दृष्टिपात
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चीन की घुड़की से टली
दलाई लामा की द.अ. यात्रा
-आलोक गोस्वामी-
तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा अपने पुराने मित्र दक्षिण अफ्रीका के बिशप डेसमंड टूटू को उनके 80वें जन्मदिन पर उनके देश जाने का मन बनाए बैठे थे। 8 अक्तूबर को टूटू का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाना था। पर दक्षिण अफ्रीका की सरकार अड़ गई, वीसा ही नहीं दिया दलाई लामा को। नोबल शांति पुरस्कार विजेता टूटू से यूं तो पहले भी तीन बार वहीं जाकर दलाई लामा मिल चुके हैं, कभी कोई अड़ंगा नहीं डाला गया। तो फिर इस बार ये ठसक क्यों? इसलिए कि चीन नहीं चाहता था। चीन से इन दिनों दक्षिण अफ्रीका के कारोबारी रिश्ते कुछ ज्यादा ही बढ़े हैं। वहां की सरकार को लगा कि अगर दलाई लामा को न्योत लिया तो चीन की त्योरियां चढ़ जाएंगी और ऐसा हुआ तो वह माल-असबाब के लाले कर देगा। चीन दलाई लामा को पानी पी-पीकर कोसता रहा है, उन्हें लोगों को “बांटने वाला” बताता है, तिब्तियों को “भटकाने वाला” बताता है। उसकी चले तो दलाई लामा के लिए हर देश के दरवाजे बंद करा दे। दक्षिण अफ्रीका के विदेश विभाग के एक गुप्त दस्तावेज में लिखा है कि चीन दक्षिण अफ्रीका का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है और इसी की मदद से वहां मंदी का कोई असर नहीं पड़ा था। उसकी चीन से रणनीतिक साझेदारी की नींव इसी पर जमी है कि वह चीन की नीतियों को आंख बंद करके सलाम करे। और चीन तो तिब्बत को अपने से अलग देश मानता ही नहीं है।
बहरहाल, वीसा पर दक्षिण अफ्रीकी सरकार की तरफ से कोई खबर न मिलने के चलते दलाई लामा ने अपनी यात्रा निरस्त कर दी। इसका पता चलते ही बिशप टूटू बिफर पड़े। उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति जैकब जूमा के प्रशासन को यह कहते हुए रंगभेदी सरकार से भी बदतर बताया कि वह तो मुक्ति आंदोलन के उसूलों को ठुकराकर चीन के आगे झुक गया। दिलचस्प बात तो यह है कि इधर वीसा मुद्दे की उठापटक चल रही थी और उधर सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल चीन के लिए उड़ गया।
दाऊद की दावत उड़ाकर
पाकिस्तानी बोले-पता नहीं
11 अक्तूबर को दाउद इब्राहिम का दायां हाथ इकबाल मिर्ची लंदन पुलिस के हत्थे चढ़ ही गया। नशीले पदार्थों की तस्करी और 1993 के मुम्बई बम धमाकों का प्रमुख अपराधी मिर्ची भारत की पुलिस को सालों से छकाए हुए था। इसी तरह दाउद की भी भारत की पुलिस को “तलाश” है। जबकि वह खम ठोंककर पाकिस्तान में रह रहा है। पर पाकिस्तानी हुक्मरान उसके “अहसानों” तले इतने दबे हुए हैं कि उसकी ठसक में कमी नहीं आने देते। वे उसकी हवा भी किसी देश को नहीं लगने देते। भारत से सौ मर्तबा झूठ बोल चुके हैं कि “ओ नईं, नईं, दाउद ते एत्थे रैंदा ई नईं। की गल करदे ओ तुसी। ऐस तरां दा मजाक न किया करो।” और दाऊद है कि कराची में अपने “व्हाइट हाउस” से अपने अपराध जगत का खुलकर संचालन करता है। पाकिस्तानी नेता, अफसर, संतरी सब उसके दरबार में गाहे-बगाहे कोर्निश कर आते हैं।
भारत की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को ऐसी खबरें मिली हैं जो पक्का सबूत देती हैं कि दाऊद कराची में खूब फैल-फूट कर मजे कर रहा है। अभी पिछले महीने 25 सितम्बर को दाऊद के लड़के मोइन नवाज के निकाह की दावत में कुख्यात पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. के कई जाने-माने कारिंदे वहां आदाब बजाने पहुंचे थे। यहां पहुंची खबर के अनुसार, ब्रिगेडियर राशिद हुसैन शाहिद, कर्नल अशफाक अहमद, मेजर सादिक खान, कर्नल रहमान राशिद और लेफ्टिनेंट रशीदुल्ला खान वहां कबाब-शबाब खाते देखे गए थे। भारत का गृह मंत्रालय एक नहीं बीसियों बार उन आतंकवादियों की फेहरिस्त पाकिस्तानियों को दे चुका है जो भारत में बड़ी आतंकी घटनाओं को अंजाम देकर पाकिस्तानी धरती पर मजे से रह रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान है कि यही कहता है, “ओ छड्डो जी, कोई पुख्ता सबूत-शबूत हो तो गल करो जी, ऐवें साडा टाइम मुकाए जांदे ओ।” जरदारी ने और गिलानी ने भी अमरीका को न जाने कितनी बार यही कहा था कि “लादेन यहां कहां है जी”। पर मिला वह उनके ही आंगन में। अमरीका ने मौका देख ठोक दिया। बड़े-बुजुर्ग कह भी गए हैं- “सीधी उंगली से नहीं तो घी टेढ़ी उंगली से निकाल लो।”
चर्च से लोग नदारद!
अमरीका के चर्च खाली-खाली रहने लगे हैं। ईसाइयों के जैसे जमावड़े आज से दस साल पहले हुआ करते थे, अब नहीं दिखते। शनिवार/रविवार की खास सभाओं में भी हाजिरी का आंकड़ा गिर गया है। यानी बीते दस साल में चर्च की सदस्य संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। यह जानकारी दी है अमरीका में ईसाई, यहूदी और इस्लामी समागमों की हार्टफोर्ड सेमिनरी स्टडी ने। मजहबी समागमों में जो हाजिरी सन् 2000 में दर्ज की गई थी उसकी कहीं-कहीं आधी ही हाजिरी सन् 2010 में दर्ज की गई।
“स्टडी” के अनुसार, महज 51 फीसदी ईसाई समागमों में औसत सप्ताहांत हाजिरी 100 से ऊपर पाई गई। जबकि सन् 2000 में ऐसे समागम 58 फीसदी थे। 2010 में 25 फीसदी से कुछ ही ऊपर के समागमों में 50 या उससे कम लोग आए थे। हर तरह के श्वेत-अश्वेत चर्च प्रेमी समागमों में यह गिरावट दर्ज की गई है। ध्यान देने की बात है कि बीते दस सालों में बड़े चर्चों की संख्या तो दोगुनी हुई है, पर तमाम ईसाई समागमों में महज 0.5 फीसदी ही ऐसे थे जिनमें 2000 या ज्यादा साप्ताहिक हाजिरी थी। बड़े चर्चों की बढ़ी संख्या चर्च प्रेमियों की संख्या में आ रही तेज गिरावट को संभालने में नाकाम रही है।
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