भारतीय भाषाओं के विरुद्ध षड्यंत्र
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भारतीय भाषाओं के विरुद्ध षड्यंत्र

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Dec 12, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2010 00:00:00

द ब्राजकिशोर शर्मापूर्व अपर सचिव, भारत सरकारप्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार अब भारतीय भाषाओं को भी उनके सम्मानित दर्जे से वंचित करने की तैयारी कर चुकी है। केन्द्र सरकार ने यह निर्णय लिया है कि संघ लोक सेवा आयोग (यू.पी.एस.सी.) की प्रारंभिक परीक्षा के प्रश्न-पत्रों में परिवर्तन किया जाए। अभी तक अभ्यर्थी दो प्रश्न-पत्रों को हल करता था। दोनों ही वस्तुपरक होते थे। इसमें एक था सामान्य ज्ञान का और दूसरा अभ्यर्थी के विकल्प के किसी विषय का। अब इस विषय वाले प्रश्न-पत्र के स्थान पर सन् 2011 से एक नया प्रश्न-पत्र होगा। उद्देश्य है प्रवणता या अभिवृत्ति जानना कि प्रत्याशी में प्रशासक बनने के गुण हैं या नहीं। इस प्रश्न-पत्र के 200 अंक होंगे, जिसमें से लगभग 30 अंक अंग्रेजी समझने की कुशलता के लिए होंगे।उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह मुद्दा अनेक बार उठाया गया कि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा केवल उन सूक्ष्म अल्पसंख्यकों के लिए है जो अंग्रेजी माध्यम से अध्ययन करते हैं। जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं उनके लिए सरकारी नौकरी के द्वार स्थायी रूप से बंद हैं। यह विभेदकारी है क्योंकि बहुसंख्यकों के लिए नौकरी में प्रवेश का कोई अवसर नहीं है।18 जनवरी, 1968 को संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से एक संकल्प पारित किया। इस संकल्प का अनुच्छेद 4 इस प्रकार है-“…और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए,यह सभा संकल्प करती है(क) कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर, जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के कर्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिन्दी अथवा दोनों, जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए, संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यत: अपेक्षित होगा और(ख) कि परीक्षाओं की भावी योजना, प्रक्रिया संबंधी पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के पश्चात अखिल भारतीय एवं उच्चतर केन्द्रीय सेवाओं संबंधी परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं सूची में सम्मिलित सभी भाषाओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में रखने की अनुमति होगी।1977 में डा.दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई थी। डा.कोठारी इसके पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1965) के अध्यक्ष रह चुके थे। इस समिति ने संघ लोक सेवा आयोग, कार्मिक विभाग आदि के विचारों को ध्यान में रखते हुए सर्वसम्मति से यह सिफारिश की थी कि परीक्षा का माध्यम भारत की प्रमुख भाषाओं में से कोई भी हो सकता है।1979 में संघ लोक सेवा आयोग ने इन सिफारिशों को क्रियान्वित किया। इसका संपूर्ण श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई को जाता है, जिन्होंने तुरंत स्पष्ट निर्देश दिए थे। इस परिवर्तन का लाभ उन लोगों को मिला जो महानगरों से बाहर रहते थे और जो अंग्रेजी माध्यम के महंगे विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते थे। उनके पास प्रतिभा थी, वे गुणवान थे, योग्य थे, किंतु अंग्रेजी माध्यम वाले कुलीन लोगों ने उन्हें बाहर कर रखा था।गत 30 वर्षों में यह कभी नहीं सुनाई पड़ा कि जो भारतीय भाषाओं वाले प्रशासक आ रहे हैं वे किसी भी प्रकार से अंग्रेजी माध्यम वालों से कम हैं। किन्तु अब मैकाले के मानसपुत्र आक्रमण कर रहे हैं। एक दांव खेला जा रहा है। कहा जा रहा है कि सुधार हो रहा है। वास्तव में समता के स्थान पर विभेद और पक्षपात किया जा रहा है। ऐसा कोई अध्ययन या अनुसंधान नहीं हुआ जिससे यह निष्कर्ष निकले कि प्रवेश परीक्षा के स्तर पर अंग्रेजी की समझ होना भावी प्रशासक के लिए परमावश्यक गुण है। यह सर्वविदित है कि चयन के पश्चात प्रत्येक चयनित अभ्यर्थी को आधारिक पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण दिया जाता है जिसकी अवधि 3 वर्ष होती है। इसके बाद भी वह अनेक विशेषित पाठ्यक्रमों में भाग लेता रहता है। प्रशिक्षण चलता ही रहता है।यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में एक अंक के कारण भारी अंतर आ जाता है। इस नए प्रश्नपत्र में तो 30 अंक अंग्रेजी ज्ञान को समर्पित हैं। स्पष्ट है कि इसका लाभ अंग्रेजी वालों को ही मिलेगा।इस तथाकथित प्रवणता या अभिवृत्ति की परीक्षा में कुछ भी मौलिक नहीं है। इसका प्रयोग गैरसरकारी संस्थाएं और प्रबंधन संस्थान करते हैं। वहीं से यह नकल किया गया है। यह विचारणीय है कि क्या लोक प्रशासन और निजी उद्योगों का प्रबंधन एक ही है, या उनमें भिन्न गुणों की अपेक्षा है। इस नकल किए गए पाठ्यक्रम में चतुराई से छिपाकर अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को जोड़ दिया गया है। यह घोर आपत्तिजनक है। यह परिवर्तन कोचिंग संस्थानों के लिए वरदान होगा, वहां धन की वर्षा होगी। वे अंग्रेजी वालों के ऋणी रहेंगे। विद्यार्थी के पास कोई विकल्प नहीं है। वह इतने सब अपेक्षित गुण कुछ मास में कहां से विकसित करेगा। ये गुण अर्जित करने में तो अनेक दशक लग जाते हैं।संघ लोक सेवा आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन यह कथा कहते हैं कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से विशाल संख्या में परीक्षार्थी उत्तर देते हैं और यह संख्या निरंतर वृद्धिगत है। (देखें सूची)इस प्रकार यह परिवर्तन-(क) संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 में समाविष्ट समता के उपबंधों का उल्लंघन करता है। यह विभेदकारी है और एक गुट के लाभ के लिए है।(ख) संसद के 18 जनवरी, 1968 के संकल्प और उसमें निहित भावना का अतिक्रमण और उपेक्षा करता है।(ग) यह एक प्रतिगामी कदम है जो कोठारी समिति द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक सिद्धांतों के विपरीत है।(घ) यह भारत के नागरिकों की बहुसंख्या को, संघ की लोक सेवा परीक्षा में सम्मिलित होने और प्रतियोगिता में भाग लेने के अधिकार से वंचित करता है।हम सभी भारतीय नागरिक, जो सामान्य जन का हितैषी होने का दावा करते हैं या जो भारतीय भाषाओं के पक्षधर हैं, का यह कर्तव्य है कि इस प्रतिगामी कदम का प्राण-पण से विरोध करें। पुन:असमानता को प्रतिष्ठापित करने और अंग्रेजी वालों को लाभ पहुंचाने का यह प्रयास विफल किया जाना चाहिए। द10

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