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गोपालगढ़ से महबूबा मुफ्ती तक

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Sep 28, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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मंथन

दिंनाक: 28 Sep 2011 19:14:10

देवेन्द्र स्वरूप

 इस 14 सितम्बर (बुधवार) को सोनिया पार्टी द्वारा शासित राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ नामक कस्बे में 9 मुस्लिम मेवों की मौत ने सोनिया पार्टी की वोट बैंक राजनीति में भारी उबाल ला दिया है। मुस्लिम नेताओं का आरोप है कि उनकी मौत पुलिस की गोलीबारी से हुई। पुलिस ने गोपालगढ़ की बड़ी मस्जिद में घुसकर अशर की नमाज में भाग ले रहे मुसलमानों पर ताबड़तोड़ गोलियां चलायीं, जिनके निशान मस्जिद की दीवारों और दरवाजों पर अभी भी मौजूद हैं। उनका यह भी कहना है कि पुलिस की शह पर गुर्जर हिन्दुओं ने मस्जिद में घुसकर मेवों पर धारदार हथियारों से हमला किया, उन पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी, और अपने पाप को छिपाने के लिए जली हुई लाशों को मस्जिद के पीछे कुएं में फेंक दिया, या उन्हें आग के ढेर में जला दिया- ऐसी अफवाहों के आधार पर राजस्थान की मुस्लिम संस्थाओं के साझा मंच व्मुस्लिम फोरमव् का आरोप है कि मृतकों की संख्या 9 नहीं, बहुत अधिक है, कम से कम पन्द्रह है, व्मुस्लिम फोरमव् की शिकायत है कि जबसे सोनिया पार्टी की सरकार राजस्थान में आयी है तब से (पिछले दो साल में) जालेसर, सारदा, मनोहरथाना और महेशपुरा आदि अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं, जिनमें मुस्लिम समाज को ही जान-माल की हानि उठानी पड़ी है। गुस्साए मुस्लिम नेतृत्व ने चेतावनी दी है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों के एकमुश्त समर्थन का अगर यही बदला दिया जाना है तो अब सोनिया पार्टी मुसलमानों के समर्थन की उम्मीद न करे।

 सोनिया पार्टी की घबराहट

 इस धमकी से सोनिया गांधी के होश उड़ना स्वाभाविक है। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पार्टी केन्द्रित नहीं, वंश केन्द्रित है। उसका एकमात्र लक्ष्य व्युवराजव् राहुल का प्रधानमंत्री पद पर अभिषेक कराना है और उसके लिए पूरे देश में 18 प्रतिशत मुस्लिम और 5 प्रतिशत चर्च नियंत्रित ईसाई वोट बैंक को अपने समर्थन में एकजुट करना है। इसके लिए अगर राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों और भाजपा की सरकारें चलती रहें, पर केन्द्र में मुस्लिम-ईसाई गठबंधन उनके पीछे खड़ा रहे तो वे अपनी रणनीति को सफल मानेंगी। इसके लिए वे किसी भी गैरसोनिया दल द्वारा शासित राज्य में किसी भी छोटी-सी साम्प्रदायिक घटना पर अपने आंसू बहाना आवश्यक समझती हैं-चाहे वह बिहार में फारबिसगंज हो या उत्तरप्रदेश में बरेली। पर, राजस्थान ने तो सब गुड़गोबर कर दिया। अगर गोपालगढ़ की घटना को लेकर मुस्लिम नेतृत्व नाराज हो गया तो अगले वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सोनिया पार्टी की लुटिया डूब जाएगी, विशेषकर उत्तर प्रदेश में तो सोनिया पार्टी की चुनाव रणनीति पूरी तरह ढह जाएगी। इसलिए वहां मायावती, मुलायम सिंह और सोनिया पार्टी- तीनों ही मुस्लिम कार्ड खेलने में जुट गए हैं। मायावती ने केन्द्र को चिट्ठी लिखकर मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठायी है तो सोनिया की केन्द्र सरकार ने पूरे भारत के मुसलमानों को आरक्षण देने का इरादा जाहिर कर दिया है।

