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अण्णा की प्रतिष्ठा बढ़ीबेदम हो रहे हैं महाराष्ट्र के कांग्रेसी

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Sep 15, 2011, 12:00 am IST
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दिंनाक: 15 Sep 2011 16:20:41

महाराष्ट्र/ द.बा.आंबुलकर

अण्णा हजारे जब महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में स्थित अपने गांव रालेगण सिद्धी से भ्रष्टाचार विरोध की मशाल लेकर आंदोलन छेड़ने हेतु राजधानी दिल्ली रवाना हुए थे तब राज्य के सत्ताधारियों ने यह कहते-सोचते हुए राहत की सांस ली थी कि चलो, आंदोलन का केन्द्र दिल्ली होने के कारण अब अण्णा एवं उनके आंदोलन से दिल्ली वाले ही निबटेंगे, हमारी जान छूटी। पर अब जब अण्णा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जिस प्रकार से व्यापक सफलता के साथ लौटे हैं, महाराष्ट्र के सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं के पांव तले से जमीन खिसक गयी है। इस परिप्रेक्ष्य में पहली बात तो यह है कि अण्णा के अनशन-आंदोलन को समाप्त कराने के अंतिम दौर में राज्य के नेतृत्व की बजाय कांग्रेस आलाकमान ने जिस तरह केन्द्रीय मंत्री तथा राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पहल करने को कहा, उससे यह संकेत मिला कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण का राजनीतिक कद दिल्ली के दरबार में कम हुआ है। राज्य के कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्ताओं में यह भी संदेश गया है कि विलासराव देशमुख केन्द्र में अपनी राजनीतिक साख बनाए हुए हैं।

महाराष्ट्र की कांग्रेस इन दिनों तीन प्रकार के राजनीतिक संकटों से घिरी हुई है। एक तो यह कि अण्णा के आंदोलन के कारण बने हालात में सत्ताधारी गठबंधन का प्रमुख सहयोगी दल पूरी तरह राजनीतिक दूरी बनाये रहा। यहां तक कि अण्णा को तिहाड़ जेल से ही रालेगण सिद्धी भेजने के प्रस्ताव का भी राष्ट्रवादी कांग्रेस ने यह कहते हुए विरोध किया कि अण्णा ने अगर महाराष्ट्र में आकर अपना अनशन-आंदोलन जारी रखा तो उसे संभालने में राज्य के पुलिस-प्रशासन को अधिक कठिनाई होगी और राज्य गृह मंत्रालय इसके लिए तैयार नहीं है। उल्लेखनीय है कि राज्य का गृह मंत्रालय राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास है।

दूसरी ओर कांग्रेसी खेमे में अब बात उभर कर आ रही है कि इससे पहले अण्णा हजारे ने जब भी अनशन किया तब राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे तथा विलासराव देशमुख ने राज्य स्तर पर ही उसका तोड़ निकाला। विपरीत इसके इस बार के आंदोलन में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण कोई योगदान नहीं दे पाये। कांग्रेसी नेता- कार्यकर्ता इस बात को पृथ्वीराज की राजनीतिक असफलता से जोड़ रहे हैं। एक बात यह भी है कि समूचे महाराष्ट्र में पहले से ही अण्णा के प्रति सम्मान की भावना है। अब दिल्ली में अनशन-आंदोलन को उन्होंने सफलता के साथ जिस बुलंदी तक पहुंचाया है, उससे उनका सम्मान महाराष्ट्र में कई गुना बढ़ गया है। राज्य के महानगरों से लेकर कस्बों तक आम आदमी, खासकर युवा वर्ग ने अण्णा के आंदोलन को जिस तरह समर्थन दिया, उसने कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस दोनों दलों की चिंता को बढ़ा दिया है। यह चिंता इसलिए भी अधिक बढ़ गयी है कि राज्य के स्थानीय निकायों के चुनाव शीघ्र ही होने वाले हैं। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 168 नगर निकायों के चुनाव घोषित हो चुके हैं तथा उसके बाद बारी आएगी नगर निगम एवं जिला पंचायतों के चुनावों की। मौजूदा हालात में अण्णा के आंदोलन का लाभ भाजपा एवं शिवसेना को हो सकता है, यही बात कांग्रेसियों की चिंता का कारण है।

इस राजनीतिक चिंता के कारण ही आगामी स्थानीय चुनावों की नीति तय करने के लिए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष शरद पवार से गहन चर्चा की। उल्लेखनीय है कि अण्णा द्वारा प्रदेश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आंदोलन छेड़ने पर कांग्रेस की तुलना में राष्ट्रवादी कांग्रेस को अधिक मात खानी पड़ी है। भ्रष्टाचार के मामलों में अनशन कर राज्य के जिन तीन मंत्रियों की छुट्टी अण्णा ने कराई, संयोगवश वे तीनों ही मंत्री राष्ट्रवादी कांग्रेस के ही कोटे से थे। यहां तक कि भ्रष्टाचार से संबद्ध राष्ट्रीय समिति में शरद पवार को शामिल करने के मुद्दे पर अण्णा ने जोरदार आपत्ति उठाई, जिसके चलते शरद पवार को भ्रष्टाचार विरोधी केन्द्रीय समिति से त्यागपत्र देना पड़ा था, यह बात भी राज्य के राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं को खल रही है। इसीलिए अण्णा के इस बार के अनशन-आंदोलन के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, उपमुख्यमंत्री अजित पवार, उद्योग मंत्री नारायण राणे तो टिप्पणी करते रहे, पर शरद पवार ने चुप्पी साधे रखी। राजनीतिक खेमे में चर्चा है कि शरद पवार विवादास्पद मसलों पर जब भी बोलते हैं तो उन्हें पछताना ही पड़ता है। और अण्णा के बारे में टिप्पणी कर कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी को मुंह की ही खानी पड़ी। इसलिए महाराष्ट्र के भ्रष्ट नेता और सत्तारूढ़ गठबंधन के भ्रष्ट लोग अब अण्णा से अधिक सतर्क रहने को कह रहे हैं।द

झारखण्ड/ मंगल पाण्डेय

गिराई सदन की गरिमा

26 अगस्त से शुरू हुआ झारखंड विधानसभा का मानसून सत्र 3 सितंबर को समाप्त हो गया। कुल पांच दिनों के इस छोटे से सत्र में करीब दर्जन भर विधेयक पास कर दिये गये। लेकिन सदस्यों के कारनामों ने देश के संसदीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। राज्य की तीन करोड़ जनता मुंह ताकती रही और उनके भाग्य विधाताओं ने पूरा सत्र हंगामे में ही बिता दिया। किसी भी विधेयक पर सार्थक चर्चा नहीं हो सकी। मुंडा सरकार की लौह अयस्क निर्यात नीति का विरोध करते हुए विपक्षी सदस्यों ने सदन की मार्यादा को ताक पर रख दिया। सदन में एक- दूसरे को देख लेने व दिखा देने तक की बात कही गयी।

पहले दो दिन तक हंगामें के बाद लौह अयस्क निर्यात के मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए विपक्ष ने मौन व्रत का हथियार अपनाया। पूरा विपक्ष मुंंह पर पट्टी लगाए बैठा रहा, किसी ने जुबान तक नहीं खोली। नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र सिंह, (झाविमो विधायक दल के नेता) सहित लगभग सभी विपक्षी विधायक मौन धारण किये 'वेल' में बैठे रहे और सदन की कार्यवाही चलती रही, विधेयक भी पास होते रहे। घंटे- दो घंटे नहीं बल्कि पूरे दो दिनों तक सदन का यही नजारा था। 'वेल' में मौन धारण किये विपक्षी सदस्यों को स्पीकर ने न तो 'मार्शल से आउट' कराया और न ही गतिरोध दूर करने की कोशिश की।

