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मैंने इतहास को अंगड़ाई लेते देखा
मन बेचैन था। आठ दिन से मैं टैलीविजन चैनलों और अखबारों में अण्णा आंदोलन के दृश्य देख- सुन रहा था। अन्तरात्मा कह रही थी जो कुछ हो रहा है, वह सामान्य नहीं है, असामान्य है। शायद भारत का इतिहास करवट ले रहा है। अण्णा जैसा अनजाना व्यक्ति पूरे भारत के आलोड़न-उद्वेलन का माध्यम और केन्द्र बिन्दु कैसे बन गया? वे किसी बौद्धिक प्रक्रिया या संगठन प्रक्रिया की देन नहीं हैं। उन्हें निश्चय ही भारत की नियति ने खोजकर सामने लाया है। अण्णा को केन्द्र बनाकर दिल्ली के विशाल रामलीला मैदान में भारत के राष्ट्रीय कायाकल्प का यज्ञ प्रारंभ हो गया है। मन इस यज्ञ का प्रत्यक्ष साक्षी बनने के लिए बेचैन था, पर दो-ढाई महीने से अस्वस्थता के कारण शरीर पूरी तरह साथ नहीं दे रहा था। मैं घर से बाहर नहीं निकल पा रहा था। आखिर, वहां जाने का निश्चय कर ही लिया। वह सोमवार (22 अगस्त) का दिन था। प्रात:काल से ही भारी वर्षा आरंभ हो गयी। टेलीविजन पर रामलीला मैदान को घनघोर वर्षा में डूबता दिखाया जाने लगा। क्या सचमुच वर्षा रानी मुझे वहां नहीं पहुंचने देगी? मेरा परिवार भी मेरे स्वास्थ्य को देखते उस दिन के लिए कार्यक्रम टाल देने का मन बनाने लगा। पर मेरा मन वहां जाने पर अड़ा था, आखिर वर्षा का वेग थोड़ा कम हुआ, रिमझिम तो चलती ही रही, और हम रामलीला मैदान के लिए निकल पड़े। राजघाट से आगे बढ़ते ही युवकों और किशोरों की टोलियां पर टोलियां रामलीला मैदान की ओर बढ़ती दिखायीं दीं। सबके सिरों पर सफेद टोपी, प्रत्येक टोपी पर लिखा था व्मैं अण्णा हूं।व् हाथों में तिरंगा झंडा। जुबान से भारत माता की जय और वंदेमातरम, अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं जैसे नारे। यह दृश्य और नारे देख-सुनकर मुझे अपनी किशोरावस्था में 1942 के व्भारत छोड़ो आंदोलनव् के दृश्यों का स्मरण हो गया। प्रत्येक लाल बत्ती पर राजस्थानी महिलाएं अण्णा टोपी और तिरंगा झण्डा बेचती मिलीं। हमने भी चार टोपियां खरीदकर पहन लीं।
अद्भुत दृश्य
रामलीला मैदान के प्रवेश द्वार तक पहुंचना आसान नहीं था, भीड़ और पुलिस द्वारा लगाए अवरोधों और ताम-क्तक्ता#ाम के कारण। पर हम किसी प्रकार प्रवेश द्वार से कुछ दूरी पर पहुंचकर लाइन में लग गये। प्रवेश द्वार पर पुलिस द्वारा सुरक्षा जांच से गुजरकर मंच की ओर बढ़े। मंच बहुत दूर था, कम से कम आधा किलोमीटर दूर। पूरा मैदान खुला था। बारिश के कारण कीचड़ से भरा था। ऊपर से बूंदा-बांदी चल ही रही। पर, इस सबकी चिंता किये बिना टोलियों पर टोलियां नारे लगाते हुए उमड़ रहीं थीं। किनारे की दीवार पर अपनी भावनाओं को तरह तरह के चित्रों, कार्टूनों, गीतों और नारों के रूप में अंकित कर रही थीं। जगह- जगह लोग स्वेच्छा से पानी के व्पाउचव् नि:शुल्क बांट रहे थे, खाने का सामान दे रहे थे और जिनकी इच्छा थी, वे शांतिपूर्वक खा रहे थे। कहीं कोई धक्का-मुक्की नहीं, छीना-झपटी नहीं, अनुशासन का यह दृश्य दिल्ली में अद्भुत ही था। क्या सचमुच अण्णा के पौरोहित्य में इस राष्ट्रीय यज्ञ ने हमारे चरित्र के शोधन की प्रक्रिया आरंभ कर दी है?