 पर, गोपालगढ़ के चक्र से कैसे बाहर निकलें। अपनी वंशवादी रणनीति के तहत सोनिया ने सार्वजनिक रूप से राजस्थान सरकार और मुख्यमंत्री गहलोत पर गोपालगढ़ कांड की पूरी जिम्मेदारी डालकर अपने मुस्लिम वोट बैंक को बचाने की कोशिश की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सावधानी के तौर पर पहले ही जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के साथ भरतपुर के जिलाधिकारी कृष्णकमल और पुलिस अधीक्षक सिंगलाजदास का स्थानांतरण करके वहां नये चेहरे भेज दिये। मृतकों के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने और परिवार को समुचित मुआवजा देने की घोषणा की। गृहमंत्री शांति धारीवाल ने राज्य के मुख्य सचिव एस.अहमद से पत्रकार वार्ता में घोषणा करायी कि गोपालगढ़ में पुलिस ने मस्जिद के भीतर भीड़ पर गोली चलायी ही नहीं, केवल हवाई फायर किये थे। पुलिस के वहां पहुंचने के पहले ही गुर्जरों और मेवों के बीच गोलीबारी शुरू हो चुकी थी। मारे गये लोगों के शरीर में से छर्रे निकले हैं जो पुलिस की गोलियों में नहीं होते। पुलिस का यह भी दावा है कि अगर पुलिस उस समय उपद्रव स्थल पर नहीं पहुंचती तो दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी में 100-150 लोग मारे जाते।

 गोपालगढ़ की घटना

 इसके जवाब में मुस्लिम नेतृत्व का कहना है कि अगर दो पक्षों के बीच गोलीबारी हुई तो केवल मुसलमान ही क्यों मारे गए? एक भी गुर्जर क्यों नहीं मरा, 21 घायलों में 4 गुर्जरों को छोड़कर शेष सब मेव मुसलमान ही क्यों हैं? मुस्लिम नेतृत्व पूरे कांड को केवल 14 सितम्बर के अपरान्ह में मस्जिद के भीतर पुलिस के प्रवेश और 9 मृतकों पर केन्द्रित कर रहा है, उसके पहले के घटनाक्रम पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा है। इसके लिए दैनिक हिन्दू में 19 सितम्बर और इंडियन एक्सप्रेस में 22 सितम्बर को प्रकाशित रपटों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार गोपालगढ़ में उपद्रव की शुरुआत एक दिन पहले मंगलवार को ही हो गयी थी। गोपालगढ़ की बड़ी मस्जिद के इमाम मौलवी अब्दुल रशीद ने खुद को पीटे जाने की खबर फैला दी थी। 5000 की जनसंख्या वाले गोपालगढ़ में गुर्जरों का भारी बहुमत है। वहां के सरपंच शेर सिंह भी गुर्जर रहे और मेवों के सिर्फ 100 घर हैं। लेकिन गोपालगढ़ के चारों ओर 40 गांवों में मुसलमान मेवों का बहुमत है और मौलवी अब्दुल रशीद के आह्वान पर 14 तारीख की सुबह से ही गोपालगढ़ के इन 40 गांवों के मेवों का जमावड़ा आरंभ हो गया था। 5000 से अधिक मेव गोपालगढ़ में इकट्ठा हो गये थे, उधर गुर्जरों ने भी आत्मरक्षार्थ महा पंचायत बुलायी। अत: 14 की प्रात: से ही तनाव का वातावरण पैदा हो गया। उस समय मेव पक्ष भारी रहा। उन्होंने गोपालगढ़ में गुर्जरों के मकानों और दुकानों पर हमला करके उन्हें तोड़ा, आग लगाई, पिछले एक हफ्ते के समाचार पत्रों में इस ध्वंसलीला का वर्णन किसी कोने में दबा मिल जाएगा। इस तनाव के वातावरण में जिला प्रशासन व पुलिस अधिकारियों ने दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों की एक बैठक मस्जिद से 50 मीटर दूर स्थित गोपालगढ़ थाने में बुलायी। कम्मार क्षेत्र की कांग्रेसी विधायक जाहिदा खान और नगर क्षेत्र की भाजपा विधायक अनिता सिंह गुर्जर ने भी समस्या का हल खोजने का प्रयास किया। जब थाने में यह बैठक चल रही थी तभी शोर मचा कि मस्जिद में गोली चल गयी है जिसमें गुर्जर मारे गये हैं। तब तक प्रशासन इस घटना का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। इसलिए वह पीछे गया और उसने दंगा निरोधक दस्ते को उसके बख्तरबंद वाहन वज्र के साथ बुलाया।

