महबूबा के मायने
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महबूबा के मायने

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Sep 24, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Sep 2011 15:57:14

एक हैं महबूबा मुफ्ती। जम्मू-कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा उन मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी हैं, जिन्हें 1989 में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 'अल्पसंख्यकों का मसीहा' बनने के फेर में देश का पहला 'अल्पसंख्यक' गृह मंत्री बनाया था। बतौर गृहमंत्री उन्होंने देश के लिए क्या किया, यह तो गहन शोध और खोज का विषय है, लेकिन उनकी एक कारगुजारी की मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं मिल पाएगी। उनकी बेटी रुबैया सईद का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया। रिहाई की एवज में आतंकियों ने अपने कुछ दुर्दांत आतंकवादी साथियों को छुड़ाने की मांग रखी और देश के गृह मंत्री ने देश के बारे में एकबारगी भी सोचे बिना उनकी मांग के आगे सिर झुका दिया। कहना नहीं होगा कि जब जनता दल सत्ता से रपट कर सड़क पर आ गयी तो जनाब मुफ्ती मोहम्मद सईद फिर से कांग्रेसी हो गए। उन्होंने एक बार फिर कांग्रेस को दगा दी और अपनी अलग पार्टी पीडीपी बना ली। पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों की भाषा बोलते हुए विधानसभा चुनाव में कुछ सीटें जीतने में सफल हो गए तो फिर मुख्यमंत्री बनने के लिए उसी कांग्रेस से हाथ भी मिला लिया। खुद को 'स्वाधीनता संग्राम की सेनापति' बताने वाली कांग्रेस ने भी अलगावादियों और आतंकवादियों के हमदर्द को गठबंधन सरकार का मुख्यमंत्री बनाने में कोई संकोच नहीं किया। पर जब दोबारा चुनाव हुए तो जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं ने पीडीपी को उसकी जगह दिखा दी। कहना नहीं होगा कि पीडीपी और मुफ्ती परिवार, जो असल में एक-दूसरे का पर्याय ही हैं, अपने दोमुंहे चरित्र के लिए ही जाने जाते हैं। राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक को लेकर उठे विवाद के मूल में भी दरअसल उनका यही दोमुंहापन है। तीन साल बाद हुई इस बैठक में महबूबा ने न सिर्फ गुजरात के विकास को लेकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की, बल्कि एक कश्मीरी मुसलमान की मदद करने संबंधी उदाहरण भी दिया। लेकिन जब सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मोदी उपवास पर बैठे और वहां विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने नेकनीयती से महबूबा के कथन का जिक्र कर दिया तो वह बिफर उठीं। महबूबा अपने ही उस कथन से मुकर गयीं, जो बैठक में मौजूद लगभग सौ लोगों ने सुना था और रिकार्ड में भी दर्ज है। आखिर उन्हें अपने मददगार अलगाववादियों और आतंकवादियों के बिदकने का डर जो है। जाहिर है, अपने-अपने राजनीतिक लाभ के लिए समय-समय पर अलगाववादियों और आतंकवादियों की भाषा बोलने वाली महबूबा और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में वाक्युद्ध भी छिड़ गया है। देश की संसद पर आतंकी हमले के सूत्रधार अफजल की फांसी की सजा माफ करने की वकालत करने वाले उमर भी महबूबा के पीछे कुछ इस तरह पड़ गए हैं मानो मोदी के अच्छे काम की तारीफ कर उन्होंने कोई गुनाह कर दिया हो।

कांग्रेस की 'कलम'

सरकारपरस्त माने जाने वाले एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के कांग्रेसपरस्त वरिष्ठ पत्रकार मुश्किल में हैं। ए. राजा, कनिमोझी और पी. चिदंबरम सरीखे असरदार राजनेताओं के पसीने छुड़ा देने वाले जनता पार्टी के अध्यक्ष डा. सुब्रामण्यम स्वामी के निशाने पर अब यह पत्रकार महोदय भी आ गए हैं, जो अखबार में लेखन और सरकारी टीवी दूरदर्शन पर 'प्रवचन' के साथ-साथ कहीं भी सरकार और कांग्रेस की पैरोकारी करते पाए जाते हैं। उनकी कांग्रेसपरस्ती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि टीवी चैनलों को जब किसी चर्चा में भागीदारी के लिए कोई कांग्रेस प्रवक्ता नहीं मिल पाता तो वह इन्हें ही बुला लेते हैं। इसलिए हैरत नहीं कि सरकार ने पुरस्कार या पारिश्रमिकस्वरूप इन्हें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य बना दिया, जबकि उनका अल्पसंख्यकों से दूर का भी वास्ता नहीं है। डा. स्वामी ने इन पत्रकार महोदय समेत अल्पसंख्यक आयोग के दो सदस्यों पर सवाल उठाते हुए पहले तो प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और अब अदालत में याचिका दायर की है।

द समदर्शी

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