शरद पूर्णिमा का चांद और चांदनी
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शरद पूर्णिमा का चांद और चांदनी

by
Oct 8, 2011, 12:00 am IST
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सरोकार

दिंनाक: 08 Oct 2011 15:11:37

 साल के बारह महीने और बारह महीने की बारह पूर्णिमा। आकाश में पूर्ण चन्द्र। शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिनों में आकाश में प्रत्येक रात्रि को चन्द्रमा का आकार बढ़ता गया। पूर्णिमा को पूरी रात चांद आकाश में पूरब से पश्चिम दिशा को जाता है। चांदनी इतनी साफ कि बिना लालटेन, बिना दीया और बल्व के सबकुछ भकाभक सूझता है। चांदनी रात में आंगन में पीढ़े पर बैठकर सामूहिक भोजन करना, अद्र्धरात्रि तक चांदनी में नहाते रहना, मां द्वारा खीर पकाना, खीर को रातभर चांदनी में रखना, सुबह-सुबह सबको खिलाना, बचपन की सभी स्मृतियां मन को शीतल कर जाती हैं। मान्यता रही है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि को चांदनी के साथ अमृत वर्षा होती है। मनुष्य जीवन की सनातन चाहत रही है- “मृत्योर्मा अमृतम् गमय।””

अपने “मेट्रो सिटी” के फ्लैट की बालकनी में भी खीर रखती हूं, पर पतले कपड़े से ढंक कर। वायु प्रदूषित जो है, कहीं अमृत के बदले विष न खाना पड़े।

प्रकृति के कितना निकट था हमारा जीवन। वर्षा ऋतु के उपरांत शरद ऋतु का आगमन होता है। आसमान बिल्कुल साफ। नीली छतरी के समान ही दिखता है। उस नीले आकाश में अपने पूर्ण आकार में आया सफेद चांद बड़ा सुहावना लगता है, पृथ्वी पर धवल चांदनी फैलाते हुए। तुलसीदास जी ने शरद ऋतु का वर्णन यूं किया है-

“वरषा विगत सरद रितु आई।

लछिमन देखहु परम सुहाई।।

फूलें कास सकल महि छाई।

जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।।

वर्षा ऋतु बीत गई। वर्षा ऋतु ने कुछ अपने अवशेष छोड़े हैं। कास के सफेद-सफेद फूल खिल गए। पृथ्वी ने मानो सफेद वस्त्र धारण कर लिए हैं। कास से भरे खेतों को देखकर गोस्वामी तुलसीदास जी को प्रतीत होता है कि वर्षा ऋतु बूढ़ी हो गई है।

शरद पूर्णिमा की चांदनी इन सफेद कास की पौधों पर भी पड़ती है। ये कास चमक उठते हैं, चांदी के समान। ऊपर सफेद, नीचे सफेद। शरद पूर्णिमा के दिन महिला-पुरुषों द्वारा रात्रि को सफेद कपड़े पहनने का ही रिवाज रहा है। प्रकृति के रंग में रंगने की सनातनी आकांक्षा।

देश के कुछ भागों में कृष्ण और राधा के संग युवक-युवतियों का रास नृत्य होता रहा है। प्रीति और अनुराग जगाने वाला है रास नृत्य। चारों ओर की प्राकृतिक छटा भी अनुराग ही पैदा करती है। “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय और मृत्योर्मा अमृतम् गमय” वेद में अंकित इस कामना को लोक जीवन व्यवहार में उतारना आवश्यक होता है। असत्, तमस (अंधकार) और मृत्यु तीनों इस संसार के गुण हैं। इस भव सागर में मनुष्य जन्म तो लेता है, पर शीघ्र उससे निकलना चाहता है। सत्य, प्रकाश और अमृत, तीनों एक ही आकांक्षा के भिन्न-भिन्न रूप हैं। शरद पूर्णिमा की चांदनी में अंधकार का मिटना प्रतीकात्मक है। उसी रात आकाश से अमृत वर्षा होना भी हमारी मान्यता है। शरद पूर्णिमा का तहे दिल से स्वागत होता है। मात्र खीर में ही अमृत बूंदे नहीं गिरें, हमारे शरीर पर भी चांदनी की किरणों के साथ अमृत वर्षा हो ताकि हम स्वस्थ रहें।

गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में-

“भूमि जीव संकुल रहे,

गए सरद रितु पाइ।

सदगुर मिलें जहिं जिमि,

संसय भ्रम समुदाइ।।””

शरद ऋतु की निर्मलता का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी गदगद हो जाते हैं। वे प्राकृतिक स्थितियों की तुलना मनुष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से करते हैं। उनका कहना है कि नदी और तालाब से वर्षा का जल धीरे-धीरे कम हो रहा है, जैसे ज्ञानी लोग सांसारिक मोह-ममता को त्याग रहे हैं। शरद ऋतु में खंजन चिड़िया के आगमन की तुलना तुलसीदास जी व्यक्ति के जीवन में सुकृति के फलने फूलने से करते हैं। जल के कम हो जाने से मछलियां वैसे ही विकल हो जाती हैं जैसे बुद्धिहीन कुटुंब धनहीन होने पर हो जाते हैं। भक्त के हृदय की भांति आकाश भी निर्मल हो जाता है। वर्षा ऋतु के बाद अपना घर-गांव छोड़ राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी निकल जाते हैं। कमल खिल गए हैं, भौंरे गुनगुना रहे हैं। मच्छर के डंस से भी छुटकारा मिल गया।

ऐसी शरद ऋतु के आगमन पर मन में अति प्रसन्नता होती है। तुलसीदास जी ने राम के मन की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है-

“बरषा गत निर्मल रितु आई,

सुधि न तात सीता कै पाई।”

वर्षा ऋतु की अपनी खूबियां हैं। वर्षा तो जीवन ही है। परंतु अतिवृष्टि से भी मानवमन अकुला जाता है। मानव मन भी प्रकृति के परिवर्तन का दिल से स्वागत करता है। इसलिए शरद ऋतु का स्वागत।

घर आंगन में भी वर्षा की धार से गड्ढे पड़ जाते हैं। उन्हें भरना, लीपना, दीवारों को ठीक करना। छत-छप्पर की मरम्मत। ढेर सारे काम। हमारे भी तो हाथ पांव खुल जाते हैं। सूखी धरती भी मिल जाती है। मिट्टी काटकर गड्ढे भरे जाते हैं। परिवर्तन तो हर ऋतु के बाद आता है। पर वर्षा ऋतु के बाद का परिवर्तन ज्यादा ही सुखकर लगता है।

इसलिए तो शरद पूर्णिमा विशेष है। शरद ऋतु के प्रारंभ में दीवाली आएगी। कार्तिक मास को पुण्य महीना कहा गया है। व्रत त्योहारों से भरे हैं ये दिन। गंगा सेवन किया जाता है। हमारे बचपन में दादी-काकी की एक महीने के लिए गंगा किनारे गंगा सेवन की तैयारी शुरू हो जाती थी। गंगा के किनारे गंगा की धार के साथ-साथ रहना भी तो एक परमानंद की स्थिति है।

आश्विन माह जहां प्रीति और अनुराग पैदा करता है, वहीं विरहिणी नारियों के मन में निराशा भी-

“आसीन हे सखि, आस लगाओल, आशान न पूरले हमार हे

आशा जे पूरै राम कुवरी सौतिनियां के, जेही कंत रखलै लुभाय हे।””

बारहमासा की इन पंक्तियों में आश्विन मास की पूर्णिमा विरहिणियों के लिए दर्द भी ले आती है। उन्होंने वर्षा बीतने पर परदेशी पिया के आने की आश लगा ली थी। वह पूर्णिमा  तक भी पूरी नहीं हुई। दर्द तो होगा ही। उनके लिए रासलीला भी दु:खदायी होती है।

इस प्रकार शरद पूर्णिमा अतिशय आनंद के आंचल पर थोड़े से दु:ख के छींटे डालने वाली भी है। सिक्के का दूसरा पहलू होता ही है, वह शारदीय पूर्णिमा ही क्यों न हो। धवल चांद में भी तो दाग है। आश्विन पूर्णिमा के चांद में वे काले धब्बे अधिक सुखकर हैं तो दु:खद भी। चांदनी है तो अंधेरा भी।द

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