|
अपने दीनदयाल जी (पं.दीनदयाल उपाध्याय) आज होते तो 95 वर्ष के होते। अर्थात् 5 वर्ष बाद हम उनका जन्म शताब्दी वर्ष मना रहे होंगे। किन्तु वे जिन परिस्थितियों में हमसे छीने गये हैं वे उतनी दु:खद हैं कि उनका जन्मदिवस-स्मरण भी उनके मूक बलिदान की स्मृतियों में ही डूबता-उतराता दिखाई देता है, और हमें दु:ख के महासागर में ही गोते लगाने को विवश करता है। किसी कवि ने उनका सटीक वर्णन किया है-
निज रूप स्नेह दे, प्राणों की बाती देकर,
संस्कृति का दीप जलाया झंझावतों में।
तुमने भारत की राजनीति की नौका को,
दी सही दिशा अनगिन घातों-प्रतिघातों में।
उनके अकाल काल-कवलित होने पर व्यक्त की गयीं मार्मिक श्रद्धांजलियों से भी उक्त ध्वनि ही बार-बार प्रस्फुटित होती है। वरिष्ठ पत्रकार एवं दैनिक हिन्दुस्तान के तत्कालीन सम्पादक श्री रतनलाल जोशी के अनुसार- राजनीति में अनेक नेता आएंगे, पर यह अभागा राष्ट्र दीनदयाल के लिए तरसेगा। श्री फजलुल रहमान हाशमी की श्रद्धांजलि थी-
कला का एक हाथ टूट गया है।
राजनीति आहत है,
भक्ति-मंदिर की एक दीवार गिर गई है।
राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी के उद्गार थे-
फिर रक्त-रंजिता हुई दिशा
दिन में ही छायी निविड़ निशा
कैसा यह बज्र-निपात हुआ?
वह चला छोड़कर कौन साथ?
हम लगते हैं जैसे अनाथ,
कैसा आकस्मिक घात हुआ?
अजात शत्रु
तत्कालीन राजनीतिक नेताओं द्वारा प्रकट विचार तो उनकी आरती-सी ही उतारते दिख रहे थे। हो भी क्यों न, दीनदयाल जी के विचार नैतिक आधार पर राष्ट्रहितकारी एवं लोकोपकारी थे। श्री जगजीवन राम ने उन्हें ईश्वरत्व का वाहक बताते हुए कहा:- अपनी अल्पायु में भी वे हिन्दू-संस्कृति की विशेषता के अनुरूप थे। शाश्वत आधुनिकता का मंत्र देकर हमें और समूचे मानव-समाज को चिरन्तन सुख का मार्ग दिखाया। आवश्यकता है उनके विचारों के प्रचार की और उन्हें जीवन में उतारने की।” प्रजा समाजवादी नेता नाथ पै के अनुसार- भारत की आज की विघटित अवस्था में हमें ऐसे ही नेताओं की, मार्गदर्शकों की आवश्यकता थी। किन्तु परमेश्वर ने एक ऐसे महान नेता से हमें वंचित कर दिया। जनसंघ के वैचारिक विरोधी प्रो. हीरेन मुखर्जी (संसद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता) के उदगार थे- “श्री उपाध्याय अपने समय के सबसे अद्वितीय व्यक्ति थे। वे अजात शत्रु थे। मैं उनसे प्रथम परिचय में ही प्रभावित हो गया था। जनसंघ की राजनीतिक विचारधारा से मतभेद होने के बाद भी दीनदयाल जी जैसे व्यक्तियों की देश को आवश्यकता है।”
वस्तुत: पं. दीनदयाल जी अगले चुनाव पर निगाह रखने वाले और सत्ता-राजनीति के दांव-पेंच करने वाले राजनीतिक नेता नहीं, अपितु अगली पीढ़ी (20-25 वर्ष आगे) के बारे में विचार करने वाले राजनेता थे। उनके विचार, उच्चार और आचार में सदैव यही दृष्टि रेखांकित होती रही। “भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष के रूप में उनके द्वारा कालीकट अधिवेशन में दिया गया भाषण भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है और उसमें प्रस्तुत विचारों को पढ़कर बड़े-बड़े समाजवादी और साम्यवादी विचारक दांतों-तले उंगली दबाने को मजबूर हो गये। उस ऐतिहासिक भाषण की कुछ झलकियां ही यहां पर्याप्त होंगी-
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा
दीनदयाल जी के अनुसार, “जिनके सामने रोजी और रोटी का सवाल है, जिन्हें न रहने के लिए मकान है न तन ढंकने को कपड़ा, अपने मैले-कुचैले बच्चों के बीच जो दम तोड़ रहे हैं, गांवों और शहरों के उन करोड़ों निराश भाई-बहनों को सुखी व सम्पन्न बनाना हमारा व्रत है।”
“आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज की ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति नहीं बल्कि सबसे नीचे की सीढ़ी पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। ग्रामों में जहां समय अचल ख़डा है, जहां माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं, वहां जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पायेंगे, तब तक राष्ट्र के चैतन्य को जाग्रत नहीं कर सकेंगे।”
“भिन्न-भिन्न राजनीतिक पार्टियों को अपने लिए एक दर्शन (सिद्धान्त या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र होने वाले लोगों का समुच्चय मात्र नहीं बनना चाहिए। उनका रूप किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या ज्वाइंट स्टॉक कम्पनी से अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी के घोषणा पत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझाना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए।”
“हम इस कर्म-भूमि भारत में कर्म करने के लिए पैदा हुए हैं-हड़ताल, छुट्टी व बन्द के नारे लगाने के लिए नहीं। हमें हराम की रोटी और हराम का राज नहीं चाहिए। हमें तो जनता का राज और पसीने की रोटी चाहिए। हमारा यही विश्वास हमारे भव्य भारत का सपना साकार करेगा।”
यदि आज के राजनीतिक दल स्व. दीनदयाल जी के इन विचारों को आंशिक रूप में ही पूर्ण करने में जुट जाएं, वे देश की बहुत बड़ी सेवा कर सकेंगे।
सम्प्रदाय नहीं, राष्ट्र की सेवा
दीनदयाल जी ने कहा, “हमने किसी सम्प्रदाय या वर्ग की सेवा का व्रत नहीं लिया है। सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक हम इन सभी बन्धुओं को भारतमाता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारत माता को सच्चे अर्थों में सुजला, सुफला बनाकर रहेंगे। यह दस प्रहरण-धारिणी बनकर असुरों का संहार करेगी, लक्ष्मी बनकर जन-जन को समृद्धि देगी और सरस्वती बनकर अज्ञान व अन्धकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलायेगी।”(28 दिसम्बर, 1967 कालीकट)
राष्ट्र-जीवन की विविध समस्याओं के बारे में उनके द्वारा किया गया मार्गदर्शन राष्ट्र का विवेक जगाने वाला है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
“हम किसी भाषा का विरोध नहीं करते हैं, पर उर्दू को भारतीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के लिए उसे भारतीय होना पड़ेगा। उर्दू का मूल ही विदेशी है। आज यदि भारतीय ईसाई अंग्रेजी को भारतीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का आग्रह करें तो क्या हम उसे स्वीकार करेंगे? अलग भाषा और अलग संस्कृति को मान्यता देकर हम देश-विभाजन का परिणाम देख चुके हैं। अत: राष्ट्रीय विघटन और अलगाव का बल प्रदान करने वाले किसी भी आग्रह को हम स्वीकार नहीं कर सकते।”
रोटी ही सर्वस्व नहीं
उन्होंने बताया, “हम राणा प्रताप की घास की रोटी और मानसिंह को मिलने वाले रस-भरे व्यंजन की तुलना करके देखें। किस रोटी को हम पसन्द करेंगे? एक रोटी को खाकर प्रताप धर्म पर डटे रहे, मानसिंह रसभरे व्यंजन खाकर गुलाम बना रहा। स्वतंत्रता मुगल-दरबार को बेच दी। मानसिंह का स्मरण मान नहीं जगाता, वास्तव में उसे अपमानसिंह ही कह सकते हैं। रोटी ही सब कुछ होती, तो यह अन्तर क्यों होता?
