साहित्यकी
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आज भी कुछ रचनाकार कविता के माध्यम से न केवल प्राचीन मिथकीय कृतियों को पुनर्सृजित कर रहे हैं बल्कि उन्हें आज के संदर्भों और प्रश्नों की कसौटी पर मूल्यांकित करने का साहसिक कार्य भी कर रहे हैं। उद्भ्रांत ऐसे ही एक वरिष्ठ और गंभीर रचनाकार हैं। व्त्रेताव् और व्रुद्रावतारव् जैसे प्रसिद्ध महाकाव्य और खंडकाव्य को रचने के बाद कुछ समय पूर्व उनका एक और महाकाव्य व्अभिनव पांडवव् प्रकाशित होकर आया है। यह महाकाव्य जहां एक ओर महाभारत के धर्मनायक युधिष्ठिर की भूमिका और उनके चरित्र को नए रूप में गढ़ता है वहीं वर्तमान दौर के सवालों से भी उनकी मुठभेड़ कराता है।
मूल महाभारत कथा का भंजन करते हुए कवि ने कथानायक को उसकी दुर्बलताओं से मुक्त कराते हुए एक नया आयाम उजागर किया है। इसमें युधिष्ठिर धर्मराज होने से पहले स्वयं को एक साधारण मनुष्य के रूप में देखते हैं। उन्हें अतीत में घटित उचित-अनुचित घटनाएं याद आती हैं और कहीं न कहीं उन सबके लिए स्वयं को दोषी भी मानते हैं। सात सर्गों में विभाजित इस महाकाव्य के अंतिम दो सर्ग कवि ने नए स्वरूप में लिखे हैं। इसमें धर्मराज और चित्रगुप्त के तीखे सवाल युधिष्ठिर को पूरी तरह अनुत्तरित कर देते हैं। यहीं पर इस महाकाव्य की कथा आज के संदर्भों से जुड़ जाती है। उन सभी अन्यायपूर्ण और अधार्मिक कृत्यों के प्रति युधिष्ठिर के मन में जन्मने वाला प्रायश्चित का भाव एक नई कथा का प्रस्थानबिन्दु बन जाता है। कह सकते हैं कि यह महाकाव्य दरअसल आज के संदर्भों में मिथकीय कथा का मूल्यांकन करने की मांग करता है। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि समय कोई भी हो, मनुष्य से जुड़े सवालों का स्वरूप भले ही बदल गया हो, लेकिन उनके मूल में उपस्थित तत्व चिर पुरातन है।द
पुस्तक – अभिनव पांडव (महाकाव्य)
रचनाकार – उद्भ्रांत
प्रकाशक – नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
2/35 अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली-2
सम्पर्क- (011)23254407
मूल्य -300 रुपए, पृष्ठ -170
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