चुनौतियों को मात
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चुनौतियों को मात

by
Oct 8, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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आवरण कथा

दिंनाक: 08 Oct 2011 18:43:36

नागपुर विजयादशमी उत्सव में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत का आह्वान

सद्भाव, निर्भयता,
राष्ट्रीयता का वातावरण बनाकर दें

रा.स्व.संघ के स्थापना दिवस पर विजयादशमी उत्सव में रेशिम बाग (नागपुर) में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने शस्त्र पूजन के उपरान्त स्वयंसेवकों एवं नागरिकों को संबोधित किया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के नाते सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली उपस्थित थे। यहां हम श्री भागवत के विस्तृत उद्बोधन का सम्पादित स्वरूप प्रकाशित कर रहे हैं।-सं.

आज से 86 वर्ष पूर्व इसी पुण्य पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रारम्भ हुआ। संघ निर्माता डा. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। उनके समय में देश की स्वतंत्रता के लिये, समाज-जीवन के परिष्कार के लिये व सुधार के लिये जो संघर्ष, आन्दोलन, अभियान व प्रबोधन के उपक्रम चल रहे थे, उन सबके वे सक्रिय व समर्पित कार्यकर्ता थे। उनके स्वयं के अनुभव विश्लेषण व चिन्तन में से तथा उपरोक्त सभी प्रयासों में समाज का नेतृत्व करने वाले स्वनामधन्य महानुभावों के साथ हुई उपर्युक्त चर्चाओं में से एक सर्वमान्य निष्कर्ष उनके हाथ आया। केवल देशहितैक बुद्धि से प्रामाणिक व नि:स्वार्थ प्रयास करने वाले, अनेकविध वैचारिक आधार व कार्यपद्धतियां लेकर चलने वाले,  उस समय के व आज के सभी महानुभाव उस निष्कर्ष पर सहमत होकर अपने-अपने शब्दों में उसी निष्कर्ष को घोषित करते आये हैं, घोषित कर रहे हैं। देश व दुनिया की सद्य:स्थिति का तटस्थ विश्लेषण भी हम सभी को फिर एक बार उसी निष्कर्ष पर लाता है। गत विजयादशमी (सन् 2010) से अब तक समय की गतिमानता से जो परिवर्तन आए हैं वे हम सभी की चिन्ताओं को बढ़ाते हुए हम सबसे एक निश्चित दिशा में पुरुषार्थ की मांग करने वाले हैं। देश- दुनिया की स्थिति का दिखने वाला रूप व स्वयं के नित्य जीवन में प्रतीत होता उसका अनुभव सभी के मन में अशांति पैदा करने वाला ही सिद्ध हो रहा है।

भारत के संदर्भ में वैश्विक परिदृश्य

विश्व के क्रियाकलाप अपने-अपने देशों के स्वार्थों का पोषण करने वाले बन सकें, इसलिये उन पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने की विविध प्रकार की चेष्टाएं दुनिया के समर्थ देश करते रहते हैं। कुछ इस प्रकार की स्पर्धा आजकल अमरीका तथा चीन के बीच भी चल रही है। आतंकवाद से लड़ने के निमित्त अमरीका की प्रत्यक्ष दखल अब अपने पड़ोसी पाकिस्तान तक आ पहुंची है।

संघ के स्वयंसेवक भ्रष्टाचार के विरोध में चलने वाले सभी आन्दोलनों में सम्मान अथवा श्रेय की अपेक्षा छोड़कर स्वभावत: लगे हैं। परंतु यह सभी को ध्यान में रखना होगा कि केवल कानून से भ्रष्टाचार की समस्या समाप्त होने वाली नहीं है। भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाली व्यवस्थाओं में भी मूलगामी परिवर्तन लाने होंगे।