मंच तक पहुंचने के लिए बहुत लम्बा चलना था। चप्पल कीचड़ में धंस रही थीं, ऊपर से इंद्र देवता रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। शंका हुई कि क्या मैं इतनी दूर चल पाऊंगा, पर मन ने कहा कि जरा उनकी ओर तो देखो जो दूर-दूर के गांव-शहरों से इस यज्ञ में आहुति देने के लिए खिंचे चले आये हैं। यहां उनके ठहरने का, खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं है। कई दिन से वे रामलीला मैदान पर डटे हुए है, नीचे कीचड़ है और सिर पर धूप या बारिश, पर वे अडिग हैं। उनमें से कई तो ऐसे हैं जिन्होंने बिना किसी आह्वान के स्वयंप्रेरणा से अण्णा के साथ ही अनशन व्रत आरंभ कर दिया है, कहां वे और कहां तू? अपनी कमजोरी पर मन शर्मिंदा हुआ और मंच तक जाने की शक्ति मिली।
पारदर्शी नेतृत्व
उस समय मंच पर अण्णा नहीं थे। कहा गया कि वे सो रहे हैं। सुनकर बुरा नहीं, अच्छा लगा। अण्णा का शरीर तो टेलीविजन पर देखते-देखते मन प्राण में बस गया है, और अब वे मेरे लिए मानव शरीर से आगे बढ़कर एक प्रतीक बन चुके हैं- आदर्शों का, नि:स्वार्थ लोकसेवा का, निष्कलंक चरित्र का, रचनात्मक दृष्टि और साधना का, और एक अडिग लौह संकल्प का। मंच से अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि अभी केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद आये थे, उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को हमसे संवाद के लिए तय किया है, आप बताएं कि हम जाएं कि न जाएं। उपस्थित विशाल जनसमूह ने हाथ उठाकर कहा अवश्य जाइए। अरविंद ने जवाब दिया कि आपकी अनुमति से हम जा रहे हैं, लौटकर आपको बताएंगे कि वहां क्या हुआ। यह पारदर्शिता मन को छू गयी। अरविंद के बाद मंच पर मेवात के एक मुस्लिम मेव नेता आये। उन्होंने कहा कि हमारे लिए वतन पहले है, मजहब बाद में। इतिहास की याद दिलाकर कहा कि जब बाबर ने हमारे देश पर हमला किया और राणा सांगा उनका मुकाबला करने के लिए हमारे प्रदेश में आये तो हमारे पूर्वजों ने राणा सांगा के पक्ष में युद्ध किया, बाबर के नहीं। उनके उद्गार सुनकर मन गद्गद् हो गया। काश! अब्दुल्ला बुखारी और दारु-उल-उलूम के मुस्लिम नेता भी यह राष्ट्रवादी दृष्टि अपना लेते।
वापस लौटते समय सूचना केन्द्र पर गये। कुछ पत्र-पुष्प भेंट करने की इच्छा से एक महिला कार्यकर्ती से पूछा कि कहां दें। उन्होंने कहा कि हमने व्डोनेशनव् लेना बंद कर दिया है, आप यहां कहीं भी, किसी को भी कुछ न दें। यह भी एक अनपेक्षित अनुभव था। उन्होंने एक पत्रक थमा दिया जिसमें सरकारी लोकपाल विधेयक और जन लोकपाल विधेयक का अंतर बताया गया है। लौटते हुए लम्बे जाम में फंसने का अनुभव आया। पर इस सबसे कष्ट नहीं, आनंद ही हुआ। यह जाम उच्छृंखलता का नहीं, राष्ट्रीय नवोन्मेष का परिचायक था, भारत के कायाकल्प का संकेत था।
अन्तरात्मा की आवाज
