क्या बुखारी ही इस्लाम का चेहरा हैं?
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क्या बुखारी ही इस्लाम का चेहरा हैं?

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Oct 1, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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मंथन

दिंनाक: 01 Oct 2011 17:22:40

इस शुक्रवार (24 सितम्बर) को प्रात: राजधानी दिल्ली के कान्स्टीट्यूशन क्लब में एक प्रदर्शनी आरंभ हुई। आयोजकों की पूर्व घोषणानुसार प्रदर्शनी की रविवार की सायं 8 बजे समाप्त होना था। दर्शकों के लिए प्रदर्शनी प्रात: 11 से सायं 8 बजे खुली रहनी थी। प्रदर्शनी का समाचार पत्रों में विज्ञापन छपवाया गया था। दूतावासों, कालेजों एवं अन्य प्रबुद्ध संस्थानों, सांसदों, राजनेताओं, उपराष्ट्रपति डा. हामिद अंसारी, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह जैसे प्रभावशाली मुस्लिम प्रबुद्धों से वहां आने का विशेष आग्रह किया गया था। प्रदर्शनी का घोष वाक्य था “सबसे प्यार, किसी से नफरत नहीं।” प्रदर्शनी के आयोजकों का उद्देश्य था इस्लाम को शांति और भाईचारे के मजहब के रूप में प्रस्तुत करना। वे कुरान और जिहाद की नयी व्याख्या प्रस्तुत करना चाहते थे। विज्ञान, स्त्री प्रश्न आदि के प्रति इस्लाम की भावात्मक दृष्टि दिखाना चाहते थे। प्रदर्शनी में 53 भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में कुरान के अनुवाद को प्रदर्शित किया गया था। प्रदर्शनी में इस्लाम के उदार एवं प्रगतिशील छवि को उभारने वाले फलकों, चित्रों और पुस्तकों को सजाया गया था। शांतिपूर्ण इस्लाम या कट्टरवादी इस्लाम वस्तुत: इस समय जब पूरे विश्व में इस्लाम की छवि एक असहिष्णु, हिंसक, आक्रामक एवं प्रगति विरोधी उन्मादी गिरोह की बन गयी है, इस्लाम का दूसरा चेहरा उभारना उसके अपने हित में है। आज तो विश्व मानस में इस्लाम मजहबी जिहाद, मुजाहिद्दीन, फिदायीन और तालिबान का पर्याय बन गया है। इस छवि को तोड़ना क्या इस्लाम और विश्व शांति के हित में आवश्यक नहीं है? पर कट्टरवादी मुस्लिम नेताओं को उदार और प्रगतिशील छवि स्वीकार्य नहीं है। उनके उग्र विरोध प्रदर्शन के कारण ऐसी श्रेष्ठ प्रदर्शनी को समय से पहले ही बंद करना पड़ा। इस विरोध प्रदर्शन में केवल जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी और उनके भाई याहया बुखारी ही मैदान में नहीं उतरे थे बल्कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यसमिति के सदस्य कमाल फारुखी सबसे आगे थे। अ.भा.मुस्लिम अल्पसंख्यक एवं दलित बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष डा.मुहम्मद हसन, मटिया महल (दिल्ली) क्षेत्र के विधायक शोएब इकबाल भी मैदान में थे। इतना ही नहीं, जमीयत उल उलेमा के अध्यक्ष मौलाना अशद मदनी ने अपनी लंदन यात्रा में वहीं से इस प्रदर्शनी के विरोध का स्वर उठाया। भारत के उपराष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी को प्रदर्शनी में जाने का अपना कार्यक्रम रद्द करने का निर्देश दिया और उन्होंने इस निर्देश का पालन भी किया। केवल अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह अपनी वृद्धा मां हमीदा हबीबुल्लाह के साथ वहां पहुंच पाये। हमीदा बेगम को प्रदर्शनी देखकर बहुत अच्छा लगा, उसके विरोध