तुझको चलना होगा… सतरंगी आसमान में विजया की सपनीली उड़ान
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ऐसा कौन है जिस पर मुसीबतें नहीं आतीं? जीवन है तो कदम-कदम पर चुनौतियों और मुश्किलों से दो-चार होना ही पड़ता है। समस्याओं के सामने ज्यादातर लोग तो हथियार डाल देते हैं, यह सोचकर कि “भाग्य में यही बदा है तो फिर यही सही। काट लेंगे किसी तरह ये जिंदगी”। लेकिन कुछ विरले ही होते हैं जो साहस के साथ उस मुश्किल का सामना करते हैं, जीवन को थपेड़ों में से उबार लेने का जज्बा रखते हैं और बस अपना ही नहीं, अपने जैसे दूसरों का भी संबल बनते हैं। ऐसे ही अदम्य साहस और जिजीविषा की धनी है विजया। कोलकाता के पास श्रीरामपुर (जिला हुगली) की रहने वाली विजया के सामने बिधना ने कैसी-कैसी चुनौती पेश की। मनोबल तोड़ दें, ऐसी परिस्थितियां पैदा हुईं। पर, वाह री विजया। न हार मानी, न हथियार डाले। लड़ी और ऐसी लड़ी कि घर-पड़ोस का ही सिर ऊंचा नहीं उठा, बल्कि उस जैसी चुनौतियों से जूझने वाली कितनी ही बहनों का हौसला बढ़ा। बात 1995 के आस-पास की है। बी.ए. करके एक आम लड़की की तरह विजया भी आगे पढ़ने और कैरियर बनाने के सपने बुन रही थी। पिता श्री ओमप्रकाश मिश्र भी चाहते थे कि दो बेटियों में छोटी विजया अच्छे से अच्छा कैरियर चुने, आगे बढ़े। … लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। विजया नहीं जानती थी कि रह-रहकर शरीर में उठने वाला दर्द विकराल रूप ले लेगा। हाथ-पैरों के जोड़ अकड़ने लगे थे। ढेरों दवाइयां लीं, तिलमिला देने वाले दर्द में राहत नहीं मिली। बड़े डाक्टरों को दिखाया। अंत में पता चला विजया को “रह्यूमेटॉइड आर्थराइटिस” था। शरीर के जोड़ों में गांठें बन गई थीं जो हाथ-पैरों में दर्द के साथ उन्हें अकड़ा देती थीं। चलना मुश्किल, हिलना-डुलना तक मुश्किल। विजया धक्क से रह गई। बिस्तर तक सीमित होकर मन चीत्कार कर उठा। किसी काम का उत्साह जाता रहा। निढाल सी बस बिस्तर पर लेटी रहती। हर काम के लिए किसी सहारे पर आश्रित। माता-पिता कभी-कभी फफक पड़ते उसकी ऐसी हालत देखकर। कहां-कहां नहीं दिखाया उन्होंने, पर नतीजा कुछ नहीं। दिन बीतते गए। इस दौरान एक अच्छी बात यह हुई कि विजया का मन चित्रकारी के अपने शौक की तरफ मुड़ गया। बचपन से ही वह कूची लेकर चित्र उकेरा करती थी। हाथ सधा हुआ था ही, सो बिस्तर पर लेटे-बैठे ही उसने कागज पर चित्र बनाने शुरू कर दिए। पिता ने देखा कि विजया के चित्रों में परिपक्वता की झलक थी, जो तराशने से और निखर सकती थी। इस बीच विजया ने भी मन ही मन संकल्प कर लिया था कि यूं ही बिस्तर पर पड़े-पड़े जिंदगी नहीं गंवानी है, जितना हो लड़ना है इस रोग से और कुछ ऐसा करना है कि किसी के मन में यह न आए कि विकलांगता के चलते वह बोझ बन गई है। विजया ने तैल चित्र बनाने शुरू किए। कोलकाता के जाने-माने चित्रकार श्री गौर घोष से बारीकियां सीखीं जिन्हें और निखारने के लिए बिरला कला अकादमी में तीन साल अध्ययन किया। देवास में पिता जी के अनन्य मित्र वरिष्ठ चित्रकार श्री