मेरी अन्तरात्मा ने 5 अप्रैल को अण्णा के जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठने के क्षण से ही मुझसे कहना शुरू कर दिया कि अण्णा जैसे अनजाने व्यक्ति का दिल्ली के जंतर-मंतर पर आना कोई सामान्य घटना नहीं है, यह भारत की नियति का महत्वपूर्ण संकेत है। आखिर, भारत की 121 करोड़ जनसंख्या में नियति ने अण्णा को ही क्यों चुना? महाराष्ट्र के रालेगणशिंदी नामक एक छोटे से गांव के निम्नवर्गीय किसान परिवार में जन्मा, नवीं कक्षा से आगे पढ़ाई न करने वाला, भारतीय सेना में मामूली ट्रक ड्राइवर की नौकरी करने वाला, जो न लेखक है, न वक्ता है और महाराष्ट्र के बाहर जिसका नाम गया नहीं- ऐसे अनजाने, देखने में सामान्य व्यक्ति को भारत की नियति ने अपना हथियार बनाना क्यों उचित समक्तक्ता#ा? अण्णा सही अर्थों में उस व्भारतव् का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे शहरी इंडिया पिछड़ा हुआ मानता है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि इस अशिक्षित, देहाती भारत के प्रतिनिधि के अनशन पर बैठने के 24 घंटों के भीतर ही वह युवा वर्ग उठ खड़ा हुआ, जंतर-मंतर पर पहुंच गया जिसे हमने क्रिकेट, फास्ट फूड, फैशन, सिनेमा, माल और इंटरनेट का दीवाना समझकर भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने की दृष्टि से नाकारा घोषित कर दिया था, राष्ट्र निर्माण के गणित से बाहर निकाल दिया था। अण्णा और इस वर्ग के मिलन को चमत्कार नहीं तो क्या कहें? क्या इस चमत्कार को हम केवल बौद्धिक व्यायाम या संगठनात्मक दीवारों में कैद होकर समझ सकते हैं? मेरी अंतरात्मा ने तभी से मुझे कहना शुरू कर दिया कि जंतर-मंतर पर जो कुछ हो रहा है वह राष्ट्र के कायाकल्प के यज्ञ का आरंभ है। अन्तरात्मा की इसी वाणी को मैंने 14 अप्रैल को पाचजन्य में प्रस्तुत कर दिया था।
संसद के नाम पर छल
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि राष्ट्र के कायाकल्प का अर्थ क्या है? अप्रैल से अब तक के कार्यक्रम को देखकर लगता है कि शायद जन लोकपाल ही अण्णा आंदोलन की आखिरी मंजिल है। जन लोकपाल का निर्माण संसदीय प्रणाली की भूल-भुलैया में फंसा हुआ है। अप्रैल से यह प्रश्न अण्णा टीम और मंत्री टीम के संवाद में फंसा रहा, जिसके अंत में सरकार ने अण्णा टीम के जन लोकपाल को किनारे रखकर अपना ही लोकपाल विधेयक संसद में विचारार्थ प्रस्तुत कर दिया। इस बीच सोनिया परिषद (एनएसी) के कुछ सदस्यों ने अपना एक वैकल्पिक विधेयक मैदान में उतार दिया और जन समर्थन के बिना ही मीडिया के माध्यम से उसे प्रक्षेपित किया जाने लगा। इससे उत्साहित होकर आंध्र के एक समाज सुधारक जयप्रकाश नारायण ने अपना अलग से मसौदा सरकार को भेज दिया। प्रधानमंत्री ने संसद की सर्वोपरिता का राग अलापना शुरू कर दिया। एक सर्वदलीय बैठक बुला डाली, जिसमें भारतीय राजनीति के वर्तमान चरित्र को देखते हुए एकात्म की संभावना प्रारंभ से ही नहीं थी। सरकार ने अण्णा के अनशन को लम्बा खींचने और समय लेने के लिए अण्णा टीम के साथ वार्तालाप का प्रहसन प्रारंभ किया। और आज 25 अगस्त, 12.15 बजे लोकसभा ने घोषणा की कि सरकारी लोकपाल, अण्णा के जन