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विदेशी विश्वविद्यालयों का मोह छोड़भारतीय उच्च शिक्षा को बेहतर बनाए सरकार

by
Sep 24, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Sep 2011 15:54:04

डा. प्रमोद पाठक

शिक्षा के क्षेत्र में हर सरकार अपनी नीतियों के अनुसार कुछ अलग करने का प्रयास करती है। दरअसल इसके पीछे सत्ता और शिक्षा के बीच छुपा द्वंद्व मुख्य कारण होता है। शिक्षा समाज को बेहतर बनाने का माध्यम कही जा सकती है। जबकि आज की सत्ता समाज पर राज करने को ही अपना कर्तव्य समझती है। स्वाभाविक है कि दोनों में टकराव की संभावना छुपी है। आज के संदर्भ में देखें तो कमोबेश वही सब दिख रहा है। सरकार भारतीय उच्च शिक्षा में बदलाव लाने के कई कदम उठा रही है, क्योंकि उसकी नजर में परंपरागत भारतीय उच्च शिक्षा वैश्विक बाजार की स्पर्धा के अनुरूप नहीं है, इसे और बेहतर बनाने की जरूरत है। इसके लिए दलीलें दी गर्इं कि दुनिया के श्रेष्ठ उच्च शिक्षा संस्थानों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षण संस्थान का नाम नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक, जिसे कुछ समय पहले पारित किया गया है, के साथ ही भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र में एक नया और अजीब सा आयाम जोड़ दिया गया।

उक्त विधेयक के पीछे सरकारी मान्यता यह थी कि यह कदम एक मील का पत्थर साबित होगा, यह भारतीय विद्यार्थियों को चयन के अधिक अवसर देगा, स्पद्र्धा बढ़ाएगा और शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाकर उसे उत्कृष्टता प्रदान करेगा। यह तो हुई सरकार की दलील।

स्पद्र्धा की दलील

अब तथ्य पर भी गौर करें। दुनिया का पहला विश्वविद्यालय 700 ईसा पूर्व में तक्षशिला में स्थापित हुआ था, जिसमें दुनिया भर से करीब दस हजार से ज्यादा छात्र साठ से अधिक विषयों का अध्ययन करते थे। यानी पहला सही मायनों में वैश्विक अध्ययन का उच्च केन्द्र भारत में ही था आज से करीब 2800 वर्ष पूर्व। इसी तरह ईसा पूर्व चार में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी जिसमें चीन, जापान, कोरिया, तुर्किस्तान, फारस एवं इंडोनेशिया जैसे देशों से आए छात्र पढ़ते थे। यह विडम्बना ही है कि आज देश में उस स्तर का एक भी शिक्षण केन्द्र नहीं है। इसमें संदेह नहीं है कि तक्षशिला और नालन्दा राजकीय प्रयासों से स्थापित हुए थे न कि (आज की भारत सरकार के रवैए को देखते हुए) 'खुले बाजार' की स्पद्र्धा के कारण। दरअसल यह स्पद्र्धा और उत्कृष्टता की दलील पूरी तस्वीर को स्पष्ट नहीं करती। विश्वस्तरीय न सही, भारत में कुछ अच्छे उच्च शिक्षण संस्थान तो अवश्य ही हैं जिन्हें बाहर के देशों में सम्मान से देखा जाता है। अगर ऐसे कुछ संस्थानों का नाम लें तो उनमें भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, भारतीय विज्ञान संस्थान, दिल्ली व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे उच्च शिक्षण संस्थान शामिल हैं। ये संस्थान भी तत्कालीन सरकारों की नीतियों के तहत स्थापित हुए थे न कि वैश्विक स्पद्र्धा के कारण। स्पष्ट है कि शिक्षण केन्द्रों की उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए किसी सरकार की नीतियां ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं। ऐसे में शिक्षा को परम्परागत उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ना और उसे एक उपभोक्ता वस्तु की तरह मानना किसी दृष्टि से सही नहीं है।

