साहित्यकी
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शिवओम अम्बर
सितम्बर का महीना साहित्यिक परिवेश में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाड़े के आयोजनों के नाम रहता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सबसे बड़ा मजाक उस दिन लगा जब अखबारों में हिन्दी दिवस के आयोजन में किसी साहित्यकार को राष्ट्रपति महोदया की उपस्थिति में पुरस्कृत करते उन गृहमंत्री चिदम्बरम जी का चित्र प्रकाशित हुआ जो न हिन्दी जानते हैं, न जानना चाहते हैं। इस बार एक और नई चर्चा ने भी ध्यान आकर्षित किया। कुछ साहित्यकारों ने विविध पत्रिकाओं में हिन्दी को लिपि के संदर्भ में उदारभाव अपनाने की नसीहत दी तो कुछ ने उसमें अंग्रेजी के अत्यधिक मिश्रण को भी युग की जरूरत बताने में संकोच नहीं किया। हिन्दी भाषी प्रदेशों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में इधर गुणात्मक वृद्धि हुई है और हिन्दी दिवस तथा हिन्दी सप्ताह भावात्मक ऊर्जा के सोपानों में नहीं अपितु खोखले कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों में बदलते जा रहे हैं। ऐसा महसूस होता है कि हिन्दी स्वयं हमसे कह रही है-
बहुत बेकल हूं घबराई हुई हूं,
कि मैं अपनों से ठुकराई हुई हूं।
पड़ी हूं कशमकश में किससे पूछूं,
मैं जिंदा हूं कि दफनाई हुई हूं।
जिसे देखो ठिठोली कर रहा है,
कबीले भर की भौजाई हुई हूं।
हुई हूं जिस घड़ी से राजभाषा,
मैं सूने घर की शहनाई हुई हूं।
हिन्दी का राजभाषा बनना उसकी सहज प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ है।
हिन्दी के महारथी
सितम्बर के महीने के साथ हिन्दी के कुछ बहुत बड़े नाम अनायास अनुस्यूत हैं, यह देख-सुनकर अच्छा लगता है। इस महीने की प्रारंभिक तिथि हिन्दी गजल में नवयुग के पुरोधा दुष्यंत कुमार की जन्मतिथि है। दुष्यंत की अग्निधर्मा गजलों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है किंतु व्साये में धूपव् कुछ ऐसी भावतरल पंक्तियों को भी हमारे समक्ष लाती है जो उनकी सर्वमान्य आक्रोश-मुद्रा से परे उनकी एक अलग छवि प्रस्तुत करती हैं। अपने एक शेर में दुष्यंत अपने प्रेमास्पद को ऋतम्भरा की संज्ञा प्रदान करते हैं। यह गजल के आज तक के इतिहास में किसी प्रणयी के द्वारा अपने प्रेमपात्र को दिया गया अनूठा सम्बोधन है-
तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतम्भरा,
अब शाम हो गई है मगर मन नहीं भरा।
अगर एक दीर्घकालीन दाम्पत्य जीवन की रागारुण आत्मीयता का कलात्मक अंकन इन पंक्तियों में हम अनुभव कर सकें तो चित्त को अद्भुत आनंद की सहज उपलब्धि हो जाये। यौवन की उषा वेला में जो सहधर्मिणी हमारी दृष्टि आकृष्ट करती है वह जीवन की अस्ताचल वेला में भी उतनी ही मोहक बनी रहे-ऐसी पवित्र कामना कौन नहीं करेगा? किंतु ऐसा हो तभी हो सकता है जब हमें कवि की वह दृष्टि प्राप्त हो जाये जो किसी देह में देह से पार की ज्योति को देख लेती है, उसे ऋतम्भरा कह पाती है। वस्तुत: ऋतम्भरा वह प्रज्ञा है जो परम तत्व की धारणा में समर्थ है। यही वह सुंदरता है जो कभी पुरानी नहीं पड़ती क्योंकि इसमें पार्थिव मत्र्य भाव नहीं, अमृत दिव्यता होती है। सितम्बर के प्रारंभ में दुष्यंत का स्मरण हमें अग्नि से भी जोड़ता है, अमृत से भी।