विष्णु चिंचालकर के मार्गदर्शन में चित्र कला की गहन साधना की। विजया के चेहरे पर मुस्कान लौट रही थी, जीवन के नए मायने सामने आ रहे थे, रास्ता बन रहा था। इस बीच किसी ने उसके पिताजी को बताया कि हरिद्वार में स्वामी रामदेव के पतंजलि योग संस्थान में विजया के रोग का इलाज संभव है। वे बेटी को साथ ले हरिद्वार के लिए निकल पड़े। लेकिन भाग्य की परीक्षा बाकी थी। वह 14 सितम्बर 2006 का दिन था। पतंजलि संस्थान के रास्ते में सड़क पर ऐसी भीषण दुर्घटना हुई कि पिता को तो मामूली चोटें आईं, पर विजया के पहले से रोगग्रस्त हाथ-पैरों की हड्डियां भी टूट गईं। थोड़ी-बहुत हरकत करने की ताकत भी जाती रही। बिस्तर और पहिए लगी कुर्सी तक सीमित हो गया विजया का जीवन। लेकिन एक बार फिर बिखरे तिनकों को सहेजने में जुटी विजया। चित्रकारी फिर से शुरू की। उसने मन में लिया संकल्प और गहरा किया कि “होनी को अब जो करना है करे, हार नहीं मानूंगी, अपने पैरों पर भले कभी खड़ी न हो पाऊं पर किसी पर बोझ नहीं बनूंगी।” मन संभालकर सहेजा ही था कि देखते-देखते उसके मन को संबल देने वाली मां और हिम्मत बंधाने वाला भाई उसको हमेशा के लिए छोड़ गए, परमपिता ने उन्हें अपने पास बुला लिया। बुरी तरह टूट चुके पिता को विजया ने न केवल ढांढस बंधाया, बल्कि अपनी कला के माध्यम से नई आशाओं की राह भी दिखाई। विजया के तैल चित्रों की चर्चा कोलकाता के चित्रकला जगत में होने लगी। उसने कुदरती मंजरों के अलावा देश के राजनेताओं के व्यक्ति चित्रों से लेकर लोक संस्कृति की झलक तक कैनवास के जरिए प्रस्तुत की। रंगों की चटक और सधी रेखाओं का जादू अपना असर दिखाने लगा। विजया के चित्रों को वाह-वाही मिली, नए दोस्त बने, नए प्रशंसक मिले। अखबार और दूरदर्शन वाले साक्षात्कार को आए। शारीरिक मजबूरी के चलते भले ही ब्रश और रंगों की प्लेट को विजया उतनी मजबूती से नहीं पकड़ पाती, लेकिन जीवन में एक-एक कर आईं विपदाओं के सामने उसने मनोबल को जिस मजबूती से बनाए रखा, वह असाधारण है। आज श्रीरामपुर के अपने मोहल्ले अड्डी लेन से बाहर कोलकाता महानगर में भी विजया मिश्र चित्रकला की दुनिया में अपनी जगह बना रही है। उसका मानना है कि मुश्किलें कितनी भी आएं, पर मन में इरादा पक्का है और अपने पर भरोसा है तो फिर मंजिल खुदबखुद मिल जाती है।
शारदा मां
शारदा एक बंगाली कन्या थीं। वे एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं। शारदा जब मात्र 6 वर्ष की ही थीं तभी उनका विवाह 24 वर्षीय संत गदाधर जी से कर दिया गया। गदाधर विवाह बन्धन में बंधना नहीं चाहते थे। उन्होंने अपनी मां के कहने पर और उन्हें खुश रखने के लिए ही विवाह किया था। शारदा विवाह के बाद सात वर्ष तक अपने पिता के यहां ही रहीं। चौदहवे वर्ष में उन्होंने पति के दर्शन किए। पति घर में भी वे तपस्विनी बन कर ही रहीं। भैरवी ब्राह्मणी को, जो आदर्श पतिव्रता थीं, शारदा अपनी सास की तरह ही आदर करती थीं। उन्होंने ही शारदा को पतिव्रत धर्म सिखाया। एक बार गदाधर दक्षिणेश्वर चले गए। कुछ दिन बाद शारदा अपने