प्रदर्शन का उन्हें कोई औचित्य दिखायी नहीं पड़ा। प्रदर्शनी के पहले दिन शुक्रवार को ही कमाल फारुखी ने चेतावनी दे दी कि यदि इस प्रदर्शनी को बंद नहीं किया गया तो बहुत उग्र प्रदर्शन का सामना करना पड़ेगा। इस धमकी से दिल्ली प्रशासन और दिल्ली पुलिस की बेचैनी बढ़ गई। उन्होंने प्रदर्शनी के आयोजकों पर दबाब डाला कि वे उसे बंद कर दें। प्रदर्शनी के आयोजकों-सैयद सलाहुद्दीन, सैयद शिराज अहमद, सैयद तनवीर अहमद ने कहा कि इस प्रदर्शनी के द्वारा हम शांति का पैगाम फैलाना चाहते हैं, उन्माद और हिंसा का नहीं। इसलिए शांति बनाए रखने के लिए हम अपनी प्रदर्शनी को रविवार की बजाय एक दिन पहले यानी शनिवार को ही सायं 8 बजे समाप्त कर देंगे। किंतु नफरत के सौदागरों को यह भी मंजूर नहीं था। शनिवार को प्रात: 11 बजे जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी 20-25 कारों के काफिले में 100-150 उन्मादियों को भरकर दरियागंज थाने के सामने जा धमके और प्रदर्शनी को बलपूर्वक बंद कराने के लिए कांस्टीट्यूशन क्लब की ओर मार्च करने लगे। राजधानी दिल्ली की बहादुर पुलिस ने शांति भंग की आशंका से भयभीत होकर एक ओर इमाम बुखारी को उनके 56 अनुयायियों के साथ दरियागंज थाने में बैठाए रखा, दूसरी ओर प्रदर्शनी के आयोजकों पर दबाब डाला कि वे उन्मादियों को उपद्रव का मौका देने के पहले ही अपनी प्रदर्शनी को बंद कर दें। फलत: पुलिस के दबाब के कारण आयोजकों ने रात्रि 8 बजे की बजाय अपरान्ह 2.15 बजे ही प्रदर्शनी को बंद कर दिया और 3.30 बजे इमाम बुखारी अपनी विजय का जश्न मनाते हुए पुलिस थाने से अपने अनुयायियों के साथ विदा हो गये। अहमदी मुसलमानों से बैर क्यों? इमाम बुखारी का कहना है कि इस प्रदर्शन के आयोजक भले ही अपने को मुसलमान कहें पर वे मुसलमान नहीं हैं, क्योंकि पाकिस्तान, इराक और ईरान जैसे मुस्लिम देश उन्हें मुसलमान नहीं मानते हैं, पाकिस्तान में तो उन्हें मतदान का भी अधिकार नहीं दिया गया है। यद्यपि पाकिस्तान के प्रारंभिक दिनों में उसके विदेश मंत्री जफरुल्ला खान भी अहमदिया या कादियानी सम्प्रदाय के थे, उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ और विश्व में पाकिस्तान के हितों की पुरजोर वकालत की थी और पाकिस्तान को उन पर नाज था। पर आगे चलकर जब पाकिस्तान पर सुन्नी सम्प्रदाय का जुनून हावी हुआ तो उसने अहमदी सम्प्रदाय को इस्लाम से बहिष्कृत कर गैरमुस्लिम घोषित कर दिया। तबसे अहमदी सम्प्रदाय के अनुयायी स्वयं को मुसलमान कहकर भी पाकिस्तान में भेदभाव और उत्पीड़न के शिकार हैं। इस्लाम के भीतर अहमदिया सम्प्रदाय की स्थापना अखंडित भारत के गुरदासपुर जिले में कादियानी गांव के निवासी मिर्जा गुलाम अहमद ने 23 मार्च, 1889 को की थी। उनके नाम पर इसे अहमदिया और जन्मदाता ग्राम के नाम पर कादियानी कहा जाता है। कादियानी सम्प्रदाय के लोग उच्च शिक्षा प्राप्त, उदार व प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते हैं। पिछले पुस्तक मेले में मुझे उनके स्टाल पर जाने और वहां रखे साहित्य को देखने व खरीदने का अवसर मिला। अहमदियों का दावा है कि वे कुरान को अपना पवित्र धर्मग्रंथ और मुहम्मद साहब को अपना पैगम्बर मानते हैं। वे पूरी आस्था के साथ नमाज पढ़ते हैं, रोजा रखते हैं। अंतर केवल इतना है कि वे हजरत मुहम्मद को अंतिम