9 सितम्बर को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के उद्गाता कविवर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जन्मतिथि है। व्निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूलव् यह बीजमंत्र देने वाले भारतेन्दु यदि आज के भारतवर्ष की परकीय भाषा के प्रति दीवानगी को देखते तो शायद स्वयं को भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर लेटा महसूस करते। 11 सितम्बर महीयसी महादेवी की पुण्यतिथि है, जो राजनीति के द्वारा हिन्दी के प्रति किये गये छल से आजीवन पीड़ित रहीं। उनका कहना था कि श्रीराम तो चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या वापस आ गये थे किंतु जिस कुटिलता के साथ हिन्दी को निर्वासित किया गया है उससे उसके लौट पाने की संभावना बहुत कम है। गीत की शक्तिमत्ता के प्रति उनकी आस्था अविचल रही। अपनी अंतिम कृति व्अग्निरेखाव् में उन्होंने युवा पीढ़ी का प्रभंजनों की राह पर चलने का आह्वान किया है, अंगारों का स्वागत करने को कहा है किंतु इस सबके साथ यह भी गाया है कि सहज मानवीय संवेदना का सम्पोषक गीत अंधेरी राह का एकमात्र सहयात्री सिद्ध होता है-
स्वर के शत बिम्बों ने एक पल अनंत किया
सातों आकाशों के शून्य को वसंत दिया
मृत्यु ने इसे न छुआ
काल ने इसे न छला
राह थी अंधेरी पर गीत संग-संग चला।
शून्य में वसंत की अवतारणा कर देने की गीत की शक्ति समस्त भारतीय चेतना की सांस्कृतिक शक्ति है। इसी शक्ति के सहारे उसने बर्बर विदेशी आक्रमणों से आहत होने पर भी अपने आत्मभाव की दीप्ति को मंद नहीं पड़ने दिया। इसी शक्ति ने उसे सदैव आश्वस्त और विश्वस्त रखा है-
दिया वो आंधियों से है मुखातिब,
उसे खुद पे बहुत विश्वास होगा।
सितम्बर के अंतिम सप्ताह में 23 तारीख को राष्ट्रकवि दिनकर का जन्म हुआ था। कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा तथा हुंकार के कवि दिनकर उर्वशी जैसे अद्भुत ग्रंथ के प्रणेता भी हैं जो कामाध्यात्म की कलात्मक व्यंजना है। उनका गद्य लेखन भी चिंतन के अभिनव क्षितिजों का उद्घाटन करने वाला है। अपनी व्स्मरणांजलिव् में उन्होंने हिन्दी की अस्मिता के संघर्ष में एकाकी पड़ जाने वाले राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के संदर्भ में चित्रण करते हुए लिखा है-सांस्कृतिक कारणों से गांधी जी का टंडन जी से मतभेद हुआ और हिन्दी साहित्य सम्मेलन से वे अलग हो गये। सांस्कृतिक कारणों से ही जवाहरलाल जी टंडन जी के विरुद्ध हो गये और टंडन जी को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से अलग हो जाना पड़ा। और जिन कारणों से टंडन जी का गांधी जी और जवाहरलाल जी से मतभेद हुआ, उन्हीं कारणों से मौलाना आजाद भी टंडन जी को नापसंद करते थे।
दिनकर जी को हमेशा यह तथ्य पीड़ा देता रहा कि जहां अन्य देशों का समग्र समाज अपनी भाषा के साहित्यकार के प्रति सौहार्द का अनुभव करता है और उसकी संरक्षा में सचेष्ट रहता है वहीं, इस देश के अभिजनवर्ग में उसके प्रति भयावह उदासीनता है। इसी पुस्तक के एक उद्धरण के साथ इस प्रकरण को विराम देता हूं-
विश्वविद्यालयों से जो सबसे अच्छे लोग निकलते हैं, वे सरकारों में लगते हैं, विश्वविद्यालयों में लगते हैं, व्यापार और कारखानों में लगते हैं। वे आज के सबसे सचेष्ट नागरिक हैं, समाज के सबसे चेतन जीव हैं। लेकिन इन लोगों का विश्वास अपनी भाषाओं में नहीं है, न वे अपनी भाषाओं के लेखकों और कवियों का आदर करते हैं। मन-ही-मन वे अपने को समाज से ऊपर समझते हैं। उन्हें भ्रम हो गया है कि जो चीजें अंग्रेजी में नहीं छपतीं, वे उनके पढ़ने योग्य नहीं हैं। उनकी मान्यता यह भी दीखती है कि सबसे अच्छे आदमी वे हैं जो अंग्रेजी में काम करते हैं। पता नहीं, यह बीमारी कब दूर होगी?
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