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नये भूमि अधिग्रहण विधेयक में सुधार जरूरीखतरे हैं कई

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Sep 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Sep 2011 13:35:20

ब्रिटिश काल में वर्ष 1894 में एक भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया था, जो मोटे तौर पर आज भी इस देश में लागू है। तब अंग्रेज सरकार ने यह कानून इसलिए बनाया था ताकि वह जनहित के नाम पर भूमि के मालिक किसान से किसी भी समय सरकार के द्वारा निर्धारित कीमत पर जमीन अधिग्रहीत कर सके यानी छीन सके। उस जमाने में और आजाद भारत में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि किसानों से जनहित के नाम पर एक रुपया प्रति हेक्टेयर का मुआवजा देकर जमीन अधिग्रहीत कर ली गई। बाद में किसानों के संगठित आंदोलनों के चलते सरकार को बाध्य होकर भूमि अधिग्रहण के लिए मुआवजे की राशि बढ़ानी पड़ी। मोटे तौर पर भूमि अधिग्रहण के व्यापक संदर्भों और उससे उत्पन्न समस्याओं की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया और सारा मामला मुआवजे की राशि पर आ टिका।  हालांकि भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों द्वारा कई आंदोलन छेड़े गये। सरकार द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी 'सेज', औद्यागिकीकरण, 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' और यहां तक कि विश्वविद्यालय के नाम पर भी निजी कंपनियों के लिए भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ किसान लामबंद होने लगे और सिंगूर व नंदीग्राम जैसे आन्दोलनों को तो सरकारी तंत्र ने बल का उपयोग करके दबाने का प्रयास भी किया।

बाध्य हुई सरकार

पिछले दो वर्षों में सिंगूर और नंदीग्राम के अतिरिक्त उड़ीसा में वेदांत विश्वविद्यालय, हिमाचल में 'स्की विलेज' और हवाई अड्डा, उत्तर प्रदेश में भट्टा-पारसौल जैसे आन्दोलनों ने सरकार को बाध्य कर दिया कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में बदल कर कोई नया कानून बनाया जाए ताकि जबरन भूमि अधिग्रहण के प्रति लोगों के आक्रोश को थामा जा सके। ऐसे में सरकार ने एक विधेयक का निर्माण किया और उसे संसद में पारित करवाने का भी प्रयास किया गया। बाद में जयराम रमेश द्वारा ग्रामीण विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद एक नया विधेयक बनाया गया, जिसे भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक कहा गया। नये विधेयक के निर्माताओं का यह दावा है कि इसमें भूमि अधिग्रहण के लिए बाजार मूल्य पर मुआवजा देने की बात की गई है। दूसरे, इस विधेयक में बहुफसली खेती के अधिग्रहण पर रोक लगाई गई है और तीसरे, इसमें भूमि अधिग्रहण से पहले सभी पक्षों की राय लेकर ही भूमि का अधिग्रहण करने की शर्त भी लगाई गई है। यही नहीं, पूर्व में भूमि अधिग्रहण में हुई खामियों का निराकरण करने के लिए इस विधेयक को 'किसी' पिछली तिथि से लागू करने की बात की गई है। हम जानते हैं कि कृषि और भूमि राज्यों का विषय है अत: इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों का है इसलिए इनके इस विधेयक के बाद भी राज्य सरकारें अपनी आवश्यकता के अनुरूप कानून बना सकती हैं। इस विधेयक के निर्माताओं का यह भी कहना है कि चूंकि किसानों को भूमि की अच्छी कीमत मिलेगी इसलिए औद्योगिकीकरण एवं विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के संबंध में सुविधा होगी।