शासकों के भ्रष्टाचार के विषय को लेकर एक के बाद एक मध्यपूर्व के कुछ देशों में जन-असंतोष का ज्वार खड़ा हुआ व सत्ता परिवर्तन भी हुआ, उसकी पृष्ठभूमि में भी कहीं न कही अमरीका व तत्सम अन्य पश्चिमी राष्ट्रों के हितसंरक्षण की बात निहित है, ऐसी चर्चायें विश्व में होती रहती हैं। अपने देश के उत्तर में स्थित चीन भी विश्व पर प्रभुत्व की आकांक्षा रखकर अपनी सामथ्र्य बढ़ा रहा है। स्वाभाविक ही प्रभुत्वस्पर्धा के इस खेल में पैदा होने वाली हलचल से हम चाहकर भी अछूते नहीं रह सकते। परंपरा से हम लोग संपूर्ण विश्व को अपना कुटुंब मानते हैं, उस पर प्रभुत्व नहीं, उससे आत्मीय मित्रता की चाह रखते हैं। इस वस्तुस्थिति को दुनिया के देश भी विदेशों में स्थित भारतीयों के सुव्यवहार के कारण स्वानुभव से जानते हैं तथा उनमें हमारे प्रति विश्वास व हमारा स्वागत भी अधिक है। हमारी इस दिशा व दृष्टि को कायम रखते हुये, अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता, प्रतिष्ठा व सुरक्षा को अक्षुण्ण रखने की सावधानी बरतते हुये, हमें विश्व के इस अशांत वातावरण को विश्वास तथा सहयोग के वातावरण में बदलने की पहल करने के लिये समर्थ होना पड़ेगा।

हमारे पड़ोसी व विशेषत: दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से तो हमारा सीधा सांस्कृतिक संबंध है। उन देशों में आज भी उस संबंध का सानंद व कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया जाता है। आर्थिक हितसंबंधों की दृष्टि से हम लोग परस्पर संबद्ध व समानधर्मा हैं। भारत इन सभी देशों के सुख-दु:ख का साथी व नेता बने, यह स्वीकृति भी वहां की मानसिकता में है। हमें उन सब देशों से आर्थिक, राजनयिक व सांस्कृतिक संबंध अधिक गति से दृढ़ बनाने चाहिये। हमारी सीमा से सटे नेपाल में स्थिरता व भारत के अनुकूल वातावरण बनाने पर अधिक ध्यान देना पड़ेगा। श्रीलंका में तमिलभाषी नागरिकों की त्रासदी समाप्त हो तथा वे वहां के नागरिक जीवन में साधिकार, सुरक्षित व समरस होकर उस देश के जीवन में बराबर की भागीदारी से योगदान कर सकें, ऐसी स्थिति उत्पन्न करने की पहल करनी चाहिए। बंगलादेश की सीमा पर अपनी सुरक्षा व्यवस्था पक्की हो, सीमाएं सच्छिद्र न रहें, घुसपैठ तथा शस्त्र, पशुधन, नकली नोट अथवा नशीली दवाएं आदि की तस्करी बंद हो, इसकी अपनी तरफ से व्यवस्था दृढ़तापूर्वक करने के साथ ही वहां का वातावरण हमारे लिये अनुकूल बने, यह भी देखना होगा। तिब्बत यद्यपि अभी चीन अधिकृत है, तथापि वहां बसने वाले तथा भारत सहित विश्व के अन्य देशों में बसने वाले तिब्बतियों की भावनाओं को वाणी मिले, उनके मानवाधिकार सुरक्षित रहें तथा अपनी आस्था तथा परंपरा को सुरक्षित रखकर अपने समाज-जीवन को वे स्वेच्छा से स्वाभिमानपूर्वक अपनी भूमि पर भी जी सकें, उनकी ऐसी सहायता हमें करनी होगी।

चीन की चाल

चीन यद्यपि अपनी आवश्यकता के कारण भारत के साथ आर्थिक, राजनयिक तथा सांस्कृतिक संबंधों को दृढ़ बनाने की पहल करता हुआ कभी-कभी दिखाई देता है, सामरिक बल के उपयोग से ही भारत सहित एशिया महाद्वीप में स्वत: का स्वार्थसाधन व प्रभुत्व विस्तार करने का उसका हेतु हाल की घटनाओं से पर्याप्त उजागर हुआ है। लेह-लद्दाख की भूमि में भारतीय सीमा के अंदर तक उसकी सैनिक घुसपैठ, भारत की सीमा के अंदर आकर भारतीय बंकरों को ध्वस्त करना, दक्षिण चीन समुद्र के अंदर अंतरराष्ट्रीय सीमा संकेतों का उल्लंघन करते हुए भारतीय जलपोतों को धमकाना, भारत के तेल अन्वेषण को रोकना आदि उसके ताजा उदाहरण हैं। हमारे संबंध वियतनाम जैसे देशों से अच्छे बनते हैं तो उस पर चीन को आपत्ति है। उत्तरपूर्व भारत के उग्रवादियों से भी चीन के तार जुड़ गये हैं, ऐसा वृत्त गुप्तचर विभाग के पास है, ऐसी खबरें छपी हैं। हम शत्रुता व युद्ध नहीं चाहते, यह ठीक ही है, परन्तु एक बार हम 1962 में स्वयं की स्वप्नरंजित मानसिकता व भोलेपन तथा चीन की धूत्र्त कूट समरनीति के शिकार हो चुके हैं। आर्थिक व तथागत बुद्ध के समय से चली आ रही सांस्कृतिक संबंधों की परंपरा को दृढ़ रखते हुए भी चीन के संबंध में सजगता बरतते हुये हमें अपने सामरिक बल व चौकसी को, सीमावर्ती यातायात व शीघ्र पहुंच के लिये आधारभूत ढांचे के निर्माण को तथा किसी विषम स्थिति के मुकाबले में पर्याप्त जागतिक समर्थन जुटा सकने के लिये अंतरराष्ट्रीय राजनयिक वार्ताक्रम को और अधिक व पर्याप्त पुष्ट बनाने की आवश्यकता है।

