|
श्री अण्णा हजारे और बाबा रामदेव ने नेतृत्व देकर मानो संपूर्ण देश को भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। जनलोकपाल की मांग पर श्री अण्णा हजारे के अनशन के दौरान गली-गली से एक ही आवाज सुनाई दी-मैं अण्णा हूं। इससे पूर्व बाबा रामदेव के प्रवचनों को सुनने और उनके दर्शन करने के लिए अमृतसर से कन्याकुमारी तक और नेपाल से यूरोप के कुछ देशों तक भारतीय समाज उत्सुक होकर एकत्रित हो गया था। विदेशों में भी उनकी धूम रही और अब भारत सहित पूरी दुनिया ने देख लिया कि एक व्यक्ति जब निस्वार्थ नेतृत्व देता है तो दुनिया उसकी बात सुनती है, पीछे चलती है, पसीना नहीं रक्त भी देने को तैयार रहती है।
अहिंसक आंदोलन
सन् 1942 में गांधी जी के नेतृत्व में जैसा व्यापक आंदोलन चला था और पूरे देश से एक ही हुंकार उठी थी, 'अंग्रेजो, भारत छोड़ो,' भ्रष्टाचारियों के लिए अब वैसा ही जनादेश जारी हो गया है। अण्णा के इस बारह दिन के अनशन और करोड़ों लोगों के आंदोलन ने एक बात और सिद्ध कर दी कि अगर राजनीतिक नेता न चाहें तो जनता कभी भी हिंसक होकर तोड़फोड़ नहीं करती। आमतौर पर देखा गया कि एक दिन की हड़ताल या बंद अथवा कुछ घंटों के रास्ता रोको आंदोलन में ही देश की अरबों की संपत्ति जला दी जाती है। सिर फोड़े जाते हैं। पर जब अण्णा हजारे ने मन से यह कहा कि कहीं हिंसा नहीं होगी, कोई पुलिस से नहीं उलझेगा, तो पूरे देश में वैसा ही शांत वातावरण बना रहा, यद्यपि गली-गली में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नारों की गूंज सुनाई देती रही।
एक खास बात यह भी देखने को मिली कि देश के एक कोने से दूसरे कोने तक वंदेमातरम् का घोष सतत् चलता रहा। स्वतंत्र भारत की सरकारों और तथाकथित सेकुलरवादी नेताओं को वंदेमातरम् में साम्प्रदायिकता की बू आने लगी थी। अब यह सिद्ध हो गया कि उन्हें यह बू अपने मन की दुर्भावनाओं के कारण आती थी। एक बार फिर वंदेमातरम् का महत्व और वर्चस्व उन्हें भी स्वीकार करना पड़ा जो वंदेमातरम् कहने वालों को एक वर्ग विशेष के प्रतिनिधि कहते थे। अण्णा के आंदोलन से एक और सत्य भी सामने आया। मंचों पर दुकान सजाने वाले कुछ नेतागण यह दुहाई देते रहे कि बड़ी उम्र का व्यक्ति नवयुवकों को नेतृत्व नहीं दे सकता। लेकिन चौहत्तर वर्षीय अण्णा हजारे ने हर आयु के व्यक्ति को अपने रंग में रंग लिया और आज वह निर्विवाद जननेता हैं। यह भी सिद्ध हो गया कि राजनीतिक स्वार्थों से दूर रहने वाला व्यक्ति ही राष्ट्र को नेतृत्व दे सकता है, स्वार्थी नहीं। पूरे देश को अण्णा ने जगा दिया। संसद को मजबूरी में जागना पड़ा। पहले दिन अण्णा को गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेजने वाली सरकार को समय रहते समझ आ गया कि विचारों को कारागारों में नहीं डाला जा सकता।
जागने की वेला
अब हमारी बारी है। देखना यह है कि हम कितने दिन जागरूक रहते हैं। किसी खचाखच भरी रेलगाड़ी में जब कुछ पुलिस वाले अथवा रेल कर्मचारी आकर यात्रियों से पैसा ऐंठते हैं तो केवल लुटने वाले ही कभी मुखर और कभी मौन विरोध करते हैं, शेष सहयात्री अपनी-अपनी चमड़ी बचाकर मुंह चुराते दिखते हैं। भरे बाजार में यातायात पुलिसकर्मी गाड़ियां रोककर उनसे रिश्वत वसूलते हैं। देखने वाले मुस्कुराते हुए निकल जाते हैं, सोचते होंगे-जान बची तो लाखों पाए। किसी स्कूल-कालेज में प्रवेश पाने के लिए मोटी रकम देनी पड़ती है। लोग चुपचाप देकर चलते जाते हैं और अब तो इसी बात में शान महसूस करने लगे हैं कि उनके बच्चे महंगे स्कूल में पढ़ रहे हैं। बाबुओं और अधिकारियों को दिवाली-बैसाखी पर भेंट चढ़ाने के बाद घरों में लक्ष्मी पूजन होता है। लोग लूटे जाते हैं, फिर भी वे मुस्कुराने को विवश हैं।
