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आखिर सोनिया के दबाव में प्रणव मुखर्जी व चिदम्बरम के बीच मजबूरी का एका हो ही गया और प्रधानमंत्री के स्वदेश लौटने के बाद चिदम्बरम को बचाने की मुहिम रंग ले आई। इससे साफ हो गया है कि संप्रग सरकार और सोनिया पार्टी ने अब “भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई” का मुखौटा भी उतार दिया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़े घोटाले 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में तत्कालीन वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम की भूमिका पर सवालिया निशान लगाने वाले वित्त मंत्रालय की टिप्पणी के सार्वजनिक हो जाने के बाद यह सरकार और सोनिया पार्टी पूरी तरह खुलकर चिदम्बरम के बचाव में उतर आई। 25 मार्च, 2011 को प्रणव मुखर्जी के प्रभार वाले वित्त मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा गया यह “नोट” 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले पर तथ्य-पत्र जैसा है, जिसमें इस बाबत तत्कालीन वित्त मंत्री चिदम्बरम और दूरसंचार मंत्री राजा के बीच हुई बातों-मुलाकातों के साथ-साथ संबंधित अधिकारियों द्वारा दिये गये सुझावों और उन्हें मंत्रियों द्वारा नकार दिये जाने का विवरण है। यही तथ्य-पत्र साफ-साफ कहता है कि अगर चिदम्बरम बतौर वित्त मंत्री 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन की नीलामी के लिए अड़ जाते तो राजा वर्ष 2001 के मूल्य पर वर्ष 2008 में उसकी “पहले आओ, पहले पाओ” के आधार पर बंदरबांट नहीं कर पाते। उल्लेखनीय है कि इस बंदरबांट के जरिये देश को पौने दो लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का नुकसान होने का आकलन खुद नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी “कैग” ने किया है। “कैग” की इसी रपट के चलते तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए.राजा को हटाना पड़ा था, जिन्हें इस्तीफे से पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद “क्लीन चिट” दे रहे थे। प्रधानमंत्री की “क्लीन चिट” की कलई तब और भी खुल गयी जब राजा को जेल जाना पड़ा। दरअसल 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन की आड़ में देश के खजाने को लाखों करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ अपनों की कंपनियों को जिस तरह लाभ पहुंचाया गया, वह तो इसी धारणा की पुष्टि करता है कि यह सरकार किसी निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार की तरह नहीं, बल्कि किसी “माफिया” की तरह काम कर रही है। इसी क्रम में कलैगनर टीवी को सैकड़ों करोड़ रुपये का भुगतान 2 जी की एक लाभार्थी कंपनी ने किया। कलैगनर टीवी में द्रमुक प्रमुख करुणानिधि की पत्नी और पुत्री की भी हिस्सेदारी है। नतीजतन करुणानिधि की सांसद पुत्री कनिमोझी भी राजा की तरह तिहाड़ जेल में हैं। राजा से पहले द्रमुक के ही दयानिधि मारन दूरसंचार मंत्री थे। परिस्थितिजन्य साक्ष्य बताते हैं कि दरअसल 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन की बिसात तो मारन ही बिछा गये थे, राजा ने तो बस उस बंदरबांट को अंजाम दिया। मारन ने “जी मोबाइल सर्विस” के लाइसेंस बांटते समय लाभार्थियों का जमकर दोहन किया। खुद सरकारी जांच एजेंसी सीबीआई को इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि “एयरसेल” का लाइसेंस लटकाकर मारन ने उसके मालिक सी.