लोकपाल, सोनिया परिषद और जयप्रकाश नारायण के प्रारूपों को संसद में बहस के लिए प्रस्तुत किया जाएगा और उस बहस में सर्वानुमति से निकले निष्कर्ष के आधार पर एक प्रारूप को स्थायी समिति (स्टैडिंग कमेटी) के विचारार्थ प्रस्तुत किया जाएगा। सरकार के अनुसार कानून बनाने का पूर्णाधिकार केवल संसद के पास है और उसके लिए पूरी संसदीय प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक है। अर्थात सरकार ने राष्ट्रीय कायाकल्प के इस यज्ञ को संसदीय राजनीति में फंसा दिया है।
यह प्रणाली ही भ्रष्ट है
हम प्रारंभ से कहते आ रहे हैं कि भारत को भ्रष्टाचार के गत्र्त में धकेलने, हमारे राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन तंत्र को भ्रष्ट बनाने में उस संसदीय राजनीतिक प्रणाली का ही मुख्य योगदान है जिसे हमने स्वाधीन भारत के लिए अंगीकार किया। उस प्रणाली से निकले राजनीतिक नेतृत्व का उसमें निहित स्वार्थ उत्पन्न हो गया है। वह ऐसे परिवर्तनों को कदापि नहीं अपनाएगा जो उसकी अपनी राजनीतिक आत्महत्या का कारण बन जाए। इन 64 वर्षों में भारतीय संसद के पतन का इतिहास इसका साक्षी है। इसलिए राष्ट्रीय कायाकल्प का अर्थ है इस प्रणाली का भारत की लोकतांत्रिक चेतना के अनुरूप युगानुकूल विकल्प खोजना। इसी को अण्णा बार-बार व्यवस्था परिवर्तन का नाम दे रहे हैं। जंतर-मंतर पर अण्णा ने 7 अप्रैल को दिल्ली में अपना पहला अनशन समाप्त करते समय ही पत्रकार वार्ता में यह घोषणा कर दी थी कि इस आंदोलन को अनेक पड़ावों से गुजरना होगा, और प्रत्येक अगले पड़ाव के लिए संघर्ष करना होगा। अभी भी 18 अगस्त को तिहाड़ जेल से बाहर आने के बाद से अण्णा बार-बार कह रहे हैं कि यह एक लम्बा संघर्ष है। इसका लक्ष्य ग्राम सुधार से लेकर जीवन शैली में परिवर्तन तक आमूल-चूल परिवर्तन लाना है। इसलिए अण्णा बार-बार स्मरण दिला रहे हैं कि अण्णा रहे न रहे, क्रांति की मशाल जलती रहनी चाहिए। आज अनशन का दसवां दिन पूरा हो रहा है, इस बीच उन्होंने अपूर्व नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का परिचय दिया है। वे हर बार युवा पीढ़ी से ऊर्जा मिलने की बात कह रहे हैं और युवा पीढ़ी को इस आंदोलन का मर्म समझने का आह्वान कर रहे हैं।
अण्णा-सच्चे कर्मयोगी
भ्रष्टाचार मुक्त समाज वही हो सकता है जो नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति से ओत-प्रोत है। नैतिक-आध्यात्मिक बल का जागरण तभी संभव है जब व्यक्ति-व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और परिग्रह आदि व्यसनों पर विजय प्राप्त कर सत्य, अहिंसा और शुचिता का जीवन अंगीकार कर ले। वस्तुत: पूरा विश्व इस समय सभ्यता के जिस संकट से गुजर रहा है उससे बाहर निकलने का यही एकमात्र रास्ता है। क्या अण्णा द्वारा प्रवर्तित यज्ञ से गुजरकर भारत विश्व के सामने ऐसे नैतिक-आध्यात्मिक राष्ट्रजीवन का उदाहरण प्रस्तुत कर सकेगा? अण्णा का वैशिष्ट्य इसमें है कि वह मात्र प्रवचनकार नहीं हैं, कथावाचक नहीं हैं, वे सच्चे