सरकारी तंत्र में खड़े ऊंचे, लंबे, चौड़े भवन सबने देखे हैं। कभी निर्माता-ठेकेदारों से पूछा कि कितने प्रतिशत 'शगुन' देकर वे भवन बनाने का काम प्राप्त करते हैं और बनाने के बाद कितना 'चढ़ावा' लेकर उनके बिल स्वीकार किए जाते हैं? अफसोस तो यह है कि ये करोड़ोंपति ठेकेदार इस कष्ट को कष्ट मानते ही नहीं। उनका एक ही कहना है- सब चलता है, जब सभी सरकारी विभागों में यह हालत है तो एक में कैसे बदलेगी, 'सिस्टम' में रहना ही पड़ता है। पर 'सिस्टम' को कैसे बदला जाता है, यह अब दूसरी 'अगस्त क्रांति' ने दिखा दिया है। प्रश्न यह है कि हम कितने दिन जागते रहते हैं और वैसे ही एक स्वर में इस भ्रष्टाचार का विरोध करते हैं।
मेरी बात शायद कुछ लोगों को अच्छी न लगे, पर यह सच है कि आम आदमी को टू जी या थ्री जी के अरबों-खरबों के घोटालों का न तो पता चलता है और न ही उन पर उस सबका कोई सीधा असर पड़ता है। यह बड़े-बड़े नेताओं का शौक है। हमें तो कष्ट तब होता है जब राशन कार्ड बनाने के लिए, जन्म-मरण का प्रमाण पत्र लेने के लिए, अस्पताल में इलाज करवाने के लिए, वाहन चलाने का लाइसेंस बनवाने के लिए या भारत के स्थायी निवासी होने का प्रमाण पत्र बनवाने के लिए भी 'भेंट' चढ़ाकर छोटे-मोटे अधिकारियों की चरण वंदना करनी पड़ती है। सरकारी कर्मचारी को स्थानांतरित करवाने के लिए भी कुछ मंत्रियों या उनके हस्तकों के हाथ गरम करने पड़ते हैं। वैसे बेचारे नेता भी क्या करें, वे भी वोट लेने के लिए नोट खर्चते हैं। केवल नोट ही नहीं, शराब की नदियां भी बहाते हैं।
मुंह खोलें, विरोध करें
मेरा यह निवेदन है कि जो जाग गए हैं अब वे जागते रहें। हर उस व्यक्ति के साथ खड़े हो जाएं जो रिश्वत न देने के कारण सताया जाता है। जिसे तब तक लंबी पंक्ति में पीछे ही रखा जाता है, जब तक वह सिक्के न चढ़ाए। पेट की आग बुझाने के लिए आटा दाल भी उसे तभी मिलता है जब किसी सरकारी कर्मचारी को पूजे। दुर्भाग्य यह है कि गरीब को गरीब होने का प्रमाण पत्र भी किसी को अमीर बनाकर मिलता है। रोटी बनाने के लिए मिट्टी का तेल जब दोगुने भाव पर मिले, गैस का सिलेंडर रिश्वत में मिले, स्कूलों की किताबें और वर्दी भी ब्लैक में मिलें तब भ्रष्टाचार सहने और देखने वाले खामोश न रहें, वहीं वैसा ही आंदोलन शुरू कर दें जैसा दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ। तभी यह माना जाएगा कि अण्णा द्वारा जगाए लोग जागे हुए हैं, काम कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था, 'उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल नहीं मिलती'। वैसे ही आज श्री अण्णा हजारे और बाबा रामदेव द्वारा जगाए गए राष्ट्र के लोग जागते रहें, देखते रहें और बुराई के विरुद्ध एक स्वर में गरज उठें, तभी रामलीला मैदान से गूंजे संदेश की सार्थकता है। अन्यथा यह राजनीति कौन सा नया सब्जबाग दिखाकर अथवा मतदाताओं को सम्मोहित करके इस आंदोलन को असफल कर देगी, यह अभी कहना मुश्किल है। याद रखना होगा-जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है…। और तय है कि जो खोएगा वह रोएगा ही। निर्णय लें कि अब रोना नहीं, भ्रष्टाचारियों को रुलाना है।द
टिप्पणियाँ