्ण तरीके से जबरन मतांतरण कराए तथा अपने राज्य स्थापित किये। इस लम्बे संघर्ष में भी हिन्दुओं ने कभी अपनी धार्मिक चेतना को नहीं छोड़ा। मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, पठानों तथा मुगलों के भीषण अत्याचारों-नरसंहारों के मजहबी उन्माद का दौर चलता रहा तथा ध्वंसात्मक गतिविधियां चलती रहीं, दूसरी तरफ गुरुनानक, संत कबीर, संत रैदास, कवि जायसी, रसखान, सूर, तुलसी एवं मीरा के रूप में देश में सृजन, आत्मविश्वास तथा स्वाभिमान का गौरव भी जागृत होता रहा। संतों की वाणी, गुरुओं के उपदेश तथा भक्ति आंदोलन के महान साधकों ने इन जीवन मूल्यों की महत्ता बनाए रखते हुए आततायी राजसत्ता को उखाड़ फेंका। अंगेजों की चाल ईस्ट इंडिया कंपनी तथा उसके बाद ब्रिटिश शासन में भी अंग्रेजों ने भारतीयों पर दोहरे प्रहार किए। अंग्रेजों को अपने राजनीतिक स्थायित्व में सबसे बड़ी बाधा यहां की संस्कृति तथा जीवन के नैतिक मूल्य लगे। कंपनी के उच्च अधिकारियों ने ईसाइयों की विशाल सेना के साथ अपनी राजसत्ता को स्थायी तथा भारत को एक ईसाई देश बनाने के भरपूर प्रयत्न किये। उदाहरणत: कंपनी के “बोर्ड आफ डायरेक्टर्स” के अध्यक्ष आर.सी.मंगल्स ने “हाउस आफ कॉमंस” में घोषणा की, “परमात्मा ने हिन्दुस्थान का विशाल साम्राज्य इंग्लैण्ड को इसलिए सौंपा ताकि हिन्दुस्थान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झंडा फहराने लगे। हममें से हर एक को अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में लगा देनी चाहिए, ताकि सारे भारत को ईसाई बनाने के महान कार्य में देश भर में अंदर कहीं किसी कारण, जरा भी ढील न आने पाये।” मैक्समूलर ने एक पत्र में लिखा, “भारत का प्राचीन धर्म नष्ट हो रहा है, यदि ईसाइयत इसका स्थान न ले तो किसकी गलती होगी।” मोनियर विलियम्स ने लिखा, “ब्रह्मवाद की दीवारें क्रास व सैनिकों द्वारा गिरा दी जाएगी, ईसाई मत को तभी सफलता मिलेगी।” उपरोक्त ब्रिटिश राजनेताओं एवं अधिकारियों के राजनीतिक पाखंड तथा साम्प्रदायिक व नस्लीय षड्यंत्रों के विपरीत भारत के सांस्कृतिक तथा दर्शनवेत्ताओं ने भारतीयों का मार्ग प्रशस्त किया। वस्तुत: भारत में जागरण तथा चेतना का मूल आधार सांस्कृतिक था, न कि राजनीतिक। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, महात्मा ज्योतिबा फूले आदि इसके ही संदेशवाहक थे, जिन्होंने भारतीय जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा, भारतीयता का भाव तथा आत्मविश्वास की भावना पैदा की। उन्होंने घोषणा की कि राजनीति संस्कृति की चेरी है, स्वामी नहीं। स्वामी है राष्ट्र की प्रेरक भावना, जिसे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, प.मदनमोहन मालवीय जैसे श्रेष्ठ महापुरुषों ने आगे बढ़ाया। इसी अलख को जगाने की कड़ी में भारत के अनेक क्रांतिकारियों ने सांस्कृतिक चेतना के साथ भारतीय स्वतंत्रता की मांग की तथा बलिदान दिये। कूका आंदोलन, फड़के का बलिदान, चाफेकर बंधुओं की हिन्दू धर्म संरक्षिणी सभा, विनायक दामोदर सावरकर द्वारा अभिनव भारत की स्थापना इसी भावना की परिचायक है। शिवाजी उत्सव पर एक चाफेकर बंधु ने कहा, “चुप मत बैठो, बेकार पृथ्वी पर बोझ मत बनो। हमारे देश का नाम तो हिन्दुस्थान है, यहां अंग्रेज क्यों राज कर रहे हैं?” मदनलाल धींगरा, करतार सिंह सराबा, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, आजाद, बिस्मिल, अशफाक उल्ला- सभी इसी राष्ट्रीय भावना से अभिभूत थे। पंथनिरपेक्षता का भ्रम देश की स्वतंत्रता के पश्चात भारत की शासन व्यवस्था तथा इसका स्वरूप बहुत कुछ ब्रिटिश शासन प्रणाली की नकल का होने तथा भारतीय संविधान के अत्यधिक पाश्चात्य प्रभाव से ग्रसित होने के कारण धर्म तथा राजनीति का संबंध एक प्रश्नवाचक चिन्ह के रूप में सामने आया। विदेशी तत्वों के समावेश के साथ विदेशी शब्दावली के अपनाने का विरोध हुआ। इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल घोषित कर दिया गया। उस दौरान लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया और उस स्थिति का लाभ उठाकर भारतीय संविधान से छेड़छाड़ की गई तथा उसमें “सेकुलरिज्म” शब्द को भी पहली बार डाल दिया गया। भारत में इस शब्द का विचित्र रूप से प्रयोग किया गया। भारतीय कम्युनिस्टों ने इसका अर्थ “धर्मनिरपेक्षता” या “पंथनिरपेक्षता” नहीं बल्कि धर्म की उपेक्षा से लिया। इतना ही नहीं, इसके माध्यम से भारत के अतीत के गौरव तथा प्राचीन जीवन मूल्यों की खिल्ली भी उड़ानी प्रारंभ कर दी। इसी आड़ में उन्होंने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। संपूर्ण क्रांति का उद्घोष स्वतंत्रता के पश्चात भारत के सांस्कृतिक तथा नैतिक जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए महात्मा गांधी, श्री गुरूजी, डा.बी.आर.अम्बेडकर, पं.दीनदयाल उपाध्याय तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने प्रभावी प्रयत्न किए। महात्मा गांधी ने कांग्रेस में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को देखते हए इसके विघटन की घोषणा की, जो कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने स्वीकार नहीं की। रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी ने भारत के महानतम सांस्कृतिक चिन्ह गोहत्या के विरोध में देशव्यापी सांस्कृतिक अभियान प्रारंभ कराया। डा.बी.आर.अम्बेडकर ने व्यक्तिगत रूप से संस्कृत भाषा तथा भगवा ध्वज को पुन: सर्वोच्च स्थान देने का प्रयत्न किया तथा हिन्दू कोड बिल में हिन्दू की तर्कसंगत परिभाषा दी। पं.दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय संस्कृति के मूल शाश्वत धर्म को एकात्म मानववाद के रूप में प्रकट किया। परंतु सर्वोच्च जनमत बनाया श्री जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन ने। जे.पी.ने सम्पूर्ण देश को नव क्रांति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने नारा दिया “भ्रष्टाचार मिटाओ- लोकतंत्र बचाओ।” उनके आह्वान पर समूचे देश का युवा वर्ग खड़ा हो गया। आपातकाल के दौरान 73 वर्षीय जयप्रकाश नारायण को 26 जून, 1975 को गांधी शांति प्रतिष्ठान से गिरफ्तार किया गया। उन्होंने “विनाश काले विपरीत बुद्धि” की चेतावनी दी और वही हुआ, श्रीमती इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी शासन का अंत हुआ। जनलोकपाल आंदोलन इसी संदर्भ में श्री अण्णा हजारे तथा उनके साथियों के भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के आंदोलन को देखा जा सकता है। अण्णा हजारे की यह अगस्त क्रांति भी निश्चय ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनेगी। स्वतंत्रता के पश्चात जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के बाद यह दूसरा संघर्ष है जिसमें देश की तरुणाई ने क्रिकेट, करियर और कम्प्यूटर को छोड़, आगे बढ़कर भाग लिया। यदि यह पीढ़ी निरंतर जागरूक तथा सतत् प्रयत्नशील रही तो भारत का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल होगा। सम्राट अशोक जैसे महान पंथनिरपेक्ष के प्रतीकात्मक चिन्ह अशोक चक्र को हमने अवश्य अपनाया है, परंतु अशोक द्वारा नियुक्त धर्म-महाभागों तथा उसके शिलालेखों पर उद्धरित भावों को भुला दिया है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण तथा समाजसेवी श्री अण्णा हजारे ने इन्हीं सांस्कृतिक तथा नैतिक जीवन मूल्यों के लिए अपने जीवन के तीसरे पहर में संघर्ष का मार्ग अपनाया। वास्तव में धर्ममय राजनीति ही इस राष्ट्र की दिशा व परम्परा रही है और आधुनिक भारत की सभी समस्याओं का समाधान ढूंढने में यह सहायक हो सकती है।*

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