विदेशी मोह त्यागें

क्या विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं भारत में स्थापित होने से भारतीय उच्च शिक्षण केन्द्रों की उत्कृष्टता बढ़ जायेगी? शायद नहीं, बल्कि नतीजा इस के विपरीत होगा। हमारे अच्छे विद्यार्थी और शिक्षण व शोध से जुड़े शोधार्थी उस ओर आकृष्ट होकर भारतीय शिक्षण संस्थानों को और भी नुकसान पहुंचाएंगे। वैसे भी इस सरकार की नीतियों के तहत भारत की नई पीढ़ी में बड़ी तादाद में पाश्चात्य तौर-तरीकों के प्रति एक अस्वाभाविक आकर्षण पैदा हुआ है जो उनकी तार्किक शक्ति को कुंद कर देता है। इस सच्चाई के आलोक में यह आशा रखना थोड़ा भ्रामक होगा कि विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रति हम तटस्थ भाव से मूल्यांकन करेंगे। कुछ और तथ्यों पर भी विचार किया जाना जरूरी है। जैसे, आज भी हमारे देश में उच्च शिक्षा के योग्य आबादी का पन्द्रह फीसदी ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाता है। अत: कालेजों और विश्वविद्यालयों की आवश्यकता तो है, लेकिन उनमें ऐसी शिक्षा दी जाए जो सस्ती और सुलभ हो। जो लोग उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो उनके पीछे मुख्य कारण उनके आर्थिक-सामाजिक पहलू होते हैं। उनका हित विदेशी विश्वविद्यालयों से नहीं सधेगा। जरूरत है अधिकाधिक भारतीय उच्च शिक्षा केन्द्रों की जो भारतीय सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखकर लोगों की आवश्यकता पूरी कर सकें। शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविकता को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा।

शिक्षा सुलभ हो

भारत के जन-मन को समझने की जरूरत है। जरूरत है सस्ती और उत्कृष्ट शिक्षा की न कि विदेशी तर्ज की शिक्षा की। अमरीकी आदर्श के पीछे भागना नासमझी ही नहीं, अपनी नई पीढ़ी को उसकी जड़ों से दूर करना भी होगा। भारत में आज उच्च शिक्षा आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है, क्योंकि कुछ अमरीकापरस्त नीति निर्धारक उच्च शिक्षा को महंगा करने की बेमानी सलाह दे रहे हैं। उनका मापदण्ड है अमरीकी शिक्षा बाजार। ऐसी सलाह साजिश ज्यादा मालूम देती है। आज कितने ही मध्यम वर्गीय घरों के बच्चे महंगी हो रही उच्च शिक्षा की परिधि से बाहर होते जा रहे हैं। साल में लाखों रु. की फीस देना साधारण स्तर के परिवारों के वश में नहीं होता। किन्तु भारत के अमरीकापरस्त सलाहकार या अमरीकी हितों के पोषक वर्ग के कहने में आकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेवजह के बदलाव लाना या उसे 'दुर्लभ' बनाना भारत के हित में नहीं होगा। भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले विद्यार्थियों की मांग विदेशों में अन्य देशों के विद्यार्थियों से कहीं ज्यादा है। यदि हमारी शिक्षा बहुत महंगी कर दी गई या विदेशी विश्वविद्यालय हमारे यहां अपना अधिपत्य जमा लेंगे तो हम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख गंवा बैठेंगे। संप्रग सरकार को यह सोचना चाहिए कि कैसे भारतीय उच्च शिक्षा का सम्मान बढ़े ताकि हमारे विश्वविद्यालय तक्षशिला या नालन्दा जैसी गरिमा प्राप्त कर सकें। कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अपने विश्वविद्यालयों को विदेशों में वही गौरव दिलाएं और वहां के छात्र हमारे संस्थानों की ओर आकर्षित हों। इस बात को मनमोहन सरकार और इसके मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जितनी जल्दी समझ लेंगे उतना ही अच्छा होगा।

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