गांव में मां के पास चली आईं। यहां से वे पति की याद में दु:खी हो बीमार हालत में ही दक्षिणेश्वर चली गईं। गदाधर जी ने इनकी खूब सेवा की। शारदा स्वस्थ हो गईं। इसी समय यहीं दक्षिणेश्वर में शारदा को मां काली के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। उनकी मन:स्थिति स्वस्थ हो गई। अब मानो शारदा का जीवन ही बदल गया। शारदा अब देवी बन चुकी थीं। उधर गदाधर अपनी भक्ति, साधना और आराधना से परमहंस बन चुके थे। वे रामकृष्ण के नाम से जाने-पहचाने जाने लगे। उन्होंने अपना अस्तित्व काली मां में विलीन कर दिया था। उनकी अपनी अलग सत्ता ही नहीं रह गई थी। वे मां काली के ध्यान में मां काली के सामने समाधि में लीन हो जाते और घंटों वैसे ही ध्यान मग्न बैठे रहते थे। वे मां के प्रत्यक्ष दर्शन करते तथा उनसे घंटों बात किया करते थे। एक बार की घटना है कि मां शारदा रात्रि में पथ भूल कर भटक गईं। मार्ग में उन्हें दुर्दान्त डाकू मिले। डाकुओं ने पूछा, “लड़की तू कौन है? और तू कहां जा रही है?” शारदा ने सहज भाव से उत्तर दिया, “मैं हूं, तुम्हारी बिटिया।” डाकुओं का पत्थर दिल पिघल कर मोम बन गया। “बिटिया” शब्द ने ऐसा जादू किया कि डाकुओं के सरदार ने उन्हें वास्तव में अपनी बिटिया समझ उन्हें उनके स्थान पर सुरक्षित पहुंचा दिया और साथ में ढेरों सामान, रुपया पैसा आदि भी दिया। वे बाद में भी उन्हें अपनी बेटी ही समझकर व्यवहार करते रहे। शारदा को किसी वस्तु की बरबादी या अपव्यय सहन नहीं था। उनका विश्वास था कि प्रत्येक वस्तु का अधिकतम उपयोग करना चाहिए फिर चाहे वह अपना शरीर ही क्यों न हो। उनका कथन था, वैसा न करने से लक्ष्मी रुष्ट हो जाती है। गुरु पत्नी होने पर भी वे शिष्यों के झूठे बर्तन तक स्वयं साफ कर दिया करती थीं। वे कहा करती थीं “बच्चों की सेवा करना ही मां का धर्म है।” सचमुच शारदा अब जगत मां बन चुकी थीं। छोटा-बड़ा, अपना-पराया और ऊंच-नीच की दुनिया से वे बहुत आगे बढ़ कर समता के लोक में पदार्पण कर चुकी थीं। मिस मारग्रेट नोबल अपना देश छोड़ कर, विवेकानन्द की शिष्या बन कर भारत आईं। आश्रम में आने पर आश्रमवासी उन्हें स्वीकार करने को तैयार न हुए। उन सभी ने कहा, “यदि मां इसे स्वीकार कर लेंगी तो हमें भी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। आश्चर्य! मां के पास पहुंचने पर उन्होंने उसे बड़े स्नेह से अपने पास ही आसन पर बैठाया। ऐसी थी उनकी परख, ममता और शुद्ध दृष्टि। यही मारग्रेट नोबल आगे भगिनी निवेदिता के नाम से आजीवन भारत भक्ति में जुटी रहीं। मां शारदा जब 33 वर्ष की हुईं तब सन् 1886 में श्रीराम कृष्ण परमहंस ने अपना शरीर छोड़ दिया। ब्रह्म में लीन हो गए। उनकी बीमारी में मां ने अनुपम सेवा की। उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। पति के पद-चिन्हों पर चल कर ही उन्होंने भक्तों को शिक्षा दी और जगत के कल्याण के लिए स्वयं को होम कर दिया। 21 जुलाई 1920 ई. को वह इस संसार को छोड़ चली गईं।
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