यहां प्रश्न खड़ा होता है कि गुर्जर और मेव समुदायों के बीच झगड़े की जड़ क्या है। झगड़े की जड़ है मस्जिद के पीछे एक छह बीघा जमीन का टुकड़ा, जो एक तालाब के किनारे स्थित है। गुर्जर समाज का कहना है कि परम्परा से यह जमीन तालाब का हिस्सा है और हिन्दुओं के धार्मिक उपयोग के लिए है, किन्तु 42 साल पहले पता नहीं कैसे किसी पटवारी ने अपने खाते में जमीन के इस टुकड़े को कब्रागाह दिखला दिया। तभी से यह विवाद चला आ रहा है। कुछ महीने पहले पूरी जांच-पड़ताल के बाद राजस्व विभाग ने पटवारी की भूल को सुधारकर इस भूखंड को तालाब के साथ जोड़ दिया, जिसके विरोध में मौलवी अब्दुल रशीद न केवल न्यायालय में चले गए, बल्कि उन्होंने उस जमीन पर अपना कब्जा दिखाने के लिए निर्माण कार्य भी आरंभ करा दिया। उनकी इसी जल्दबाजी ने तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी। जो विवाद आपस में बैठकर हल किया जा सकता था, वह इतना भयंकर रूप धारण कर गया।

 राष्ट्रवादी सोच का मोल नहीं

 सोनिया पार्टी में शबनम हाशमी जैसे उसके सिपहसालार इस स्थिति को संघ परिवार की साजिश का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। पता नहीं क्यों उनका विश्वास है कि संघ का नाम जोड़ने मात्र से कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व उनके साथ आ जाएगा। इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि जो लोग संघ परिवार पर मुस्लिम विरोधी छवि लादने में दिन-रात जुटे रहते हैं वही लोग साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के सबसे बड़े शत्रु हैं। वस्तुत: हिन्दू- मुस्लिम विग्रह में उन्होंने अपना निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। विभाजन के बाद जिन मुसलमानों ने खंडित भारत में रहने का निर्णय किया, उन्हें द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से बाहर निकालकर राष्ट्रीय धारा में समरस करने की दिशा में उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया, उलटे उनमें मजहबी कट्टरवाद का जहर घोलने और उन्हें पृथकतावाद के रास्ते पर धकेलने में ही अपनी वोट बैंक राजनीति की सफलता दिखी। उन्होंने मुस्लिम समाज में उदार राष्ट्रवादी नेतृत्व को उभरने ही नहीं दिया। ऐसे मुस्लिम नेता विभाजन के समय से ही हाशिये पर खड़े रहे। चाहे वे मुहम्मद करीम छागला हों, एम.एच.ए.बेग हों, सिकंदर बख्त हों या आज आरिफ मुहम्मद खान, नजमा हेपतुल्ला, आरिफ बेग, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, प्रो.इम्तियाज अहमद जैसे बुद्धिजीवी हों।

 संघ परिवार ने इस दिशा में जो रचनात्मक प्रयास किये, उनकी या तो उन्होंने उपेक्षा की या उनको विकृत रूप में प्रस्तुत किया। संघ की प्रेरणा से गठित राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने जो राष्ट्रवादी साहित्य रचा है, राष्ट्रभक्ति के नारे व गीत रचे हैं, प्रखर राष्ट्रीय भाव व एकता को सुदृढ़ करने वाले कार्यक्रम किये हैं, प्रदर्शन किये हैं, उन्हें ये छद्म सेकुलरवादी अपनी नफरत की राजनीति में बाधा समझते हैं। अत: ऐसे राष्ट्रभक्त मुस्लिम कार्यकत्र्ताओं को वे हिन्दुओं या संघ की कठपुतली कह देते हैं। यही आरोप मि.जिन्ना मौलाना आजाद पर लगाया करते थे। संघ की प्रारंभ से ही यह मान्यता रही है कि भारतीय मुसलमानों की रगों में उनके हिन्दू पूर्वजों का ही रक्त बह रहा है। परिस्थिति के दबाव में उनके किसी पूर्वज ने किसी समय इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाया होगा, पर पूर्वज तो नहीं बदले थे। इस्लामी कट्टरवादी सोच का प्रयास रहा है कि मतान्तरित लोग अपने इस्लाम पूर्व के इतिहास से संबंध विच्छेद कर लें और उसे व्जाहिलिया या अंधकारयुग के रूप में देखें।

