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सुनील आंबेकर
गत कुछ महीनों से भारत के लोग विशेषकर छात्र-युवा अपनी नागरिक जिम्मेदारी को लगातार निभाते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवश्यक संघर्ष को सफलतापूर्वक आगे बढ़ा रहे हैं।
मुझे याद है कि गत दिसम्बर (2010) में बंगलूरु में विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में देशभर के लगभग सभी जिलों के विभिन्न परिसरों से छात्र आये थे। वे खुलकर कह रहे थे कि सभी परिसरों में भ्रष्टाचार की घटनाओं को लेकर काफी गुस्सा है। सभी ने कहा उनके शहरों एवं गांवों में लोग अब भ्रष्टाचार से केवल व्यथित होने की जगह इसे मिटाने हेतु कुछ करना चाहते हैं। मैं आपातकाल के कुछ आंदोलनकारियों से मिला। उन्होंने भी कहा यह गुस्से की लहर आपातकाल के पूर्व चली लहर से भी अधिक तीव्र है। वैसे भ्रष्टाचार से लोग तंग तो काफी समय से थे। परंतु राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श घोटाला जैसे घोटालों से लोगों का आक्रोश सतह पर आ गया। इन घोटालों को दबाने का प्रयास प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार ने बेशर्मी से किया। इससे लोगों का गुस्सा कई गुना बढ़ गया।, तब से ही सामान्य लोगों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन की मशाल अपने हाथ में ले ली है।
विपक्ष द्वारा संसद में उठाई गयी आवाज व उच्चतम न्यायालय के कड़े रवैये के परिणामस्वरूप लगातार भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसना प्रारंभ हो गया। उसके पश्चात ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी तथा कई अन्य का तिहाड़ जेल पहुंचना प्रारंभ हो गया। प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष सहभाग से मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में हुई भ्रष्टाचारी की नियुक्ति तथा भ्रष्ट तरीके से हुआ एस-बैण्ड सौदा अंतत: रद्द कर दिया गया। इन घटनाओं ने आम आदमी का यह विश्वास बढ़ा दिया कि भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसना संभव है। सितंबर 2010 में राष्ट्रमण्डल खेलों की अव्यवस्था को उजागर करने से लेकर सामान्यत: समाचार माध्यमों ने भ्रष्टाचार के प्रकरणों को जनता में उजागर करने का काफी ठोस कार्य लगातार जारी रखा है। यह भी आंदोलन को आगे बढ़ाने में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ।
दबाव में सरकार
परिणामस्वरूप जनवरी 2011 से लगातार सभी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में जनता का सहभाग बढ़ने लगा। विद्यार्थी परिषद के फरवरी में हुए देशव्यापी अनशन या संसद मार्च (04 मार्च) को छात्रों ने काफी समर्थन दिया। विद्यार्थी परिषद ने पहले ही कहा है कि इस भ्रष्टाचार के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री एवं सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं। बाद में बाबा रामदेव ने विदेशी बैंकों में सड़ रहे भारतीयों के कालेधन को वापस लाने का मुद्दा उठाया। उनके समर्थन में बढ़ते जनसहभाग से सरकार काफी दबाव में आयी। दूसरी तरफ अण्णा हजारे द्वारा उठाये गये जनलोकपाल के मुद्दे पर भारी जन समर्थन उमड़ने लगा। लोगों को यह विश्वास हो गया कि कड़े लोकपाल कानून से भ्रष्टाचारियों को सजा मिलेगी तथा रोजमरर्#ा के जीवन में काफी हद तक भ्रष्टाचार से छुटकारा मिलेगा। लेकिन प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी सहित पूरी सरकार ईमानदारी से बेईमानों की