फिर गूंजा वन्देमातरम्
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फिर गूंजा वन्देमातरम्

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Sep 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Sep 2011 16:15:37

भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रसिद्ध समाजसेवी अण्णा हजारे के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए आंदोलन में एक बार पुन: स्वतंत्रता पूर्व के आंदोलन की झलक मिली, जिसका मूल स्वर था-वन्देमातरम्। अण्णा के आंदोलन में 21वीं सदी में युवाओं सहित प्रत्येक क्षेत्र के, प्रत्येक वर्ग के लोगों के मुख पर वन्देमातरम् का ही गान था। 'वस्तुत: वन्देमातरम् यूरोपीय राष्ट्रों की भांति केवल गीत नहीं, अपितु एक पवित्र मंत्र है।' उपरोक्त शब्द महर्षि अरविन्द ने 28 जनवरी, 1908 को अमरावती के नेशनल स्कूल में 'वन्देमातरम्' विषय पर बोलते हुए कहे थे। उन्होंने इस महामंत्र का इतिहास बताते हुए इसे किसी प्राचीन मंत्र का ही रूप बताया, जिसे बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने एक संन्यासी गुरु से प्राप्त किया था, और जिसे उन्होंने 1882 में अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'आनन्दमठ' में उद्धृत किया। शीघ्र ही यह गीत राष्ट्रीय उद्घोष, परस्पर अभिवादन तथा देशभक्ति का मंत्र बन गया। 1896 से 1947 तक यह भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रेरक उद्घोष बन गया। अनेक क्रांतिकारियों ने इस मंत्र का उच्चारण करते हुए बलिदान दिए। बंगभंग तथा स्वदेशी आन्दोलन के दौरान यह गीत राष्ट्र की आत्मा का प्रतिबिम्ब बन गया। अनेक राष्ट्रीय विद्वानों ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का नाम भी वन्देमातरम् रखा। इसमें उल्लेखनीय नाम बिपिन चन्द्र पाल, महर्षि अरविन्द, मैडम कामा, लाला हरदयाल तथा लाला लाजपतराय का है। लोकमान्य तिलक का भी यह प्रेरणास्रोत मंत्र रहा। यहां तक कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद प्रथम दो वर्षों तक अपने व्यक्तिगत पत्रों की समाप्ति वन्देमातरम् से करने का क्रम रखा। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी एक प्रश्न का उत्तर देते हुए तीस वर्षों से समूचे राष्ट्र में गाए जाने के कारण इसे राष्ट्रीय गीत का सम्मान देने को कहा।

लीग द्वारा विरोध

राष्ट्रगीत का यह प्रश्न 1947 में देश की स्वतंत्रता के अवसर पर भी आया। भारत में समय-समय पर गाए जाने वाले तीन-चार गीतों पर विचार हुआ। ये थे 'वन्देमातरम्', 'जन गण मन', 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' तथा 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।' हालांकि इससे पूर्व यह जानना समीचीन होगा कि मुस्लिम लीग के मंच से 1908 के अमृतसर अधिवेशन में इसका पहली बार विरोध हुआ, तथा वन्देतमातरम् को सम्प्रदाय सूचक तथा बुतपरस्ती बताया गया। खिलाफत आन्दोलन की असफलता के पश्चात कुछ लीगी मुसलमानों ने इसकी तीखी आलोचना करनी प्रारम्भ की। यहां तक कि 1923 में काकीनाड़ा के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली, जो बाद में मुस्लिम लीग में शामिल हो गए थे, ने वन्देमातरम् का विरोध किया तथा इसका गायन बंद करने को कहा, परन्तु गायक ने उनकी नहीं सुनी तथा वह गाता रहा। मजबूर होकर, विरोध स्वरूप मौलाना मोहम्मद अली अपना अध्यक्षीय स्थान छोड़कर दूर खड़े हो गए। 1937 में भी मुस्लिम लीग ने अपने कलकत्ता अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर इसे 'मुस्लिम विरोधी' तथा देश के विकास में बाधक बताया। मुस्लिम लीग ने 1937 में सात प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमण्डलों द्वारा शासित राज्यों में 'निरकुंश शासन' तथा 'अत्याचारों' के खिलाफ पीरपुर के राजा ने नेतृत्व में एक कमेटी बनाई, जिसने 15 नवम्बर, 1938 को अपनी रपट दी। इसमें वन्देमातरम् गायन को भी एक कारण बताया। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया कि जिन्ना सहित अनेक मुसलमान इसे पहले अनेक अवसरों पर गाते रहे हैं।

