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सन् 1985 में कांग्रेस के नेता व तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, असम गण परिषद् के नेता व असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ था, जिसे व्असम करारव् के नाम से जाना जाता है। इसी करार के तहत वहां आई.एम.डी.टी. (इल्लीगल माइग्रेंट्स डिटरमिनेशन वाई ट्रिब्यूनल) एक्ट लागू है। इस कानून के कारण असम में किसी विदेशी, खासकर बंगलादेशी के पकड़े जाने पर उसके खिलाफ किसी भारतीय को इस मामले के लिए गठित ट्रिब्यूनल (पंचाट) में मामला दर्ज कराना होता है, उसके विदेशी होने का साक्ष्य देना होता है, तब तक उस विदेशी को पूरी हिफाजत से सरकार रखती है, खिलाती-पिलाती है, उसके विदेशी सिद्ध हो जाने पर ही उसे वापस उसके देश भेजने के निर्देश दिए जाते हैं तथा उसे पुलिस को सौंप दिया जाता है, पुलिस उसे सीमा सुरक्षा बल को सौंपती है, तब कहीं जाकर उसे सीमा पार धकेला जाता है। इस लम्बी प्रक्रिया के कारण ही स्थिति यह है कि विभिन्न पंचाटों के सामने 2 लाख 79 हजार 518 मामले लम्बित हैं।
इन विवादास्पद नागरिकता वाले लोगों को चिन्हित करने के लिए मतदाता सूची में उनके नाम के आगे व्डीव् अंकित किया गया है। गत विधानसभा चुनावों से पहले निर्देश दिए गए थे कि इन्हें मतदान में हिस्सा न लेने दिया जाए, पर कांग्रेस ने अत्यधिक सक्रियता दिखाकर इन मतदाताओं का मतदान सुनिश्चित कराया। 1985 में करार करने के बाद बीते 25 वर्षों में से 15 वर्ष यानी तीन बार तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही है और अब आगामी 5 वर्ष के लिए भी कांग्रेस की ही सरकार है, उधर इस करार पर हस्ताक्षर करने वाले (स्व.) राजीव गांधी की ही कांग्रेस केन्द्र में भी सत्तारूढ़ है, पर उनके द्वारा किए गए करार पर अमल कोई नहीं करना चाहता।
हालात यह हैं कि 31 मार्च, 2011 तक कुल 1 लाख 62 हजार 773 मामलों का निस्तारण किया गया, जबकि उससे कहीं अधिक लम्बित हैं। कुल मिलाकर 32 पंचाट बनाए गए हैं, 4 हाल ही में गठित हुए हैं, पर कहीं कर्मचारी नहीं हैं तो कहीं न्यायाधीश ही नहीं हैं। कुल मिलाकर 4-5 पंचाट ही ठीक से काम कर पा रहे हैं। पंचाट के न्यायाधीशों की नियुक्ति असम उच्च न्यायालय द्वारा की जाती है, पर राज्य सरकार इसके लिए प्रयास ही नहीं करती। वैसे भी 30-35 या 40 वर्ष से असम में रह रहे पूर्वी पाकिस्तानियों या बंगलादेशियों को विदेशी सिद्ध कर पाना आसान नहीं होता। ये लोग राशन कार्ड, वोटर कार्ड तो बनवा ही चुके हैं, 1971 से पूर्व किसी भी भारतीय से अपने रक्त संबंध का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना भी कठिन नहीं होता। इस मामले में बंगलादेशी मुसलमान विस्थापित हिन्दुओं से कहीं अधिक तेज हैं। इसका उदाहरण है कमालुद्दीन, जिसने असम आकर न केवल विवाह कर लिया बल्कि उससे उत्पन्न पुत्री का भी एक भारतीय मुसलमान से विवाह किया, जमीन खरीदी, फिर 1996 में जमुनामुख से विधानसभा का चुनाव भी लड़ा, बाद में पता चला कि वह बंगलादेशी है, तो न्यायालय के आदेश के बाद सीमा सुरक्षा बल ने उसे सीमा पार धकेला।
उल्लेखनीय है कि पूरे देश में व्फारेनर्स एक्टव् लागू है जबकि असम में आई.एम.डी.टी. एक्ट लागू है। सन् 2003 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए आई.एम.डी.टी. एक्ट को निष्प्रभावी कर दिया था, पर राज्य सरकार उसी ढर्रे पर चल रही है। उस एक्ट के तहत दर्ज मामलों पर सुनवाई ही नहीं हो रही है और बंगलादेशी बड़े मजे से असम में रह रहे हैं और सारी सुविधाएं भोग रहे हैं।
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