पैगम्बर मानने को तैयार नहीं हैं। मिर्जा गुलाम अहमद का कहना था कि समय का प्रवाह जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे नये सुधारक और पैगम्बर जन्म लेते हैं और लेते रहेंगे। अहमद ने स्वयं को पैगम्बर तो नहीं कहा पर उनके अनुयायियों ने उन्हें सुधारक या मेंहदी के रूप में देखा। सुन्नी मुसलमान हजरत मुहम्मद को अंतिम पैगम्बर मानते हैं और कुरान की आलोचनात्मक समीक्षा या नयी व्याख्या सहन करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने कुरान और मुहम्मद साहब के प्रति इतनी अंधश्रद्धा पैदा की है कि उनकी आलोचना को वे उनका अपमान घोषित कर देते हैं और उन्मादी प्रदर्शन पर उतर आते हैं। डेनमार्क के किसी कार्टूनिस्ट द्वारा पैगम्बर मुहम्मद का रेखाचित्र बनाने के विरोध में दुनिया भर के सुन्नी मुसलमान सड़कों पर उतर आये थे, अमरीका में फ्लोरिडा के एक पादरी द्वारा कुरान के सार्वजनिक अग्निदाह की घोषणा मात्र से सम्पूर्ण विश्व का सुन्नी मुस्लिम गुस्से में पागल हो गया था। कादियानी अहमदिया सम्प्रदाय के वर्तमान विश्व गुरू हजरत मिर्जा मसरूद अहमद पाकिस्तान से निर्वासित होकर लंदन में रहते हैं। उन्होंने बताया कि उस अमरीकी पादरी की उपरोक्त घोषणा के बाद ही मैंने विश्व के विभिन्न भागों में ऐसी प्रदर्शनियों का आयोजन कर कुरान के वास्तविक संदेश को विश्व तक पहुंचाने का निश्चय किया, दिल्ली में आयोजित प्रदर्शनी उसी योजना का अंग थी। बुखारी की करतूतें किंतु इमाम बुखारी का कहना है कि अहमदिया लोग यहूदियों और अमरीकियों के एजेंट हैं। उन्होंने कुरान मजीद के साथ सन् 1901 में छेड़छाड़ की है। वे जिसे कुरान कहते हैं वह इस्लाम की कुरान नहीं है। यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि जिस कुरान को इमाम बुखारी और कमाल फारुखी जैसे लोग असली कुरान मानते हैं तो वह कुरान जिहादी, फिदायीन व मुजाहिद्दीन क्यों पैदा करती है? अफगानिस्तान में खूनी खेल खेलने वाले तालिबान भी तो इसी कुरान की कसमें खाते हैं, उसे अपना प्रेरणास्रोत बताते हैं? यदि उनका यह आरोप सही है कि अहमदियों ने 1901 में कुरान के साथ छेड़छाड़ की थी तो इस आरोप को वे इस प्रदर्शनी के दौरान शांतिपूर्ण शास्त्रार्थ द्वारा भी तो सिद्ध कर सकते थे। ऐसा न करके उन्होंने शक्ति प्रदर्शन द्वारा प्रदर्शनी को बंद कराना क्यों आवश्यक समझा? इंडियन एक्सप्रेस (25 सितम्बर) के संवाददाताओं के अनुसार अहमद बुखारी ने थाने में बैठकर कहा, “ये मुसलमान नहीं हैं, मुसलमानों के लिबास में ये “एक्जीबिशन” कर रहे हैं, अपना “लिटरेचर डिस्ट्रीब्यूट” कर रहे हैं…भोले-भाले मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं।” यदि उनका “लिटरेचर” गुमराह करने वाला है तो इमाम साहब उसका विरोध “लिटरेचर” द्वारा ही क्यों नहीं करते? वे शास्त्रार्थ से भागते क्यों हैं? समय-समय उनका आचरण बताता है कि उनका विश्वास शास्त्रार्थ में नहीं, शक्ति प्रदर्शन में है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा अयोध्या विवाद में दिये गये निर्णय के विरोध में उन्होंने लगभग जिहाद ही छेड़ दिया था। लखनऊ में जब किसी मुस्लिम पत्रकार ने उनका प्रतिवाद करना चाहा तो उन्होंने अपने अनुयायियों से उसे खूब पिटवाया। दिल्ली के जंगपुरा मुहल्ले में जब दिल्ली विकास प्राधिकरण ने