कश्मीर की स्थिति

पश्चिमी सीमा से हमसे शत्रुता करने वाले पाकिस्तान के साथ हाथ मिलाकर चीन भी अब कश्मीर के उत्तरी क्षेत्रों में, गिलगित-बाल्टिस्तान में उतरा है। भारत के इस उत्तरी भूभाग के- जहां छह देशों की सीमाएं मिलती हैं – भूराजनैतिक महत्व को न समझते हुये हमने उन्हें आक्रमण का शिकार होने दिया। पाकिस्तान की शह पर जम्मू-कश्मीर में उपद्रव खड़े किये जाते हैं, उग्रवादियों की घुसपैठ होती रहती है। वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान का संविधान व नियंत्रण रेखा के उस पार के कश्मीर का सर्वोच्च न्यायालय भी जम्मू- कश्मीर को पाकिस्तान का अंग नहीं मानता। तो भी पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में उपद्रव करने में लगा रहता है। फिर भी बार-बार हमारी केन्द्रीय सरकार तथा उसके द्वारा नियुक्त वार्ताकार कश्मीर की समस्या के महज एक राजनीतिक समस्या होने का दावा क्यों करते हैं? कश्मीर की समस्या महज आंतरिक राजनीतिक समस्या नहीं है, प्रत्युत विदेशप्रेरित सीमा पार आतंकवाद व कट्टरवादी मौलवाद के द्वारा निर्मित आक्रमण की तथा उसके मुकाबले से हमारी असमंजस भरी ढुलमुल नीति की समस्या है। इस आक्रमण के विरोधी देशभक्त तत्त्वों को सशक्त व मुखर बनाने की नीति केन्द्र व राज्य के शासकों की होनी चाहिए। 1947 व “48 के विस्थापितों को सभी नागरिक अधिकारों के साथ वहां बसाना तथा भारतभक्त व हिन्दू बने रहते हुये सम्मानित व सुरक्षा के प्रति आश्वस्त व सन्नद्ध होकर विस्थापित कश्मीरी हिन्दू अपनी जन्मभूमि में फिर से बसें, यह हमारी नीति बननी चाहिए। जम्मू व लद्दाख तथा राज्यभर में बसे विभिन्न जाति-वर्गों के साथ बरता जाने वाला भेदभाव समाप्त करने वाला संवेदनशील व पारदर्शी शासन-प्रशासन वहां होना चाहिए। धारा 370 जैसी भारत के साथ सात्मीकरण में बाधक बनने वाली धारा को निरस्त करने की नीति होनी चाहिए। 1953 पूर्व की परिस्थिति का राग अलापते हुये फिर से कश्मीर को भारत के साथ अलगाव की मानसिकता में लाने की साजिश समाप्त कर देनी चाहिए। केन्द्र शासन व उसके वार्ताकार अपनी मानसिकता बदलें, कश्मीर समस्या के बारे में अब 1953 पूर्व की स्थिति नहीं, संसद का 1994 में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव कि गुलाम कश्मीर को भारत में वापस लाना ही कश्मीर की शेष बची समस्या में संवाद की दिशा का आधार होना चाहिए।