अपनी फौज को बचाने हेतु सभी तरह के हथकंडे अपनाने पर अभी भी उतारू है। अप्रैल में हुए अण्णा हजारे के अनशन के पश्चात लोकपाल हेतु संयुक्त ड्राफ्ट समिति बनायी गयी। परंतु निष्कर्ष कुछ निकल नहीं पाया। बाबा रामदेव ने 4 जून से कालेधन पर रामलीला मैदान में अनशन प्रारंभ किया, लेकिन सरकार ने पुलिस द्वारा उसे तानाशाहों की तरह कुचलने का घिनौना प्रयास किया। इस पृष्ठभूमि में जब दुबारा अण्णा हजारे जन लोकपाल कानून को लेकर अनशन पर बैठने निकले तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। परंतु लोगों ने पुराने अनुभवों को देखते हुए सरकार की चाल को नाकाम करने का निश्चय कर लिया व लोग स्वत: सड़कों पर निकले। परिणामस्वरूप दबाव बढ़ता गया। अब स्थायी समिति में सरकारी लोकपाल के साथ जन लोकपाल सहित सभी सुझावों पर विचार करने का निश्चय सभी दलों द्वारा संसद में व्यक्त होने के पश्चात ही उनका अनशन टूटा। पूरे देश में उत्साह की लहर उठी। हजारों लोगों के सतत् तेरह दिन देशव्यापी सक्रिय सहभाग के कारण श्री अण्णा हजारे का रामलीला मैदान का यह अनशन (16-28 अगस्त) ऐतिहासिक बन गया।
वस्तुनिष्ठ विश्लेषण
अब इसका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सभी आंदोलनकारी संस्थाएं, सामान्य जनता, सरकार, मीडिया एवं बुद्धिजीवियों सभी के लिए नितांत आवश्यक है।
आजादी का आंदोलन काफी व्यापक एवं लंबा था। उसमें देश की स्वतंत्रता जैसी मूलभूत भावना जुड़ी थी एवं स्वयं महात्मा गांधी उसका नेतृत्व कर रहे थे। परंतु स्वतंत्र भारत में वे अपेक्षित व्यवस्थाओं को लागू करने की स्थिति में नहीं थे। यही बात आपातकाल के पश्चात जेपी जैसे व्यक्तित्व के साथ अनुभव में आयी। इसलिए अब यह मान लेना स्वप्नदर्शिता होगी कि जल्द ही सब कुछ बदल जायेगा। यह बदलना संभव होगा जन आंदोलनों से ही, लेकिन पुराने अनुभवों से कुछ सबक लेकर।
जैसे आजकल कुछ लोग भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की तुलना अरब देशों में हुई क्रांति से करते हैं। लेकिन उन देशों में 25-30 वर्षों से चल रही तानाशाही से मुकाबला था, जहां लोगों के सारे लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त होकर, उन्हें दमन तथा बंदूकों का सामना करना पड़ रहा था। वहां की कुंठाएं हमसे अलग थीं, जरूरतें भी अलग, उपाय भी अलग थे।
हमें अपने लोकतंत्र को, कानूनों को जन दबावों से ठीक रास्ते पर लाना है। इसलिए लोगों में जागृति, फिर उनकी सतर्कता एवं सक्रियता और उस आधार पर खड़ा जन-आंदोलन हमारी आवश्यकता है। बीते दिनों के आंदोलन एवं लगभग एक वर्ष से संसद में तथा मीडिया में चल रही बहस यह सभी अपेक्षित परिवर्तन के वाहक बने हैं।
भ्रष्टाचार का मायावी रूप
भ्रष्टाचार के कई स्वरूप हैं तथा वह कई मायावी रूपों में हर जगह फैला है। इसलिए सक्षम लोकपाल महत्वपूर्ण होने पर भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई कई मोर्चों पर लड़नी पड़ेगी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) तथा उसकी पहल पर गठित यूथ अगेंस्ट करप्शन (भ्रष्टाचार के विरुद्ध युवा) ने 14 मुद्दों का (पहले 13 मुद्दे थे) जनादेश ही तैयार किया है। महत्वपूर्ण मुद्दा है काला धन। विदेशी बैंकों में कई लाख करोड़ रुपए भारतीयों के गुप्त खातों में जमा है, तो दूसरी तरफ देश में भी लगभग 13 अरब रुपये बैंकों में 10 वर्ष से लावारिस पड़े हैं। फिर बड़ी-बड़ी कम्पनियों, सरकारी अफसरों एवं राजनेताओं के बीच घूम रहा कालाधन भी विशालकाय है। यह सब इस देश के आम लोगों