विचित्र मुकुट
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विचित्र मुकुट

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Sep 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Sep 2011 16:07:41

एक था राजा वीर सेन। उसके पास था एक विचित्र मुकुट। बस मुकुट को पहनते ही कोई भी आकाश में उड़ सकता था। परन्तु उसके लिए एक मंत्र भी पढ़ना होता था जो राजा के अलावा कोई भी नहीं जानता था। राजा को अपना मुकुट बहुत प्रिय था, परन्तु मुकुट से भी प्रिय थी प्रजा। वह अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखता था। उसे प्रजा भी बहुत चाहती थी। वह आकाश मार्ग से अपने पूरे राज्य में विचरण करता और जहां पर जो भी कमी नजर आती उसे दूर करता। इस तरह प्रजा भी खुश थी और राजा भी।

राजा वीर सेन के राज्य वैभवगढ़ के पड़ोसी राज्य अजेयगढ़ का राजा, सुमित्र बड़ा ही अत्याचारी था। वह अन्यायी भी था। नए-नए कर लगाकर प्रजा को परेशान करता। गरीबी से सारी प्रजा तंग थी। उस राज्य के सभी लोग चाहते थे कि इस राजा से किसी तरह छुटकारा मिले।

सुमित्र को जब यह पता लगा कि पड़ोसी राज्य वैभवगढ़ के राजा वीर सेन के पास उड़ने वाला मुकुट है तो उसने तय किया कि वह किसी भी तरह उसे प्राप्त करेगा। उसने वीर सेन के पास सन्देश भेजा कि या तो वह मुकुट मुझे दे दे, नहीं तो मुझसे युद्ध करने के लिए तैयार हो जाए। तुम्हारे पास केवल तीन दिन का समय है।

राजा वीर सेन को जब यह सन्देश मिला तो वह बहुत ही परेशान हो गया। सोचने लगा कि यदि मैंने मुकुट दे दिया तो यह कायरता होगी और यदि युद्ध किया तो मूर्खता। बेवजह हजारों लोगों की जान जाएगी। बहुत नुकसान भी होगा। राजा ने रानी, सेनापति, महामंत्री, सभासदों और इसके बाद प्रजा की भी राय ली, तो सभी की एक ही राय थी कि युद्ध किया जाए। मुकुट देना तो कायरता है। राजा ने बहुत सोचने के बाद तीसरे दिन सुमित्र को सन्देश भेजा कि आपका हमारे राज्य में स्वागत है। आप आकर मुकुट ले जा सकते हैं। राजा सुमित्र सन्देश पाकर बहुत खुश हुआ और वीर सेन की कायरता पर हंसा भी। वह उसी समय अपनी सेना के साथ चल पड़ा। वैभवगढ़ पहुंचने पर स्वयं राजा वीर सेन ने उसका स्वागत किया और मुकुट भी दे दिया। सुमित्र इतना खुश था कि उसने झट मुकुट पहना किन्तु वह उड़ा ही नहीं। तब उसने खीज कर कहा, कायर वीर सेन! मैं उड़ क्यों नहीं रहा?

यह सुनकर वीर सेन ने मुस्कुराते हुए कहा,

महाराज, आप इस मंत्र को पढ़ें तभी आप उड़ सकेंगे।

यह कहते हुए वीर सेन ने सुमित्र को उड़ने का मंत्र भी बता दिया। मंत्र पढ़ते ही सुमित्र उड़ता चला गया। वह अट्टहास करता हुआ अपनी जीत की खुशी पर हंस रहा था। धीरे-धीरे वह आंखों से ओझल हो गया। राजा वीर सेन उसे देखकर मुस्कुराते रहा। महामंत्री ने पूछा, महाराज यह तो कायरता ही कहलाएगी। वह हम पर हंसता हुआ उड़ गया।

'हां महामंत्री जी, वह उड़ तो गया किन्तु अब कभी लौटेगा नहीं। वह कहीं दूर आकाश में खो जाएगा, हमेशा के लिए।'

राजा वीर सेन ने हंसते हुए कहा।

'ऐसा क्यों महाराज?'

सेनापति ने पूछा।

'ऐसा इसलिए कि उसने उड़ने का मंत्र ही जाना है, उतरने का नहीं।' राजा ने रहस्य बताया।

यह सुनकर सभी चकित रह गए। सभी राजा वीर सेन की प्रशंसा करने लगे। अजेयगढ़ की प्रजा ने भी वीर सेन को अपना राजा स्वीकार कर लिया। इस तरह अजेयगढ़ को एक अच्छा राजा मिल गया और एक स्वार्थी, लालची राजा का अन्त हो गया।

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