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जब समाचार पत्र अरबों-खरबों रुपये के घोटालों से भरे हों, तो एक चश्मे की चोरी कुछ अर्थ नहीं रखती। इसलिए इस पर किसी का ध्यान नहीं गया कि दिल्ली में राष्ट्रपति निवास के पास स्थित ग्यारह मूर्ति से गांधी जी का चश्मा चोरी हो गया।
पुलिस का कहना है कि चश्मा छह साल से गायब है पर न चोर को ढूंढने का प्रयास हुआ और न ही नया चश्मा लगाने का।
वैसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मूर्ति की आंख पर चश्मा है या नहीं। न जाने कितनी मूर्तियां खुले में आंधी-पानी सहती हैं और उन पर पक्षी न जाने क्या-क्या कर देते हैं, पर यदि मूर्ति गांधी जी की हो, तब बात सामान्य नहीं रह जाती।
जो लोग चश्मा लगाते हैं, वे उसकी अनिवार्यता जानते हैं। बेचारे गांधी जी बिना चश्मे के खड़े हैं, यह सोचकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और मैं ग्यारह मूर्ति जा पहुंचा।
– बापू, इतने सालों से आप यहां खड़े हैं, कैसा लगता है ?
– लगना क्या है, सब मूर्तियों की तरह मैं भी हूं। बस यही बहुत है कि मूर्तियों में आज भी मैं सबसे आगे ही हूं।
– जब चश्मा चोरी हुआ, तब आपको पता नहीं चला ?
– पता तो चला था, पर मैं क्या कर सकता था। तुमने सुना ही होगा, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी..।
– आपके हाथ में लाठी है, आप उसे मार सकते थे।
– राम, राम। मैं तो अहिंसा का पुजारी हूं। मैंने लाठी खाना सीखा है, मारना नहीं। यह तो अच्छा हुआ कि चोर ने चश्मा ही चुराया। यदि वह लाठी भी ले जाता, तो मैं क्या कर लेता ?
– पर बिना चश्मे के आपको देखने में कष्ट होता होगा ?
– नहीं, मैंने तो स्वतंत्रता मिलते ही देखना बंद कर दिया था।
– क्यों ?
– क्यों क्या, नेहरू को मैंने प्रधानमंत्री बनवाया था, पर उसने मेरी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' को ही कूड़े में डाल दिया। मैंने कांग्रेस को भंग करने को कहा था, पर उसने सत्ता के लिए कांग्रेस को ही सीढ़ी बना लिया। अपने सपनों को मरते देखने की बजाय मैंने अपने एक बंदर की बात मानकर आंखें बंद कर लीं।
– तो आप किसी और को चुन लेते। आपकी बात कौन टालता ?
– बात तो ठीक है। जनता और कांग्रेस वाले भी पटेल के पक्ष में थे, पर मेरी भी कुछ मजबूरियां थीं। अब छोड़ो इसे, गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ ?
– पर बापू, शासन के लिए आपके चश्मे का प्रबन्ध करना क्या कठिन है। देश में मूर्तिकारों की कमी नहीं है।
– अब इस उम्र में चश्मा बनवा कर मैं क्या करूंगा? मैंने कांग्रेस में न स्वयं कोई पद लिया और न अपने बच्चों को लेने दिया, पर आज तो कांग्रेस खानदानी पार्टी बन गयी है। विदेशियों को निकालने के लिए लाखों लोग जेल गये, पर आज देश की कमान एक विदेशी के ही हाथ में है; और इसके लिए वह मेरे नाम का सहारा लिये है। यदि मैं मूर्ति न होता, तो फिर सड़क पर उतर पड़ता।
– लेकिन आपका चश्मा?
– तुम चश्मे की बात मत करो। चश्मा लगाते ही मुझे हर ओर फैला भ्रष्टाचार दिखने लगेगा। मेरे समय में लोग पांच रुपये लेते हुए डरते थे। अब करोड़ों रुपये पचाकर भी डकार नहीं लेते। पहले लोग कहते थे कि हम बाल-बच्चे वाले हैं, रिश्वत नहीं लेंगे। अब कहते हैं कि हम रिश्वत नहीं लेंगे, तो बच्चों को कैसे पालेंगे? बोफर्स से लेकर संचार घोटाले तक, उन्हीं के मुंह काले हो रहे हैं, जो मेरा नाम लेकर सत्ता में आये हैं। सरकारी कार्यालयों में मेरे चित्र के सामने ही यह लेन-देन होता है। इसे न देखना ही अच्छा है।
– पर चाहे जो हो, मैं आपके चश्मे का प्रबन्ध करके ही रहूंगा।
– नहीं, नहीं। हो सके तो तुम मेरी आंख और कान फोड़ दो। इससे यह दुर्दशा देखने और सुनने से तो बचूंगा।
यह पाप करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, पर बापू को विश्वास है कि उनका कोई भक्त यह काम भी अवश्य करेगा। हे राम। द
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