बात बेलाग
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जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर अपने अनशन से देश भर को आंदोलित कर देने वाले अण्णा हजारे का अनशन महज आश्वासन से समाप्त करवा कर मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस खुद को बहुत चालाक मान रही थी, लेकिन इस बुजुर्ग गांधीवादी के एक ही दांव ने फिर से दोनों की हवा निकाल दी है। अनशन समाप्ति के बाद से ही जन लोकपाल के प्रावधानों को संसदीय प्रक्रिया में उलझाये जाने तथा अपने सहयोगियों को सरकार द्वारा तरह-तरह से प्रताड़ित किये जाने से खफा अण्णा ने ऐलान कर दिया है कि अगर संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक पारित नहीं किया गया तो वह और उनके सहयोगी अगले साल विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में अभियान चलाकर कांग्रेस को वोट न देने की अपील करेंगे। अगस्त में अनशन के दौरान अण्णा का असर पूरा देश और दुनिया देख चुकी है। इसलिए इस ऐलान के बाद से ही मनमोहन सिंह सरकार और उससे भी ज्यादा कांग्रेस के प्रबंधकों की हवा निकली हुई है। सरकार और कांग्रेस की मंशा थी कि हद से हद संसद के शीतकालीन सत्र में संसद की स्थायी समिति से उसकी सिफारिशों के साथ लोकपाल विधेयक सदन में पेश करवाकर राजनीतिक सहमति के नाम पर फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया जाये, लेकिन अब उसे इस मंसूबे की भारी कीमत का भय सताने लगा है। अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस पहले ही हाशिये पर जा चुकी है, पर राहुल गांधी “मिशन 2012” के तहत अरसे से जुटे हैं। अन्य राज्यों में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में अवश्य कांग्रेस कमोबेश हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन की परंपरा से सत्ता की आस लगाये बैठी है, लेकिन अण्णा के अभियान से उसकी सारी उम्मीदें हवा हो सकती हैं।
माया मेमसाब
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती की महिमा निराली है। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों में राज्य के कुख्यात लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर बसपा में शामिल किया गया। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के जंगलराज से आजिज मतदाताओं ने फिर भी माया मेमसाब को चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया तो उन्होंने शायद उसे राजनीति के अपराधीकरण का लाइसेंस ही मान लिया। उनका यह मुख्यमंत्रित्वकाल अब जब अंतिम चरण में है और फिर से जनता की अदालत में जाने की बारी आ गयी है तो उन्हें छवि की याद आयी है। चार साल तक बसपाइयों के अपराधों के प्रति आंखें मूंदे रहने वाली मायावती पांचवें साल में सख्ती से जनता को भरमाने की कोशिश कर रही हैं कि वह कानून के निष्पक्ष शासन में विश्वास रखने वाली इंसाफ पसंद मुख्यमंत्री हैं। इसी कवायद में 5 अक्तूबर को उन्होंने अपने दो और मंत्रियों, रंगनाथ मिश्र और बादशाह सिंह को मंत्रिमंडल से हटा दिया। इन दोनों के विरुद्ध भ्रष्टाचार और जमीन कब्जाने के गंभीर आरोप थे, जिन्हें सही पाते हुए लोकायुक्त न्यायमूर्ति एन.के. मेहरोत्रा ने भी इन्हें हटाने की सिफारिश की थी। इन दो मंत्रियों के साथ ही माया मंत्रिमंडल से बेआबरू होकर विदा होने वाले मंत्रियों का आंकड़ा आधा दर्जन के पार चला गया है। किसी एक सरकार के इतने अधिक मंत्रियों की आपराधिक और भ्रष्टाचार के मामलों में विदाई की मिसाल दूसरी शायद ही मिल पाये। कहना नहीं होगा कि जितने हटाये गये हैं, दागियों की संख्या उससे कहीं ज्यादा है। बहरहाल, चार साल तक मनमानी के बाद अब माया मेमसाब का छवि निखारने का अभियान जारी है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे कब किस पर गाज गिरती है।
कांग्रेसी परंपरा
राजधानी दिल्ली के निकटवर्ती महंगे गुड़गांव में विकास कार्यों के लिए अधिग्रहीत की गयी जमीन राजीव गांधी के नाम पर अस्पताल बनवाने के लिए नेहरू परिवार के एक ट्रस्ट को सौंप देने की हरियाणा सरकार की मनमानी का मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से लेकर संसद तक में गूंज चुका है। अब ऐसा ही एक और मामला उजागर हुआ है। रोहतक मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा का गृह जनपद है। वहां इंडस्ट्रियल मॉडल टाउनशिप बसाने के लिए किसानों से काफी जमीन अधिग्रहीत की गयी थी, लेकिन तमाम नियम कायदों को ताक पर रखकर बाद में उसमें से एक विशाल भूखंड मुख्यमंत्री के स्वर्गीय पिता चौधरी रणबीर सिंह के स्मारक के लिए आबंटित कर दिया गया। कहना नहीं होगा कि यह मामला इस जनधारणा की पुष्टि ही करता है कि परिवारवाद के पोषण के लिए जनता की संपत्ति से लेकर राष्ट्रीय संसाधनों तक की लूट कांग्रेस की परंपरा ही बन चुकी है।
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