इस मुद्दे पर पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और वर्तमान में चतरा से लोकसभा सदस्य इंदर सिंह नामधारी से पूछा गया तो उनका कहना था कि 'सदन की एकांगी कार्यवाही लोकतंत्र के ठीक नहीं है। सदन के नेता और सभापति को इसे गंभीरता से लेना चाहिए था। विपक्ष की अनुपस्थिति में, चाहे वह लोकसभा हो, या राज्यसभा या विधानसभा, सदन नहीं चल सकता।' वहीं इस पर वरिष्ठ पत्रकार एवं करीब एक दशक से झारखंड विधानसभा पर लिखने वाले चंदन मिश्रा का कहना है कि इस मानसून सत्र में जो कुछ हुआ वह संसदीय परंपरा के साथ मजाक था। सदन सिर्फ सत्ता पक्ष ही चलाएगा तो मंत्रिपरिषद और विधानसभा में क्या अंतर रहेगा ! पूरा विपक्ष अपनी कुर्सी छोड़ 'वेल' में बैठा रहे और सदन की कार्यवाही भी चलती रहे, यह संसदीय परंपरा का उपहास है। जबकि विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह का कहना है कि विपक्ष का सिर्फ हठधर्मिता पर उतारू रहना राज्य और जनता के हित में नहीं है। सदन के नेता एवं मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि उन्हें बेहद दु:ख है कि विपक्ष के असहयोगात्मक रवैए के कारण राज्य की जनता के हितों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा तक नहीं हो सकी।

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मंजर की खोज में गुजरात पुलिस

राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) और आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) द्वारा खाक छानने के बाद अब गुजरात पुलिस की सूरत अपराध शखा की टीम ने मंजर इमाम की गिरफ्तारी के लिए रांची में डेरा डाल दिया है। मुंबई और अमदाबाद विस्फोट सहित कुल 15 मामलों में वांछित इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी मंजर इमाम के रांची के बरियातू स्थित आवास पर छापेमारी की गयी, लेकिन वह पुलिस के हाथ नहीं लगा। मंजर के गिरफ्तारी वारंट लेकर रांची पहुंची गुजरात पुलिस फिलहाल उसके परिजनों से पूछताछ कर रही है। इधर रांची के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक साकेत कुमार सिंह का कहना है कि रांची पुलिस हर संभव मदद कर रही है। गुजरात में गिरफ्तार आतंकी दानिश से पूछताछ के आधार पर गुजरात पुलिस मंजर की तलाश कर रही है, लेकिन मंजर का बच निकलना एनआइए व एटीएस समेत विभिन्न जांच एजेंसियों के लिए चुनौती बनता जा रहा है। एजंेसियों के मुताबिक मंजर इमाम पाकिस्तान में बैठे अतंकी रियाज भटकल व इकबाल भटकल के साथ लगातार संपर्क में है। मंजर की गिरफ्तारी से मुंबई समेत कई स्थानों पर विस्फोटों की गुत्थी सुलझ सकती है।

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जनजातीय भाषाओं को मिला द्वितीय राजभाषा का दर्जा

राज्य सरकार ने समाप्त प्राय: हो रही क्षेत्रीय भाषाओं को संजीवनी देने की कोशिश की है।  मुंडा सरकार ने 11 जनजातीय भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दे दिया है। राज्य मंत्रिमंडल के प्रस्ताव को विधानसभा के मानसून सत्र में पारित करा लिया गया है। इनमें बंगला, उड़िया, संथाली, मुंडारी, हो, ख़डिया, कुडुख (उरांव), कुरमाली, खोरठ, नागपुरी व पंचपरगनिया भाषा शामिल हैं। राज्य सरकार के इस कदम की सर्वत्र सराहना हो रही है। बंगलाभाषी व उड़ियाभाषियों ने शोभायात्रा निकालकर खुशिया मनाईं। वहीं पं. बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी एवं उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी झारखण्ड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को बधाई दी है।द

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