बाल मन
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शिवकुमार गोयल
दक्षिण भारत के परम विरक्त व ज्ञानी संत तिरुवल्लुवर उपदेशों के माध्यम से प्रतिदिन लोगों को मांस-मदिरा, बेईमानी व अन्य दुव्र्यसनों का त्याग करके अपना जीवन सरल व सात्विक बनाने की प्रेरणा दिया करते थे। समय-समय पर अनेक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति उनके पास पहुंचकर उनके निराकरण का उपाय पूछा करते थे। एक दिन एक धनाढ्य व्यक्ति संत जी के पास पहुंचा। उसने कहा- व्महाराज, मैंने कड़ा परिश्रम करके असीमित धन कमाया। कंजूसी में जीवन बिताया। किन्तु मेरा इकलौता पुत्र कुसंग में पड़कर दुव्र्यसनी बन गया है। वह मेरे द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को व्यसनों में उड़ा रहा है। टोकता हूं- तो आंखें दिखाता है।
संत तिरुवल्लुवर ने पूछा- व्तुम केवल धन संचय में लगे रहे या कुछ समय कभी पुत्र को संस्कारित करने में भी लगाया। क्या कभी अपने द्वारा अजिर्त धन के कुछ अंश का धर्म, सेवा-परोपकार के कार्यों पर खर्च किया।व्
सेठ ने रोते हुए कहा-व्मैं अन्धा होकर धनार्जन में लगा रहा। कंजूसी करके कौड़ी-कौड़ी जोड़ता रहा। यह सत्य है कि न कभी पुत्र को संस्कारित करने की सोची, न किसी की सेवा में कुछ खर्च किया।व् संत जी ने शास्त्र का प्रमाण देते हुए कहा- व्सबसे बड़ा धन तो अच्छे संस्कार होते हैं। तुम्हारे पुत्र को संस्कार नहीं मिले- कुसंगियों का साथ मिला। अब वह स्वाभाविक रूप से दुव्र्यसनों में प्रवृत्त हो गया है। दूसरी बात यह है कि वही धन लक्ष्मी का रूप धारण करता है जिसका उपभोग परोपकार व सेवा में होता है। धर्मशास्त्रों की दोनों बातों की अवज्ञा के कारण तुम्हारे धन व संतान की यह दशा हो रही है।व्ये शब्द सुनकर सेठ पश्चाताप करने लगा।
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