के विकास हेतु वसूल करना भी राष्ट्रीय कर्तव्य है तथा इस लड़ाई का महत्वपूर्ण हिस्सा है। चुनाव सुधारों को 2014 के आम चुनावों के पहले लागू कराना होगा। सामान्य व्यक्ति का पुलिस, न्यायालय, शैक्षिक संस्थान, अस्पताल तथा किसी भी सरकारी कार्यालय से जब भी संबंध आता है, उसे भारी भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है। उसे इस झंझट से छुटकारा देने हेतु इस तंत्र में कई सुधार तथा आधुनिकीकरण आवश्यक है। यह व्यवस्था परिवर्तन हमारी भारत की आत्मा एवं आवश्यकता के अनुरूप करने हेतु जन दबाव समय की मांग है।
प्रस्तुत जनलोकपाल में भी कुछ बातें जरूर विचारणीय हैं। जैसे सक्षम लोकपाल में प्रधानमंत्री शामिल हो, लेकिन उन्हें मुक्त रूप से सकारात्मक कार्य करने हेतु उनके पर्याप्त अधिकारों की रक्षा भी हो। वैसे ही न्याय व्यवस्था को इस कानून के दायरे से बाहर ही रखा जाए ताकि उसकी स्वतंत्रता बनी रहे। अर्थात उसे भ्रष्टाचार मुक्त रखने हेतु स्वतंत्र कठोर कानून जरूरी है। जनलोकपाल में गैर सरकारी संगठनों, सरकारी अनुदान लेने वाली संस्थाओं तथा निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार को भी मुक्त रखा गया है। यह सरासर गलत होगा। आजकल भ्रष्टाचार से सरकारी तंत्र की कई नीतियां प्रभावित करने का कार्य इन दोनों द्वारा भारी मात्रा में हो रहा है। इस हेतु निजी क्षेत्र (कापोर्रेट कंपनियां) एवं वे गैर सरकारी संगठन, जो सरकारी अनुदान अथवा विदेशों से दान लेते है, उन्हें भी इस दायरें में शामिल करते हुए घूस संबंधी कानून में भी संशोधन किया जाए।
वैचारिक छुआछूत त्यागो
भ्रष्टाचार की व्यापकता एवं भयावहता देखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को व्यापक मुद्दों पर चलाते हुए भ्रष्टाचारियों को चारों तरफ से घेरना पड़ेगा। इसलिए आंदोलन के सभी नेताओं एवं संगठनों को व्यापक एवं खुला दृष्टिकोण रखना होगा। सबसे पहली बात आंदोलन तभी प्रभावी होगा जब इसमें समाज के हर वर्ग के लोगों की भागीदारी होगी। इसलिए वैचारिक छुआछूत को छोड़कर चलना होगा। जनता अण्णा हजारे, बाबा रामदेव या विद्यार्थी परिषद तथा यूथ अंगेस्ट करप्शन जैसे सभी को एक साथ देखना चाहती है। दूसरी बात यह कि सभी राजनेताओं को आरोपित करना आजकल फैशन बन गया है, या हम किसी के विरुद्ध नहीं हैं यह दूसरा फैशन है। लेकिन अगर सत्तारूढ़ दल में चोर है, तो उसे चोर कहना पड़ेगा। आंदोलन से विपक्षी दलों का भी शुद्धिकरण होगा लेकिन उन्हें नकार कर हम भ्रष्ट सत्ता को ही मदद करेंगे। यह भी ध्यान में रखना होगा।
केन्द्र स्तर का भ्रष्टाचार भी अंतत: हमारे सामान्य लोगों के जीवन में काफी प्रभाव डालता है, यह हमें समझना होगा तथा आन्दोलन के नेताओं को भी सामान्य लोगों के रोजमरर्#ा के भ्रष्टाचार के संकट को समझना होगा। इसलिए भविष्य में यह आंदोलन दोनों स्तर पर बराबरी से चलाना होगा।
महात्मा गांधी ने 1909 में इंडिया हाउस में विजयादशमी के उत्सव में कहा था कि भारत में श्रीराम, सीता, भरत, लक्ष्मण की उदात्त प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति उत्पन्न हो जाएं तो देश पुन: समृद्ध होगा एवं उसे सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त होगी। आज भी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना साकार करने हेतु अपने व्यक्तित्व को हमें उपरोक्त अपेक्षानुसार ढालना होगा। द
(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री है)
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