उत्तर-पूर्वांचल की समस्याएं

उत्तर-पूर्वांचल की समस्याओं से मुक्ति के लिये अपने देश के राजनीतिक जगत के द्वारा अपने अध्ययन व जानकारियों को गहरा व अचूक बनाते हुये उत्तरपूर्वांचल की जनता की वेदनाओं को समझकर चलना अनिवार्य बन गया है। वहां जनाधार के पूर्ण क्षरण हो जाने से मृतप्राय उग्रवादी गुटों को केन्द्र व राज्य का शासन ही उनके साथ अपनी वार्ताओं से संजीवनी प्रदान करता है। कुछ वर्षों पूर्व मणिपुर की 60 दिन की नाकाबन्दी के बाद भी शासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती दिखाई दी, न ही अब वहां के अनियंत्रित उग्रवाद से शासन में किसी तत्पर कार्रवाई की इच्छा होती हुई दिखती है। रियांग जाति मिजोरम से त्रिपुरा में विस्थापित होकर अपनी जाति के सम्पूर्ण विलोप का सामना कर रही है, यह शासन के संज्ञान तक में नहीं है। असम में अवैध घुसपैठ से उत्पन्न स्थिति को देखते हुए भी सरकार बंगलादेश के साथ वार्ता में बिना स्थानीय नागरिकों के दु:ख-दर्द को जाने व पूछे भारत की जमीन बंगलादेश को देने की तत्परता दिखाती दिखती है। अधूरा सतही अध्ययन व जानकारी, प्रदेश की जनता की संवेदना व वेदना के प्रति उदासीनता, स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टिपथ का अभाव तथा हर बात को राजनीतिक लाभालाभ के तराजू में तोलने की आदत ने कश्मीर के समान ही भारत के उत्तरपूर्वांचल की समस्याओं को भी उलझा दिया है।

आतंकवाद

दृष्टि, अध्ययन व संवेदना का अभाव ही शायद वह कारण है जिसके चलते हाल ही में देश के गृहमंत्री के द्वारा फिर एक विचित्र बात कही गई। उन्होंने कहा कि देश में चलने वाली आतंकी गतिविधियों में माओवादी या नक्सली आतंकवाद सर्वाधिक खतरनाक है। क्या इसका अर्थ यह लिया जाए कि आतंकवाद के भी कम या अधिक प्रकार होते हैं? और अगर ऐसा है तो ऐसे “अधिक खतरनाक” आतंकवाद से संबंध रखने का संदेह जिस व्यक्ति के बारे में एक राज्य सरकार को है, उसको केन्द्र सरकार ने योजना आयोग की एक समिति में स्थान कैसे दिया?

देश की एकात्मता, अखंडता व व्यवस्था को चुनौती देने वाली आतंकवाद जैसी समस्याओं का दृढ़तापूर्वक मुकाबला करना छोड़ अपना दायित्व राज्य सरकारों पर डालने वाले लोग कम से कम ऐसी हताशापूर्ण भ्रामक बातों की पट्टी जनता को पढ़ाने से बाज आयें। हम कैसी भ्रामक व देश की जड़ें खोदने वाली बातों को विचारों में प्रश्रय दे रहे हैं? इन्हीं बातों के चलते हमारे पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को मिला प्राणदंड निरस्त करने की मांग को राजनीतिक समर्थन का प्रश्रय मिलता है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में तो जहां एक तरफ संसद पर आतंकी हमले में दोषी पाये गये अफजल की फांसी रद्द करने के प्रस्ताव को रखने की अनुमति प्रदान की गयी, वहीं संसद के कश्मीर संबंधित 1994 के सर्वानुमति से पारित प्रस्ताव पर चर्चा व अनुमोदन चाहने वाले प्रस्ताव को अनुमति नहीं दी गयी। हमारे अपने देश में हमारी राजनीतिक गतिविधियां स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टि व प्रेरणा से प्रेरित होकर नहीं चलायी जा रही हैं।

अर्थनीति

देश की आर्थिक गतिविधियों में भी इसी अभाव का प्रतिबिंब स्पष्ट होता है। पश्चिम के आर्थिक विचार की असफलताएं व अपूर्णताएं अब समूचे विश्व के सामने पर्याप्त मात्रा में उजागर हो गई हैं। हमें अपनी जीवन दृष्टि के आधार पर, अपनी जनता की आवश्यकता के अनुरूप, समृद्धि के साथ-साथ संस्कृति को बढ़ाने वाला, प्रगति के साथ पहचान को दृढ़ बनाने वाला अपना विशिष्ट विकास पथ खोजना पड़ेगा। इसकी टाल-मटोल करते हुए हम गत छह दशकों में केवल परानुकरण में लगे रहे और उसी की कीमत सामान्य जनता चुका रही है। उधर वस्तुओं के भाव आसमान को छू रहे हैं और इधर सांसद व विधायकों के वेतन बार-बार बढ़ाए जा रहे हैं। गरीब अधिक गरीब हो रहे हैं और हम अभी गरीब की परिभाषा पर ही विवाद में उलझे हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के भविष्य की संभावना का विचार कर तदर्थ आवश्यक कृषि, गोचर व वन भूमि को अभी से सुरक्षित करने के बजाय विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाने के नाम पर कृषि भूमि को जबरदस्ती कब्जाने का विरोध करने वाले किसानों पर गोलियां चलाई जा रही हैं। अपने यहां उपलब्ध भूतापीय ऊर्जा, जैविक ऊर्जा, थोरियम आदि ऊर्जा के स्रोतों का विकास करने के स्थान पर पश्चिम जिसका त्याग कर रहा है ऐसी आण्विक ऊर्जा को महंगी कीमतों तथा शर्तों पर अपने देश में लाने पर हम तुले हैं। संगठित व्यापार प्रतिष्ठानों से स्पर्धा करने की क्षमता व प्रशिक्षण खुदरा व्यापारियों को देने के बजाय खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को आमंत्रित किया जा रहा है। सीमित आय में परिवार का पालन-पोषण करने वाला आम आदमी बच्चों की महंगी शिक्षा का खर्च कैसे उठाए, इस दुविधा में फंसा हुआ है। आम आदमी यह भी देख रहा है कि विदेशी अधिकोषों में भारत से चुराकर भेजा गया काला धन वापस लाने में आनाकानी की जा रही है, उस धन को वहां भेजने वालों के प्रति कानूनी कार्रवाई में सोद्देश्य बरती जाने वाली ढिलाई व विलम्ब को भी वह देख रहा है।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन

चारों ओर से पड़ने वाली इस मार की कुंठा से जनमन में दीर्घकाल से संचित असंतोष ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के रूप में फूट पड़ा है। विदेशों में जमा काले धन की वापसी, भ्रष्टाचार प्रतिबंधक कड़ा कानून तथा बिना किसी दबाव से उस पर कड़ाई से अमल, उस कानून के दायरे में प्रधानमंत्री सहित सभी उच्चपदस्थों का समावेश करना आदि सभी मुद्दे जनता की भावना को व्यक्त करने वाले मुद्दे बन गए हैं। जनदबाव के आगे शासन को झुकना तो पड़ा, परन्तु अभी सफलता दूर है। भ्रष्टाचार के मामलों में बलि के नाते कुछ व्यक्ति तो प्रशासन व कानून के कटघरे में आ गये हैं, परंतु ज्ञात-अज्ञात बड़े सूत्रधार तो अभी भी मुक्त घूम रहे हैं। लंबी लड़ाई में सफलता पाने के लिये आन्दोलन करने वाली सभी छोटी-बड़ी धाराओं को अपने छोटे-बड़े मतभेदों को भुलाकर एकत्र आना पड़ेगा। भ्रष्टाचार का विषय मात्र धन के अपहार से संबंधित नहीं है। जांच से स्पष्ट हुआ है कि लगभग सभी बड़े मामलों में भ्रष्टाचारियों के धन की व्यवस्था में विदेशी गुप्तचर एजेन्सियां अथवा आपराधिक गुट जुड़े हुए हैं। अतएव यह सीधा देश की एकात्मता, प्रभुसत्ता व सुरक्षा का प्रश्न बन जाता है। इसलिये श्रेय बटोरने में लगीं, संदिग्ध पृष्ठभूमि वाली शक्तियों से दूर रहना चाहिए। राष्ट्रभक्ति के प्रतीक रूप “वंदेमातरम्”, “भारतमाता” आदि संकेतों को अपनी दोषपूर्ण भ्रमित दृष्टि अथवा सस्ती लोकप्रियता के लिये नकारना, यह किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन में स्वीकार्य नहीं है। तथाकथित अल्पसंख्यकों में विद्यमान संकुचित, कट्टरपन या अलगाव के विचार रखने वालों की खुशामद करने वाली प्रवृत्तियों से दूर रहना पड़ेगा। विशेषत: धन साधन के मामले में संपूर्ण पारदर्शिता रखने वाले व्यक्तियों व प्रवृत्तियों को ही साथ रखने की चिन्ता करनी पड़ेगी, अन्यथा आंदोलन में रह गयीं इन दुर्बलताओं का लाभ उठाकर आंदोलन के विरोधी अविश्वास व अश्रद्धा का वातावरण उत्पन्न करने की कुचालें चल सकते हैं। इससे देश की सुरक्षा को संकट में लाने वाली शक्तियों का साहस और बढ़ सकता है।

राष्ट्र जीवन के सभी अंगों में परकीय प्रवृत्ति की आक्रामक व घातक घुसपैठ को रोककर संपूर्ण राष्ट्र को सशक्त व समरस बनाकर चुनौतियों को मात देते हुये वैभव पथ पर आगे बढ़ाने का दायित्व अब समाज को ही संभालना पड़ेगा। फिर एक बार परिस्थिति सज्जनों के उस सम्मिलित विजिगीषु पुरुषार्थ की मांग कर रही है। और इस मांग को इस भूमि के पुत्ररूप तथा भाग्यविधाता हिन्दू समाज को ही पूर्ण करना पड़ेगा।