 पूर्वज तो हिन्दू ही हैं

 राष्ट्रीय समाज की रचना के लिए जहां देशभक्ति का अधिष्ठान आवश्यक है वहीं समान ऐतिहासिक विरासत में गर्व की भावना भी आवश्यक है। संघ यह भी मानता है कि भारतीय मुसलमानों को मध्यकालीन विदेशी आक्रमणकारियों की ध्वंसलीला के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए पाप के उस बोझ को वे अपने सिर पर क्यों ढोयें? यदि इस्लामी उपासना पद्धति से उनकी आध्यात्मिक भूख तृप्त होती है तो वे पूरी श्रद्धा के साथ उसका पालन करते हुए भी अपने देश की समान ऐतिहासिक परम्परा को गर्वपूर्वक शिरोधार्य करें। यही बात जवाहरलाल नेहरू ने 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने रखी थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी दिशा में कार्य कर रहा है। उसकी सहमति से 1951 में जन्मे राजनीतिक दल ने भारतीय जनसंघ नाम धारण किया, अपने सदस्यता के द्वार प्रत्येक जाति, भाषा, पंथ और क्षेत्र के नागरिकों के लिए खोले। इस समय भी संघ की प्रेरणा से एक और मूलगामी प्रयास हो रहा है। राजस्थान में संघ के कार्यकत्र्ता मुस्लिम समाज में जाकर उन्हें उनके मूल गोत्रों को खोजने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। एक कार्यकत्र्ता का अनुभव इस दृष्टि से स्पंदित करने वाला है। उन्होंने भरतपुर जिले के ही मुस्लिम युवकों की एक बैठक में पूछा कि क्या आपमें किसी को अपने हिन्दू गोत्र का पता है? तो उसे आश्चर्य हुआ कि उस बैठक में आठ युवकों ने खड़े होकर अपना मूल गोत्र तो बताया ही, यह भी बताया कि उनका कौन-सा पूर्वज कब इस्लाम में दीक्षित हुआ था। थोड़ा और प्रयास करने पर इन कार्यकत्र्ता को पता चला कि राजस्थान में भाटों का एक वर्ग है जिसके पास इन मतान्तरितों के वंश वृक्ष अभी भी सुरक्षित हैं। उन्होंने हिन्दू गुर्जरों और मुस्लिम गुर्जरों का सामूहिक मिलन आयोजित किया और पाया कि समान गोत्र के कारण उपासना पद्धति की भिन्नता होने पर भी उनके बीच भ्रातृत्व का भाव जाग्रत हुआ, किंतु वोट बैंक की नफरती राजनीति करने वालों को राष्ट्रीय एकता के ऐसे रचनात्मक जमीनी प्रयास शत्रु नजर आते हैं।