कर्मयोगी हैं। सेना की नौकरी छोड़कर अपने गांव में वापस लौटने के बाद उन्होंने अपने गांव के कायाकल्प की साधना आरंभ की। जिस गांव के खेत और निवासी पानी के लिए तरसते थे, जमीन सूखी पड़ी थी, उस गांव को अण्णा ने अपनी युक्ति और तपस्या से हरा-भरा और स्वावलम्बी बना दिया। पूरे गांव को नशे के व्यसन से मुक्त बना दिया। गांव में दलित और उच्च वर्ग का भेद मिटाकर समरस समाज जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। मुझे स्मरण है कि 1980 के दशक में रालेगणशिंदी में अण्णा के इस प्रयोग ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकत्र्ताओं का ध्यान आकृष्ट किया था। (स्व.) हो.वे.शेषाद्रि के नेतृत्व में कार्यकत्र्ताओं के एक दल ने रालेगणशिंदी जाकर अण्णा के प्रयोग का सूक्ष्म अध्ययन किया और शेषाद्रि जी ने इस अध्ययन को व्एक कर्मयोगी का गांवव् शीर्षक पुस्तक में प्रस्तुत किया था, जो संघ क्षेत्रों में बहुत चर्चित रही। रालेगणशिंदी से आगे बढ़कर अण्णा इसके पहले छोटे-बड़े पन्द्रह अनशन कर चुके हैं। उनके लगभग सभी अनशन राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध थे और इसमें उन्होंने किसी दल को नहीं बख्शा, चाहे वह कांग्रेस हो या शरद पवार की पार्टी या शिवसेना-भाजपा गठबंधन। दलीय राजनीति से उनकी निरपेक्षता का यह अकाट्य प्रमाण है।
आत्मशोधन का संकल्प लें
क्या यह अनशन अण्णा के जीवन का अंतिम अनशन होगा? क्या इस बार वे ऋषि दधीचि की श्रेणी में पहुंच जाएंगे? पूरा राष्ट्र इस समय उनके जीवन के बारे में चिंतित है, पर अण्णा हर बार मंच पर आकर घोषणा करते हैं कि अण्णा का जीवन महत्वपूर्ण नहीं है, क्रांति महत्वपूर्ण है। उन्हें विश्वास है कि उनके न रहने पर भी हजारों अण्णा पैदा होंगे और वे अपने हाथों में क्रांति की मशाल उठाये रहेंगे, अण्णा के इस विश्वास को पूरा करना ही आज हमारा एकमात्र धर्म है। इसके लिए हमें व्यक्तिश: संकल्प लेना होगा कि हम भविष्य में न कभी रिश्वत देंगे, न रिश्वत लेंगे, न भ्रष्टाचार के साथ कभी समक्तक्ता#ौता करेंगे। आज हमारा समाज जीवन नैतिक पतन के जिस बिन्दु पर पहुंच गया है, उसमें ऐसा संकल्प लेना सरल नहीं है। किन्तु व्यक्ति-व्यक्ति के चरित्र शोधन की प्रक्रिया यहीं से शुरू हो सकती है। जिस आक्रोश और आवेश के साथ युवा पीढ़ी इस यज्ञ में सम्मिलित हो रही है वह उसके भीतर गुदगुदा रही आदर्शवादी प्रेरणाओं का परिचायक है। आखिर, बंगलूरू जैसे शहर में व्आईटी क्षेत्रव् से जुड़े युवाओं के द्वारा 15 किलोमीटर लम्बी मानव श्रृंखला का निर्माण उनके आंखों में तैर रहे आदर्शवादी सपनों के बिना संभव नहीं है। इस ऊर्जा को सही दिशा देना अभी संभव है। जन लोकपाल की बहस को राजनीतिक गलियारों के लिए छोड़कर अण्णा के आंदोलन को जन-जन के आत्मशोधन की दिशा में ले जाना तुरंत आवश्यक है। प्रत्येक नगर, ग्राम और मुहल्ले में ऐसे संकल्प यज्ञों का आयोजन होना चाहिए।द (25 अगस्त, 2011)
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