संघ के स्वयंसेवक भ्रष्टाचार के विरोध में चलने वाले सभी आन्दोलनों में सम्मान अथवा श्रेय की अपेक्षा छोड़कर स्वभावत: लगे हैं। परंतु यह सभी को  ध्यान में रखना होगा कि केवल कानून से भ्रष्टाचार की समस्या समाप्त होने वाली नहीं है। भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाली व्यवस्थाओं में भी मूलगामी परिवर्तन लाने होंगे। इस दृष्टि से हमारे प्रशासन में पद्धति को अधिक पारदर्शी व जनाभिमुख बनाना होगा। संस्कारों के प्रशिक्षण का वातावरण उसमें बनाना पड़ेगा। चुनाव प्रणाली में अपराध व धन के प्रभाव को समाप्त करने वाले सुधार करने पड़ेंगे तथा जनता का सही प्रतिनिधित्व प्रगट करा सकने वाली सरलता उसमें लानी पड़ेगी। कर प्रणाली और अधिक सुसंगत करनी पड़ेगी। शिक्षा पद्धति को व्यापारीकरण से मुक्त व सुसंस्कारदायक बनाना पड़ेगा। व्यवस्था में सुधार व परिवर्तन के समग्र चित्र की कल्पना कर उसको लागू करने का दबाव बनाना पड़ेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात समाज में सामाजिक दायित्व बोध, विशुद्ध चारित्र्य, सेवा व परोपकार के मूल्यों का संवर्धन आदि के संस्कार स्थापित करने होंगे। अपने व्यवहार द्वारा इन संस्कारों का वायुमंडल बनाने वाले आचरण के उदाहरण ग्राम-ग्राम में व नागरिकों की बस्तियों में खड़े किये बिना समाज से भ्रष्टाचार निर्मूलन सर्वथा असंभव है। इस मूलगामी महत्वपूर्ण कार्य पर केन्द्रित होकर संघ कार्य कर रहा है।

परन्तु आंदोलन के समय के सभी घटनाचक्रों में शासन में बैठे उच्चपदस्थों की जो प्रवृत्ति सामने आई वह चौंकाने वाली व चिन्ता पैदा करने वाली है। अपनी उचित मांगों के लिये आंदोलन करने वाली निरीह जनता के साथ दमन, छल-कपट, औद्धत्य आदि का प्रयोग विदेशी सरकार के अधीन तो समझ में आता था, पर स्वतंत्र देश में अपने ही शासन से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर हमारे राजनीतिक परिवेश में सत्तास्वार्थ ही प्रमुख बन जाने के कारण राष्ट्रहित की बात गौण हो गई है, उसकी उपेक्षा हो रही है तथा प्रजा के प्रति संवेदनहीनता आ गयी है। यह क्षमायोग्य न होने पर भी उसका कारण सभी को समझ में आ रहा है। अपने देश का भविष्य ऐसे राजनीतिकों के हाथों में कितना सुरक्षित रहेगा, यह प्रश्न खड़ा हुआ है।