शिवशंकरन को एक मलेशियाई कंपनी “मैज्सिस” को 70 फीसदी हिस्सेदारी बेचने को मजबूर किया। “मैज्सिस” ने बदले में मारन परिवार की कंपनियों को लाभ पहुंचाया। परिणामस्वरूप मनमोहन सिंह के दूसरे प्रधानमंत्रित्वकाल में कपड़ा मंत्री बनाये गये दयानिधि मारन को भी इस्तीफा देना पड़ा और सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई के रुख से लगता है कि वह भी जल्दी ही तिहाड़ जेल में राजा और कनिमोझी के पड़ोसी बन सकते हैं। दरअसल जो कुछ हो रहा है वह सरकार के न चाहते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में हो रहा है। इसके बावजूद मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस है कि अपनी भूमिका पर शर्मिंदा होने के बजाय इसे “भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता” का प्रमाण बताते हुए अपनी पीठ खुद थपथपाने से बाज नहीं आती, लेकिन चिदम्बरम की भूमिका पर वित्त मंत्रालय के “नोट” से यह मुखौटा भी उतर गया है। यह कोई गोपनीय रहस्य नहीं है कि वर्ष 2004 और फिर 2009 में मनमोहन सिंह सरकार बनने पर संप्रग के घटक दलों ने अपनी-अपनी पसंद के मंत्रालय लिये थे। जाहिर है, इस पसंद का आधार न तो उन मंत्रालयों की विशेषता था और न ही उनका कायाकल्प करने का संकल्प। एकमात्र आधार उनका मलाईदार होना ही था। इसलिए संप्रग सरकार के गठन के वक्त से ही यह स्पष्ट था कि वह मिल-बांटकर लूटने के साझा कार्यक्रम पर बनी है। फिर भी जिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की “ईमानदारी” का ढोल पिछले सात सालों से लगातार पीटा जा रहा है, उनसे यह अपेक्षा अनुचित तो नहीं कही जा सकती कि वह लूट के साझा कार्यक्रम के आधार पर बनी अपनी सरकार के संदेहास्पद मंत्रियों की कारगुजारियों पर खासतौर से नजर रखते। आखिर वह तो हैं ही अर्थशास्त्री। उनकी इसी छवि के सहारे कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग को वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में एक और कार्यकाल के लिए जनादेश मिल गया। पर वह छवि दरअसल एक मुखौटा थी, यह एक के बाद एक उजागर हो रहे घोटालों से साबित हो जाता है। पिछले साल संसद के शीतकालीन सत्र के समय विपक्ष के तेवरों और सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में राजा से इस्तीफा लेने के बावजूद मनमोहन सिंह खुद को अनभिज्ञ ही दिखाने की कोशिश करते रहे, हालांकि भारत के संविधान के मुताबिक मंत्रिमंडल सामूहिक दायित्व के सिद्धांत के तहत काम करता है। फिर प्रधानमंत्री तो उसके मुखिया हैं, वह अपनी सरकार की कारगुजारियों के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही से खुद को कैसे मुक्त कर सकते हैं? यही नहीं, अपने मंत्रियों के कारनामों पर मनमोहन सिंह ने “गठबंधन धर्म” की आड़ भी लेनी चाही, पर अपनी ही सरकार के वित्त मंत्रालय के “नोट” में चिदम्बरम को भी 2 जी स्पेक्ट्रम की बंदरबांट के लिए जिम्मेदार ठहराये जाने के बाद उनके सारे तर्क और मुखौटे एक एक कर धराशायी हो गये हैं। नतीजतन चोरी और सीनाजोरी के अंदाज में मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस अब उल्टे विपक्ष पर ही अंगुली उठा रहे हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाने के बाद अब सरकार और कांग्रेस, दोनों ने असल मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए विपक्ष पर आरोप मढ़ दिया है कि वह सरकार गिराकर मध्यावधि चुनाव के मंसूबे बना रहा है और राजनीतिक अस्थिरता फैलाना चाहता है। हालांकि वित्त मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह “नोट” 25 मार्च 2011 को ही भेज दिया था, लेकिन मनमोहन सिंह सब कुछ जानते हुए भी अनजान होने का अभिनय करते रहे। दरअसल जिस तरह 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन की जांच करने वाली संसद की लोक लेखा समिति यानी पीएसी और संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी तक से वह “नोट” छिपाया गया, उससे तो यह साबित हो गया है कि सबको सब कुछ पता था और भ्रष्टाचार के विरुद्ध शून्य सहनशीलता (जीरो टॉलरेंस) का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े घोटाले पर पर्दा डालने में लगी रहीं। 