खतरे में न पड़े खाद्य सुरक्षा

लेकिन इस विधेयक एवं भूमि अधिग्रहण के विषय में व्यापक विचार के बाद यह कहा जा सकता है कि यह विधेयक कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने के मार्ग को तो प्रशस्त करता है, परंतु देश और कृषि की समस्याओं के संबंध में यह केवल उदासीन ही नहीं है बल्कि इस विधेयक के कानून बनने के बाद देश और कृषि की समस्याएं और ज्यादा बढ़ेंगी। प्रस्तुत विधेयक में यह तो कहा गया है कि बहुफसली भूमि एवं सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जायेगा। लेकिन अन्य प्रकार की कृषि भूमि के अधिग्रहण की छूट दे दी गई है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में विशेष आर्थिक क्षेत्र के संबंध में बनाई गई संसदीय समिति ने यह कहा था कि देश में कृषि के अधीन क्षेत्र 1980 में 1850 लाख हेक्टेयर से घटकर 2003 तक 1830 लाख हेक्टेयर ही रह गया है और यदि प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की बात की जाये तो यह इस कालखंड में 0.27 हेक्टेयर से घटकर 0.18 हेक्टेयर ही रह गई है और गैर कृषि कार्यों के लिए भूमि का उपयोग हर वर्ष 2.25 लाख हेक्टेयर की दर से बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी आंकड़े शायद गैर कृषि भूमि का आकलन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे, क्योंकि उपग्रह से लिये गये चित्रों के अनुसार कृषि भूमि लगातार घटती ही जा रही है। 2005 में बने 'सेज' कानून के बाद तो कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों के लिए अधिग्रहण तेजी से बढ़ा है और लाखों हेक्टेयर भूमि किसानों से छिन कर कंपनियों के पास पहुंच चुकी है। यही नहीं, इस कारण देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता भी घट रही है। 1990 में जहां प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 510 ग्राम थी, वह 2010 तक आते-आते मात्र 436 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है। ऐसे में देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ चुकी है। इन हालात में समय की मांग है कि नये विधेयक में किसी भी प्रकार के कृषि भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाई जानी चाहिए। लेकिन नीति-निर्माताओं का इस बारे में कोई ध्यान ही नहीं है। नये विधेयक में भूमि अधिग्रहण से पूर्व संबंधित पक्ष के लोगों के 80 प्रतिशत द्वारा भूमि अधिग्रहण के पक्ष में राय लेने की बात तो कही गयी है, लेकिन यह राय कैसे प्राप्त की जायेगी इसका कोई तरीका विधेयक में नहीं सुझाया गया। भूमि अधिग्रहण से किसान और गांव के अन्य लोग सभी प्रभावित होते हैं। मुआवजे का प्रश्न भूमि के मालिक को प्रभावित करता है और कृषि श्रमिकों सहित अन्य पक्षों की रोजी-रोटी पर प्रभाव पड़ता है। मुआवजा और किसान से संबंधित विषयों के लिए और पुनर्वास के विषयों के लिए दो अलग-अलग प्राधिकरण बनाये जाने का प्रावधान है। मुआवजा और पुनर्वास दोनों अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे के साथ जुड़े हुये विषय हैं इसलिए दोनों विषयों के लिए एक ही प्राधिकरण होना चाहिए।

अफसरशाही को सब अधिकार

हालांकि भूमि के अधिग्रहण के लिए बाजार मूल्य का गुणक देने की बात की गई है, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि ग्रामीण क्षेत्र में भूमि की कीमत अत्यधिक कम रहती है, इसलिए बाजार भाव देने के बावजूद किसान अपनी भूमि से वंचित होने के बाद भूमिहीन खेतिहर मजदूर बनकर ही रह जाता है। इतिहास गवाह है कि पूर्व में जिन किसानों की भी भूमि अधिग्रहीत की गई, वे आज भूमिहीन खेतिहर मजदूर बनकर रह गये हैं इसलिए भू मालिक से भूमि लेने की सूरत में उसे मुआवजे के रूप में राशि के साथ-साथ विकसित भूमि का भूखंड और उस भूमि पर चलने वाले उद्योग में रोजगार दोनों मिलने चाहिए। ऐसा कोई प्रावधान प्रस्तावित विधेयक नहीं करता।

प्रस्तावित विधेयक का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इसमें अफसरशाही को सभी अधिकार दिये गये हैं और यहां तक कि जिला स्तर तक के न्यायालयों को भूमि अधिकरण के मामलों की सुनवाई करने से वंचित किया गया है। केवल उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय ही इस प्रकार के मामलों की सुनवाई कर सकेंगे। यह अत्यंत खतरनाक विषय है इसलिए प्रस्तावित विधेयक में जिला न्यायालयों के भूमि अधिग्रहण के मामलों की सुनवाई करने के अधिकार को पुन: स्थापित किया जाना चाहिए। अफसरशाही को सार्वजनिक उपयोग के लिए भूमि अधिग्रहण की इजाजत ही नहीं दी गई बल्कि 'सार्वजनिक उपयोग' की परिभाषा ऐसी रखी गई है कि सरकार किसी भी काम को सार्वजनिक उपयोग बताकर भूमि का अधिग्रहण कर सकती है। साथ ही, अधिग्रहीत भूमि को उपयोग न होने की स्थिति में किसान को वापस करने संबंधी भी कोई प्रावधान इस विधेयक में नहीं है। द

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