सांप्रदायिक तथा लक्षित हिंसा-रोकथाम विधेयक

राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में एक नये प्रस्तावित कानून पर चर्चा हुई। अधिकांश लोगों ने उस प्रस्तावित प्रारूप का स्पष्ट व प्रखर विरोध किया। प्रधानमंत्री जी ने उसके प्रारूप को सुधारकर फिर से चर्चा के लिये लाने की बात कही, परन्तु प्रारूप का प्रस्तावित रूप सरसरी दृष्टि से देखने पर यह ध्यान में आता है कि अपना देश एक न रहे, सामाजिक सद्भाव समाप्त हो, संविधान की भावना के विपरीत सारे कार्य हों, ऐसी विकृत विचारधारा वाली बुद्धि की उपज यह प्रारूप है। इस प्रारूप को तैयार करने वाली तथाकथित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का संवैधानिक स्थान व अधिकार क्या है, पता नहीं। उसकी अध्यक्षा सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रमुख दल की भी अध्यक्षा हैं। देश को सदा के लिए कलह व अशांति में उलझाकर उसे तोड़ने वाले इस कानून का प्रारूप उनकी निगरानी में कैसे बन पाया, यह प्रश्न है। क्या यह सत्य है कि इन तथाकथित सलाहकारों में ऐसे लोग हैं जिनकी साख पर देश के सर्वोच्च न्यायालय तक ने संदेह व्यक्त किया है? हमारे देश को हमारा मंत्रिमंडल चलाता है या उसकी आड़ में ऐसे विकृत व देशघातक दिमाग वाले लोग? हम वास्तव में स्वतंत्र हैं या किसी छुपे पारतंत्र्य के कपटजाल में जकड़े गये हैं? यह प्रारूप संविधान प्रदत्त संघीय ढांचे की व राज्य के अधिकारों की अपमानजनक अवहेलना करके राज्य सरकारों को केवल आरोपित शंका के आधार पर बर्खास्त करने का निरंकुश अधिकार केन्द्र को देता है। मुख्यमंत्री से लेकर सामान्य कर्मचारी तक, सबको बर्खास्तगी के भय में सदा रखकर मात्र कठपुतली बनाकर रख देने का प्रावधान इस कानून में है, जो लोकप्रशासन शास्त्र के नियम के विपरीत है। क्या यह देश की प्रजा पर छुपे रास्ते से सदैव के लिये आपातकाल लादने का प्रयास नहीं है? इस प्रारूप में किसी व्यक्ति के मात्र आरोपित होने पर उससे संभवत: संबंधित संस्था, प्रतिष्ठान, दल या सरकार को उनके प्रमुखों सहित दोषी मानकर उन पर सब प्रकार की कार्रवाई करने का, केवल अंधेरनगरी में शोभा देने वाला, न्याय व विधि विरोधी प्रावधान है। इसमें “मानसिक कष्ट” जैसे काल्पनिक अपराधों का विचित्र मण्डन है। न्याय, प्रजातंत्र, संविधान आदि की उद्दंड अवहेलना करने वाला यह विकृत आसुरी दिमाग से उपजा प्रस्ताव क्या विचार करने लायक है? यह प्रस्तावित प्रारूप राष्ट्र की एकात्मता व भावना के विरुद्ध जाकर देश के नागरिकों में भेद-दृष्टि निर्माण करता है। देशहित व समाज की एकता को सदा के लिये अपंग बनाकर तोड़कर रख देने वाला यह प्रस्ताव भारत के हितों की अवहेलना करने वाली बुद्धि का परिचायक है।

संविधान, देशहित व समाज की एकता व सद्भाव का संरक्षण कर सभी के प्रति समान आत्मीयता की दृष्टि रखकर व न्याय का संवर्धन करने वाला कार्यक्षम प्रशासन मिले, इस अपेक्षा से जनता के द्वारा चुनी गई संसद व सरकार को इस प्रस्तावित कानून को सिरे से खारिज करते हुए किसी भी स्वरूप में आने ही नहीं देना चाहिए। तथाकथित अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व उनके प्रति न्याय को कानून ही नहीं, समाज में व्याप्त सद्भाव ही सुरक्षित करता है। इस सद्भाव विरोधी कानून को किसी भी स्वरूप में लाने का प्रयास समाज से कड़े प्रतिरोध व असंतोष को जन्म देगा, क्योंकि स्वरूप भले ही बदले, इन प्रयासों के पीछे की देशविरोधी घृणित- षडयंत्रकारी मानसिकता इस पहले प्रारूप से ही स्पष्ट रूप से उजागर हो गई है। शासन इस कानून के प्रस्ताव को सोचने वाली प्रवृत्ति पर शीघ्रातिशीघ्र अंकुश लगाए अन्यथा उसे समाज से प्रचंड असंतोष व प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।

संगठित सज्जन-पुरुषार्थी समाज एकमात्र उपाय

दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव तथा स्पष्ट व निर्भय राष्ट्रीय दृष्टि की अनुपस्थिति से उपजी हतबलता, ढुलमुल नीति, दब्बूपन, अपनी जिम्मेदारी टालने की प्रवृत्ति, स्वार्थकारण आदि बीमारियों से ग्रस्त राजनीतिक समाज में केवल निराशा व अविश्वास का वातावरण ही उत्पन्न कर रहे हैं। राष्ट्र जीवन के सभी अंगों में परकीय प्रवृत्ति की आक्रामक व घातक घुसपैठ को रोककर संपूर्ण राष्ट्र को सशक्त व समरस बनाकर चुनौतियों को मात देते हुये वैभव पथ पर आगे बढ़ाने का दायित्व अब समाज को ही संभालना पड़ेगा। आसुरी प्रवृत्तियों के दमन के लिये देवों द्वारा की गयी सम्मिलित तपस्या के फलस्वरूप सर्वविजयी कल्याणकारी महाशक्ति दुर्गा प्रकट हुई थीं व सत्प्रवृत्ति विजयी हुई थी, यह आज के पुण्यपर्व का प्राचीन इतिहास है। फिर एक बार परिस्थिति सज्जनों के उस सम्मिलित विजिगीषु पुरुषार्थ की मांग कर रही है। और इस मांग को इस भूमि के पुत्ररूप तथा भाग्यविधाता हिन्दू समाज को ही पूर्ण करना पड़ेगा।