कांग्रेस द्वारा तुष्टीकरण

इस परिप्रेक्ष्य में 1937 में कांग्रेस की कार्यकारिणी की एक उप-समिति बनाई गई। दुर्भाग्य से इसमें यह पारित किया गया कि इस गीत के केवल प्रथम दो पद ही गाए जाएं। वस्तुत: यह मुस्लिम लीग के प्रस्ताव का मौन समर्थन ही था जिसमें इस गीत को प्रेरणा और विचारों से इस्लाम विरोधी और मूर्तिपूजा समर्थक बल्कि भारत के वास्तविक राष्ट्रवाद के विकास का 'यकीनी तौर पर विरोधी' बताया गया था। कुछ विद्वानों ने कांग्रेस के इस घुटना टेक निर्णय की कटु आलोचना की। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. रमेश चन्द्र मजूमदार ने कहा, 'मुस्लिम नाराज न हों, अत: वन्देमातरम् के पहले दो पदों को छोड़कर, जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं के नाम आते हैं, गायन से छोड़ दिए गए।' गांधी जी ने एक जुलाई, 1939 को 'हरिजन' में अपने विचार प्रकट करते लिखा, 'यह चाहे जहां से लिया गया हो और चाहे जैसे और जब लिखा गया हो, बंग भंग के दिनों में बंगाल के हिन्दुओं और मुसलमानों से यह संघर्ष का एक प्रभावपूर्ण नारा बन गया था। यह साम्राज्य विरोधी सिंहनाद था।' उन्होंने पुन: लिखा, 'किशोरावस्था में जब मैं आनन्द मठ या बंकिम के बारे में भी नहीं जानता था तभी से वन्देमातरम् ने मेरे दिल में घर कर लिया था, मैंने सबसे पवित्र राष्ट्रीय भावना को इससे जोड़ दिया, मुझे कभी नहीं लगा कि ये हिन्दू गीत है या फिर केवल हिन्दुओं के लिए ही है। दुर्भाग्यवश, हमारे बुरे दिन आ गए हैं, पहले जो शुद्ध सोना हुआ करता था, आज महज खोटी धातु बन गया है।' डा. एन.बी.खेर ने एक पत्र में इस तुष्टीकरण की आलोचना करते लिखा कि अब कांग्रेसजनों को वन्देमातरम् अभिवादन की बजाय 'सलाम अली जान' करना चाहिए।

नेहरू की मंशा

यह बड़े आश्चर्य तथा दु:ख का विषय है कि स्वतंत्र भारत में भी वन्देमातरम् के पूर्ण गीत को हटाया गया तथा फिर उसे दबा दिया गया। इससे कांग्रेस की संकीर्णता तथा पं. जवाहरलाल नेहरू की मानसिकता स्पष्ट होती है। नीरद चौधरी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि प्राय: हिन्दुओं से जुड़ी किसी भी चीज से वे बिदकते थे। उनकी इस भावना का प्रकटीकरण 14 अगस्त रात्रि अथवा स्वतंत्रता दिवस की पूर्व रात्रि की कार्रवाई से ही स्पष्ट होता है। 14 अगस्त की रात्रि के कार्यक्रम का पूर्ण स्वरूप पं. नेहरू ने स्वयं निर्धारित किया था। इस कार्यक्रम का एजेण्डा तथा स्वरूप 4 अगस्त, 1947 को ही तैयार करके पं. नेहरू ने डा. राजेन्द्र प्रसाद को भेज दिया था। इसमें 'जन गण मन' का कहीं कोई जिक्र नहीं था। इसमें कार्यक्रम का प्रारम्भ सुचेता कृपलानी या किसी अन्य के द्वारा वन्देमातरम् के गायन से तथा समापन 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' गाने की बात से कही गई थी। परन्तु अगले दिन, यानी 5 अगस्त, 1947 को श्री एच.वी.आर. आयंगर के लिखे कार्यक्रम में जन गण मन पहले स्थान पर जोड़ दिया गया था तथा वन्देमातरम् का केवल पहला पद गाने को कहा गया। यह ज्ञात नहीं हो सका कि आखिरी क्षणों में कार्यक्रम में यह परिवर्तन क्यों हुआ? इसकी सूचना डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी क्यों नहीं दी गई?

यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रगान पर न तो कोई फैसला लिया था और न ही कोई चर्चा हुई थी। इसी बीच एक और विस्मयकारी घटना हुई जिसकी जानकारी विजयलक्ष्मी पंडित तथा पं. जवाहरलाल नेहरू के अपने व्यक्तिगत संस्मरणों से होती है। घटना इस प्रकार है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में इन्हीं दिनों एक भारतीय प्रतिनिधिमण्डल को भेजा जाना था। इसके लिए विजयलक्ष्मी पंडित के नेतृत्व में राजा महाराज सिंह, मोहम्मद करीम छागला, फ्रेंक एंटोनी तथा नवाब अली यावरजंग को भेजा गया। यह प्रतिनिधिमण्डल संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिवेशन प्रारम्भ होने से कुछ ही घंटे पहले पहुंचा। जाते ही इन्हें अपने देश का राष्ट्रगीत देने को कहा गया, जिसकी धुन भारतीय प्रतिनिधिमण्डल के अधिवेशन में पहुंचते ही बजाई जा सके। वस्तुत: तब तक संवैधानिक रूप से कोई राष्ट्रगीत निश्चित नहीं था। हड़बड़ी में किसी भी राष्ट्रीय गीत की खोज हुई। न्यूयार्क में एक भारतीय छात्र के पास जन गण मन का एक रिकार्ड था। वही धुन बनाने के लिए दे दी गई। यह धुन विदेशियों को बहुत पसंद आई, और तभी से व्यावहारिक रूप से जन गण मन भारत का राष्ट्रगान बन गया।

कैसी विडम्बना है कि बिना गंभीर विचार-विमर्र्श के, हड़बड़ी में मिली किसी धुन के आधार पर, पिछले तीस वर्षों से कभी राष्ट्र गीत के रूप में न गाए जाने वाले गीत जन गण मन को चुटकी में राष्ट्रगान बना दिया गया। उपरोक्त राष्ट्रगान के सन्दर्भ में भारतीय संविधान सभा में विस्तृत चर्चा नहीं हुई। 28 अगस्त, 1948 को पं. नेहरू ने राष्ट्रगान के बारे में अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने वन्देमातरम् के बारे में कहा, 'यह अब तक के संघर्ष का, भावोद्वेग तथा तीक्ष्णता का प्रतीक है। परन्तु शायद इसके चरमोत्कर्ष का नहीं।' अंतिम रूप से 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा में जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में औपचारिक मान्यता देने की घोषणा की गई, जिसमें राष्ट्रगीत वन्देमातरम् को भी बराबर का स्थान दिया गया।

संघर्ष अभी बाकी है

सच बात तो यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात् भी वन्देमातरम् नेहरू, उनकी कांग्रेस तथा उसके समर्थकों के लिए सहज उद्घोष नहीं रहा। इसके विपरीत भारत के कुछ मुसलमानों ने वन्देमातरम् के प्रति अपनी श्रद्धा तथा भक्ति दिखलाई। राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में खान अब्दुल गफ्फार खां, रफी अहमद किदवई, मौलाना अबुल कलाम आजाद इसके उदाहरण हैं। 1997 में ए.आर.रहमान ने वन्देमातरम् की एक नवीन धुन देकर राष्ट्र जीवन में एक नया सन्देश दिया। मौलाना वहीदुद्दीन खान का कहना सही है कि वन्देमातरम् कोई मजहबी उद्घोष नहीं है। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के संयोजक मोहम्मद अफजल का कहना है कि जब एक मुसलमान प्रतिदिन 5 बार की नमाज में 40 बार धरती पर माथा टेकता है तो उसे वन्देमातरम् का विरोध नहीं करना चाहिए।

वस्तुत: देश को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली पर अभी सांस्कृतिक स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय हितों को यथेष्ठ स्थान नहीं मिला। भारतीयों को इस राष्ट्रीय चेतना तथा हितों के लिए दूसरी लड़ाई लड़नी होगी। भारतीयता एवं संस्कृति के प्रतीकों को वास्तविक जीवन और राष्ट्रहित से जोड़ना होगा। वर्तमान राजनीतिक भ्रष्ट तंत्र को हटाकर देश में व्याप्त भावात्मक शून्यता को दूर करना होगा। देश की वर्तमान युवा पीढ़ी को भारत को एक सुदृढ़, प्रबल तथा प्रखर राष्ट्र बनाने के लिए पुन: वन्देमातरम् को अपनाना होगा। वर्षों बाद अण्णा के आंदोलन में यह दृश्य दिखा है। एक चेतना जगी है, इस चेतना को क्रांति का रूप देना होगा। इस चेतना को जगाए रखने का मंत्र है-वन्देमातरम्। द

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