 मोदी से नफरत का अपप्रचार

कट्टरवाद और पृथकतावाद की राजनीति में उनका कितना गहरा स्वार्थ पैदा हो गया है इसका ताजा उदाहरण गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के सद्भावना मिशन और उपवास के विरुद्ध अपप्रचार और षड्यंत्री राजनीति में मिल जाता है। मोदी के सद्भावना उपवास को फीका करने के लिए संघ और भाजपा की पाठशाला में पढ़कर सोनिया पार्टी में गये शंकर सिंह वाघेला ने दुर्भावना उपवास का नाटक रचा। नरेन्द्र मोदी के उपवास स्थल पर मुस्लिम नेताओं व समाज की भारी उपस्थिति से घबराकर मोदी विरोधी अभियान की सूत्रधार मल्लिका साराभाई और एडवोकेट मुकुल सिन्हा ने अहमदाबाद में नरोडा पाटिया में मुस्लिम प्रदर्शन का स्वांग रचा। मल्लिका साराभाई ने अपने वकीलों को नरेन्द्र मोदी के द्वारा दस लाख रुपये की रिश्वत देने का आरोप लगाया और इसके प्रमाण स्वरूप मोदी विरोधी पूर्व आईजी श्रीकुमार और संजीव भट्ट के हलफनामों का उल्लेख किया। किन्तु श्रीकुमार ने अपने हलफनामे की बात को झूठ बताया और वकीलों ने वक्तव्य दे दिया कि उन्हें कभी कोई रिश्वत नहीं दी गयी। उपवास स्थल पर मुसलमानों की भारी उपस्थिति के बारे में अपप्रचार किया गया कि उन्हें सरकारी तंत्र गाड़ियों में भरकर लाया था। यहां तक कहा गया कि वे सब हिन्दू ही थे जिन्हें मुसलमानों की टोपी पहना दी गई थी। नरेन्द्र मोदी की मुस्लिम विरोधी छवि को जिंदा रखने के लिए दूर दराज के किसी अनजाने इमाम की दी टोपी को न पहनने का खूब प्रचार किया गया कि इस टोपी को न पहनने से स्पष्ट है कि मोदी अब भी मुस्लिम विरोधी हैं।

 ये लोग नारा विकास का लगाते हैं पर राजनीति सम्प्रदायवाद की या अल्पसंख्यकवाद की करते हैं। यह तब स्पष्ट हो गया जब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने 10 सितम्बर को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में 138 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कश्मीर की पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के उस अनुभव को सुना दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उनके एक उद्योगपति मुस्लिम मित्र ने नरेन्द्र मोदी से मिलने का समय लिया और संबंधित अधिकारियों की उपस्थिति में चर्चा करके आधे घंटे में उनके प्रस्ताव को स्वीकृति मिल गई। इस अनुभव को सुनकर महबूबा ने कहा कि मोदी के गुजरात में विकास कार्य में हिन्दू-मुस्लिम भेद नहीं रखा जाता। टेलीविजन चैनलों और अखबारों में इस भाषण के प्रचारित होते ही महबूबा मुफ्ती को जम्मू-कश्मीर में अपनी पृथकतावादी राजनीति खतरे में दिखाई देने लगी। वहां के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस अनुभव को महबूबा के विरुद्ध राजनीतिक हथियार बना लिया। जिससे तिलमिलाकर महबूबा ने उमर और उनके पिता फारुख अब्दुल्ला पर गुजरात के दंगों के समय मौन रहने और मोदी का समर्थन करने का आरोप लगा डाला। महबूबा ने सुषमा स्वराज पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए कहा कि राष्ट्रीय एकता परिषद में मैंने ऐसा कोई भाषण दिया ही नहीं। उन्होंने सरकार से परिषद की बैठक में उनके मूल भाषण को प्रकाशित करने का अनुरोध किया। इसके पीछे शायद उनका यह विश्वास होगा कि यह भाषण जितना महबूबा की पृथकतावादी राजनीति के विरुद्ध जाता है उतना ही सोनिया सरकार की वोट बैंक राजनीति के लिए घातक होगा। किन्तु मनमोहन मंत्रिमंडल के एक सदस्य ई.अहमद ने, जो स्वयं भी परिषद् की उस बैठक में उपस्थित थे, पुष्टि की है कि महबूबा ने अपने एक उद्योगपति मित्र के अनुभव के आधार पर नरेन्द्र मोदी की असाम्प्रदायिकता की प्रशंसा की थी। शायद मीडिया पर हावी नरेन्द्र मोदी विरोधी मानसिकता ही कारण होगी कि अहमद का यह कथन केवल मेल टुडे (22 सितम्बर) में छपा है, किसी दैनिक या खबरिया चैनल ने उसका जिक्र तक नहीं किया। वोट बैंक राजनीति में राजनेताओं का स्वार्थ तो समझ आता है, पर मीडिया का इसमें क्या लाभ हो सकता है, समझ नहीं आता।

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