ज्ञानेश्वर महाराज जी ने ज्ञानेश्वरी के अंत में पसायदान में प्रार्थना की है कि दुष्टों के हृदय की वक्रता समाप्त होकर सबकी सत्कर्मों में बुद्धि हो, सबमें परस्पर मित्रभाव उत्पन्न हो, सभी के संकट नष्ट होकर सभी स्वधर्म पर चलें, सबकी मनोकामना पूर्ण हो। उसकी पूर्ति के लिये उन्होंने वरदान मांगा है कि सकलमंगल की वर्षा करते रहने वाले, सद्गुणों से परिपूर्ण, सबके प्रति आप्तभाव रखने वाले, ईश्वरनिष्ठ सज्जनों के समूह सदा समाज में विद्यमान रहें। स्वतंत्र, समरस, बलसंपन्न, विश्वगुरु भारत की कल्पना साकार हो इसलिये अपनी जीवन-समिधाओं से देश सेवा का यज्ञ सदैव प्रज्ज्वलित रखने वाले आधुनिक भारत के सृजनशिल्पी महापुरुषों का यही निष्कर्ष व यही प्रयास था। आज भी प्रामाणिकता व नि:स्वार्थ बुद्धि से देश के हित में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले विभिन्न महानुभावों का यही समान निष्कर्ष है। यÏत्कचित भी स्वार्थ व भेद जिनके हृदय को छूता नहीं, देश व समाज के प्रति अपार आत्मीयता व संवेदना जिनके मन में है, अपने सनातन प्राचीन राष्ट्र की पहचान, सबको जोड़ने वाली हमारी भारतीय संस्कृति तथा हम सबकी पवित्र अखंडस्वरूपा चैतन्यमयी भारतमाता का अव्यभिचारी भक्तिपूर्ण गौरव जो निर्भय होकर स्पष्ट रूप से उद्घोषित करते रहते हैं, स्वयं सद्गुण साधन की तपस्या करते हुये जो नित्य समाजहित में उसका विनियोग करते रहते हैं, ऐसे सज्जनों के जीवमान उदाहरण प्रत्येक गांव व बस्ती में खड़े करने पड़ेंगे। इस देशव्यापी सज्जनशक्ति की सामूहिक तपस्या व निरंतर नि:स्वार्थ पुरुषार्थ से ही राष्ट्रजीवन का भाग्यसूर्य उदयांचल पर उगता हुआ दिखाई देगा।

आवाहन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में इसी सर्वानुमोदित विचार व व्यवहार को साकार करने का कार्य, हिन्दू संगठन की कल्पना करते हुए, आज से 86 वर्ष पूर्व एक छोटे से स्वरूप में प्रारंभ किया गया था। आज वह एक विशाल रूप लेकर, सज्जनशक्ति के इस अनुष्ठान का अमोघ साधन बनकर आपके सामने खड़ा है। हम उसके सहयोगी बनें। समाज में सद्भाव, निर्भयता, राष्ट्रीयता का वातावरण बनाएं। सब स्वयंसेवक बन्धु भी अपने इस दायित्व को समझकर कार्य में पूर्ण सक्रियता के साथ जुट जाएं।

सत्य की विजय के प्रति पूर्ण आश्वस्ति मन में रखकर आत्मविश्वास-युक्त होकर निर्भय चित्त से निरंतर पुरुषार्थ के कर्तव्य पथ पर संपूर्ण समाज को साथ जोड़कर चलें। हमारी विजय निश्चित है-

राष्ट्रभक्ति ले हृदय में

हो खड़ा यदि देश सारा।

संकटों पर मात कर यह

राष्ट्र विजयी हो हमारा।।

राष्ट्रसंत श्री तुकड़ोजी महाराज के शब्दों में-

“बनें हम हिन्द के योगी

धरेंगे ध्यान भारत का

उठाकर धर्म का झंडा

करें उत्थान भारत का

हमारे जन्म का सार्थक

हमारे मोक्ष का कारण

हमारे स्वर्ग का साधन

यही उत्थान भारत का”।

।। भारत माता की जय ।।

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