“हमारा वास्तविक स्वयंसेवकत्व यही है कि हम अपने महान ध्येय, महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं। हमारे आदर्श हैं डॉक्टर साहब, जिन्होंने सभा-संस्थाओं वाले मौसमी स्वयंसेवकों को एक ओर हटाकर हमें असली स्वयंसेवकत्व प्रदान किया। उन्होंने कहा कि समाज-देश के लिए मरने वाले लोग श्रेष्ठ हैं, पर उनसे भी श्रेष्ठ हैं समाज के लिए जीने वाले। वास्तव में जो धर्म और समाज के लिए जीता है, वही धर्म और समाज के लिए मरता भी है। जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्ममय बिताया है, समाजमय बिताया है, वही आखिरी समय पर समाज के लिए जीवन दे सकता है। उसके अन्दर एक ध्येयवाद, एक नि:स्वार्थ सेवा का भाव और कर्तव्य-परायणता होती है।”
“हमारा हिन्दुत्व ही हमारा स्वयंसेवकत्व है। हम शाखा में ही स्वयंसेवक नहीं हैं, शाखा के बाहर भी हैं, जहां हिन्दू इकट्ठे होते हैं, वहां ही हम हिन्दू नहीं हैं बल्कि उनके बीच में भी हम हिन्दू हैं, जो कि हिन्दू नहीं हैं। हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि उन्हें लगे कि हिन्दू ऐसा तेजस्वी होता है। हम तो यह मानकर चलें कि हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्परा, हिन्दू धर्म, हिन्दू जीवन धारा और हिन्दू व्यवहार इन सबके हम प्रतिनिधि हैं।”
वह भावपूर्ण प्रसंग
अब एक नितान्त भावपूर्ण प्रसंग। आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व अवसर था नवाबगंज (कानपुर) में पं0 दीनदयाल उपाध्याय स्मारक सनातन-धर्म उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के शिलान्यास का। मुख्य अतिथि थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरूजी, अध्यक्षता कर रहे थे कानपुर के शिक्षा-क्षेत्र व कानून-जगत के जाने-माने व्यक्तित्व बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह और गीत-गायक थे संघ के तत्कालीन कानपुर संभाग प्रचारक और विश्व हिन्दू परिषद् के वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल। विशिष्ट नागरिकों से खचाखच भरे विशाल पंडाल में श्री गुरूजी के भाषण से पहले जैसे ही श्री सिंहल का मार्मिक स्वर गूंजा- “भारत के भाल पर, कुमकुम के साथ लगा अक्षत एक, असमय ही झर गया”- लोगों की आंखें गीली हो गईं, रुमाल निकल आये और, “आंख-आंख आंसू से भर गया” वाली सातवीं पंक्ति आते-आते तो ऐसा वातावरण हो गया कि लोग अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और सिसकियां भरने पर मजबूर हो गये। पत्रकार-दीर्घा भी इससे अछूती नहीं रह सकी। अधिकांश लोग अंत तक इसी दशा में बने रहे। मैं भी एक संवाददाता के रूप में उस भावपूर्ण प्रसंग का साक्षी बना।
जब-जब दीनदयाल जी का स्मरण आता है तब-तब यही पंक्तियां बार-बार मानस-पटल पर कोंध जाया करती हैं :-
नवयुग के चाणक्य तुम्हारा इच्छित भारत
अभिनव चन्द्रगुप्त की आंखों का सपना है।
जिन आदर्शों के हित थे तुम देव! समर्पित
लक्षावधि प्राणों को उनके हित तपना है।
दीनदयाल जी रूपी चाणक्य के सपनों का भारत “आज के चन्द्रगुप्त” किस विधि साकार करेंगे, यह आत्मालोचन का गहरा विषय है। उनके आदर्शों की पताका थामने वाले हाथ और हृदय उस महामानव द्वारा प्रदत्त कसौटी पर जितने खरे उतरेंगे, दीनदयाल जी का इच्छित भारत उसी अनुपात में इसी शरीर व इन्हीं आंखों के सामने दृष्टिगोचर होगा।
वे तो चले गये, किन्तु हमें अपनी राजनीतिक विरासत सौंप गये हैं। उस दाय के अनुरूप सिद्ध होना हमारे दमखम और पौरुष पर निर्भर है। हमारा ध्यान निष्ठा और प्रामाणिकता से सदैव इस बिन्दु पर केन्द्रित बना रहे कि हमारी सोच और संकल्प लक्ष्य-अनुरूप है या नहीं? हमारा विचार, आचार और उच्चार सर्वसमावेशी सांस्कृतिक चिन्तन और अन्त्योदय भाव के साथ तदाकार है या नहीं? हम धर्म, न्याय और नैतिकता के पक्ष में खड़े हैं या नहीं? इसके खिलाफ खड़े लोगों का समय रहते प्रतिकार और परिष्कार करने को तैयार हैं या नहीं? भारत की भाग्यतरी को हम अपेक्षित दिशा की ओर ले जा पा रहे हैं कि नहीं? हमारे शुभचिन्तक यह प्रामाणिक आशंका प्रकट करने को विवश तो नहीं हो रहे कि “भगवान इस तरी को, भरमा न दे अंधेरा!”
टिप्पणियाँ