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन के नाम पर हुई लूट पर पर्दा डालने की चौतरफा कोशिशों के बावजूद चिदम्बरम की भूमिका को बेनकाब करने वाला वित्त मंत्रालय का “नोट” सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के क्रम में उस वक्त सार्वजनिक हुआ, जब प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के अधिवेशन में भाग लेने अमरीका गये थे। दिलचस्प बात यह है कि भारत-अमरीकी निवेशक फोरम की बैठक आदि के सिलसिले में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी भी अमरीका में ही थे। इस “नोट” के सार्वजनिक होने से जैसे ही ईमानदारी का मुखौटा उतरा और सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों में झगड़े की सुर्खियां समाचार माध्यमों में छायीं, दोनों अपना-अपना अंतरराष्ट्रीय एजेंडा भूल सरकार की साख बचाने की कवायद में जुट गये। कुछ दिन पहले ही अज्ञात बीमारी का आपरेशन करवा कर अमरीका से लौटीं सोनिया भी सक्रिय हो गयीं। प्रधानमंत्री की स्वदेश वापसी से पहले ही उन्होंने चिदम्बरम और मुखर्जी को तलब किया। अगले दिन लौटे मनमोहन ने भी चिदम्बरम से लंबी बात की। फिर सोनिया ने अपने सिपहसालारों के साथ मुखर्जी को तलब किया। इस पूरी कवायद से ऐसा आभास देने का उपक्रम किया गया कि सरकार और कांग्रेस, भ्रष्टाचार पर बेहद गंभीर हैं, लेकिन असल में यह सरकार बचाने की कवायद ज्यादा थी। जो बात शुरू से कही जा रही है कि पौने दो लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा के घोटाले के असली खिलाड़ी राजा नहीं हैं। तब इशारा चेन्नै में बैठे “महाराजा” की ओर लग रहा था, पर चिदम्बरम की भूमिका बेनकाब होने के बाद तो लगता है कि उनसे भी बड़े खिलाड़ी शामिल हैं लूट के इस खेल में, जिन्हें पता है कि मामला सिर्फ चिदम्बरम पर ही नहीं रुक जाएगा। चिदम्बरम के बाद प्रधानमंत्री सामने आ जाएंगे और उनके बाद…? इसीलिए चिदम्बरम के विरुद्ध कार्रवाई से मुंह चुरा कर कहा जा रहा है कि विवादास्पद “नोट” दरअसल वित्त मंत्रालय के एक कनिष्ठ अधिकारी ने तैयार किया, उसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। हालांकि मुखर्जी से “नोट” पर 28 सितम्बर को सफाईनुमा पत्र तो इस उम्मीद में लिखवाया गया कि विवाद शांत करने में मदद मिलेगी, पर उससे तो उल्टे यह पुष्टि ही हो गयी है कि चार मंत्रालयों और केबिनेट सचिवालय की राय से तैयार किया गया वह “नोट” दरअसल बेहद अहम है और खुद प्रधानमंत्री को भी उसकी जानकारी थी। इसके बाद भी सरकार और कांग्रेस, लीपापोती में ही लगा है, जिसका नजारा 29 सितम्बर की शाम को प्रधानमंत्री से मिलकर बाहर आए चिदम्बरम और मुखर्जी ने पत्रकारों से बात करने के नाम पर दिखा दिया। पहले तो चिदम्बरम पत्रकारों के सामने मुखर्जी के साथ संयुक्त वक्तव्य देने पर राजी नहीं थे, पर शायद आलाकमान के इशारे पर मन मसोसकर तैयार हुए। कैमरों ने चिदम्बरम के भीतर की अकुलाहट चेहरे के माध्यम से सबको दिखाई थी। मुखर्जी ने पहले से तैयार “सफाई” पढ़ डाली। चिदम्बरम भी कहते सुने गए कि इसके साथ मामला यहीं खत्म होता है। लेकिन राजा, कलमाड़ी आदि मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के रुख से लगता है कि उन्हें इसमें कामयाबी शायद ही मिले। बेशक सरकार और कांग्रेस के शुतुरमुर्गी रवैये से चिदम्बरम के विरुद्ध सीबीआई जांच और कार्रवाई की आस अब सर्वोच्च न्यायालय पर ही टिक गयी है, जो सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई कर रहा है। लेकिन ईमानदारी का मुखौटा तो उतर ही गया है।
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