सम्पादकीय
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जें तोमारे तुच्छ करे, से आमारे मात: कि दिबे सम्मान
मां! तुम्हें जो तुच्छ समझता है वह हमें कौन-सा सम्मान दे देगा?
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अब यह स्पष्ट हो गया है कि संप्रग सरकार महंगाई को बेलगाम करके आम जनता का दम निकालने पर तुली हुई है। एक बार फिर पेट्रोल की कीमतों में 3.14 रु. प्रति लीटर की वृद्धि करके उसने मंशा साफ कर दी है। इस सरकार के राज में पिछले 27 माह में ही 17वीं बार पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। गत जनवरी से लेकर इन साढ़े आठ महीनों में ही 8.47 रु.बढ़ाए जा चुके हैं। जबकि आंकड़े बताते हैं कि पेट्रोल मूल्य में करीब दुगुना तो टैक्स ही वसूला जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि पेट्रोलियम कंपनियां घाटे का झूठा रोना रोती हैं और सरकार उन्हें मालामाल रखने के लिए जनता की जेब पर डाका डालती है। अधिकांश कंपनियां तो सार्वजनिक क्षेत्र की ही हैं, फिर सरकार उनका घाटा (यदि है तो) भरने के लिए अपनी जेब ढीली क्यों नहीं करती जो पेट्रोल की मूल कीमत में करीब दुगुना कर लगाकर जनता के धन से भरी जाती है? यह जानकर आश्चर्य होता है कि 33.93 रु.पेट्रोल मूल्य पर करीब 30 रु.कर लिया जाता है, फिर घाटा किस बात का? सरकार ने पेट्रोल मूल्य को नियंत्रण मुक्त करके पेट्रोलियम कंपनियों के रहमोकरम पर जनता को छोड़ दिया है, यह उसकी संवेदनहीनता को ही दर्शाता है।
वस्तुत: महंगाई की मार केवल पेट्रोल पर ही नहीं है, अभी रसोई गैस की कीमतों में भी मूल्य वृद्धि की सिफारिश की गई है। इस तरह एक और तलवार आम आदमी की रसोई पर लटकी है जो कभी भी उस पर आघात कर सकती है। बताया जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय मुद्रा रुपये की विनिमय दर में गिरावट और डालर की दर में वृद्धि होने से यह मूल्य वृद्धि आवश्यक हो गई थी। लेकिन यह तर्क सैद्धांतिक हो सकता है, व्यावहारिक दृष्टि से तो इस सरकार के शासन में जनता महंगाई की असह्र मार झेल रही है। सरकार कहती है कि भारत बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर विश्व क्षितिज पर उभर रहा है, इसके विपरीत भारत की मुद्रा की ऐसी दुर्दशा कि उसकी कमजोरी के कारण देश की जनता को महंगाई की मार झेलनी पड़े! यह कैसा विरोधाभास है? पेट्रोल को ही लें तो इस सरकार के सत्ता में आते समय पेट्रोल की कीमत 43 रु. प्रति लीटर के करीब थी, जो 7 सालों में बढ़कर 66 रु.से ज्यादा हो गई है। खाद्य पदार्थों की कीमतें तो जानलेवा साबित हो रही हैं। तेल, घी, चावल, चीनी, गेहूं, दूध, सब्जियां आदि आवश्यक वस्तुएं लगातार आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं।
महंगाई दर 2 अंकों के करीब है। आम आदमी का जीना मुहाल है। राजधानी दिल्ली में बिजली की लगातार बढ़ रही कीमत से हाहाकार मचा है। आखिर इस सरकार की जनता के प्रति कोई जवाबदेही है कि नहीं? इसने बाजारी शक्तियों को जनता को लूटने की खुली छूट दे दी है। उदार अर्थनीति का क्या अर्थ लगाया जाए कि आर्थिक रूप से आम जनता तो लुटती-पिटती रहे और बाजार निर्बाध मुनाफा कमाता रहे। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को क्या जनता की आवाज नहीं सुननी चाहिए और उसके समाधान के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए? जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है तो बेबस जनता अपनी ताकत दिखाकर ऐसी सरकार को उलट भी देती है। जनता के प्रति संवेदनहीन बनी संप्रग सरकार को यह ध्यान में रखना चाहिए।
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