अपनी भूमि पर मस्जिद के अवैध निर्माण को हटाने की कोशिश की तो इमाम बुखारी अपनी उन्मादी भीड़ को लेकर वहां पहुंच गये, जिससे घबराकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उन्हें मनाने दौड़ी आयीं। अगस्त में उन्होंने मुसलमानों को अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से अलग रहने का फतवा जारी कर दिया और एक इंटरव्यू में साफ-साफ कहा कि जब तक अण्णा नरेन्द्र मोदी की निंदा नहीं करते मुसलमान इस आंदोलन से नहीं जुड़ेंगे।” यह तर्क की भाषा है या डंडे की? शांति और सहिष्णुता कहां है? इससे भी बुनियादी प्रश्न यह है कि अभिव्यक्ति और उपासना स्वातंत्र्य की शपथ लेने वाला हमारा लोकतंत्र इस डंडे की भाषा के सामने बार-बार आत्मसमर्पण क्यों करता है? क्या इस आत्मसमर्पण वृत्ति के कारण ही भारतीय मुसलमानों की सुन्नी बहुसंख्या कट्टरपंथी नेतृत्व का दामन नहीं पकड़े हुए है? क्यों नहीं हम मुस्लिम समाज में उदारवादी सहिष्णु नेतृत्व के उभरने का वातावरण पैदा करते? इस्लाम को उसकी असहिष्णु, हिंसक और विस्तारवादी मानसिकता से बाहर निकालने की ईमानदार कोशिश क्यों नहीं करते? लगातार दोहराया जाता है कि इस्लाम शांति और भाईचारे का संदेश लेकर आया है। यह कैसा भाईचारा है कि इस्लाम के जन्म (622 ई.) के 40 वर्ष और पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के केवल 30 वर्ष बाद सन् 661 में खलीफा के पद को लेकर कर्बला के मैदान पर जो युद्ध लड़ा गया, उसके बाद इस्लाम में शिया और सुन्नी दो भेद पैदा हुए, जो आज तक ज्यों के त्यों कायम हैं? शिया ईरान और सुन्नी सऊदी अरब आज भी प्रतिद्वंद्वी हैं। इराक के सुन्नी शासक सद्दाम ने वहां के शिया बहुमत को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया। यदि शांति का संदेशवाहक अपने घर के भीतर भी शांति और भाईचारा स्थापित नहीं कर सकता तो वह गैरमुस्लिम काफिरों और जिम्मियों के प्रति सहिष्णुता और सहअस्तित्व क्यों अपनाएगा? इस पृष्ठभूमि में अहमदिया मुस्लिम जमाते हिंद के सचिव सैयद तनवीर अहमद का यह कथन सही लगता है कि “बल प्रदर्शन के द्वारा हमारी कुरान प्रदर्शनी का बंद कराया जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। हम तो कुरान के सही संदेश के प्रति जागरूकता पैदा करने का प्रयास कर रहे थे। यह एक अच्छा अवसर था जब हर कोई स्वयं देख और जान सकता था कि कुरान का असली संदेश क्या है। हम सच्चे मुसलमान हैं। हम इस्लाम की सब बुनियादी बातों को मानते हैं। किसी को क्या अधिकार है कि वह हमें मुसलमान होने या न होने का सर्टिफिकेट दे?” तनवीर साहब का कथन विचारणीय है। अहमदियों ने कुरान के भारत और विश्व की 53 भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित किये हैं। उनका साहित्य बहुत विवेचनात्मक व तर्कपूर्ण है। उसका मुकाबला बौद्धिक धरातल पर ही होना चाहिए, न कि उन्मादी प्रदर्शन से। वस्तुत: जब तक कुरान और पैगम्बर साहब के प्रति अंध-श्रद्धा को बढ़ावा दिया जाता रहेगा और इस्लाम के इन दो अंतिम स्रोतों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि की अभिव्यक्ति को “कुफ्र” कहा जाएगा, तब तक इस्लामी जुनून फिदायीन और मुजाहिद्दीन पैदा करता रहेगा और विश्व शांति के लिए खतरा बना रहेगा।

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