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जिहाद, राजनीति और सीबीआई

by
Aug 8, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2010 00:00:00

द देवेन्द्र स्वरूपकौन अस्वी- कार कर सकता है कि कश्मीर से लेकर केरल तक और गुजरात से लेकर असम तक पूरा देश जिहादी आतंकवाद के जबड़ों में फंसा हुआ है। जिहाद एक विचारधारा है जो पूरे विश्व को लील जाने का लक्ष्य लेकर चली है। भारत लगभग 1200 वर्षों से इस विस्तारवादी विचारधारा से जूझता आ रहा है। उसका काफी बड़ा भूभाग और जनसंख्या बल इस राक्षस के पेट में समा चुका है। शेष भारत के सामने अस्तित्व रक्षा का प्रश्न गंभीर रूप लेकर खड़ा है। भारत मात्र भूखंड नहीं है, एक जीवन दर्शन है, एक साधना पथ है। इस साधनापथ पर सहरुाों वर्ष लम्बी यात्रा के पश्चात् भारतीय मनीषा ने जीव, जगत और ब्राहृ के स्वरूप और संबंधों का साक्षात्कार किया था अनेक जन्म-जन्मांतरों से होते हुए मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य को निर्धारित किया था, उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण के मानदंडों और उन मानदंडों को प्रतिबिम्बित करने वाले समाज जीवन का ताना-बाना बुना था। देश, काल और व्यक्ति के अनुसार उसे परिवर्तनशील और गतिमान बनाया था। उस जीवन दर्शन और जीवन रचना को खोकर जो भूखंड और जनसंख्या बचेगी, वह भारत कहलाने की अधिकारी नहीं होगी, उसका कुछ और ही नाम होगा-पाकिस्तान और बंगलादेश सरीखा।मुस्लिम वोटों के लिएअमरीका के गुप्तचर विभाग द्वारा संकलित गुप्त रिपोटों के अभी हाल में लीक होने से यह स्पष्ट हो गया है कि अफगानिस्तान से लेकर बंगलादेश तक पूरा इस्लाम-पूर्व का भारतीय भूखंड एक सुनियोजित वैचारिक विस्तारवाद का शिकार है जिसका नाभिकेन्द्र पाकिस्तान की सेना, गुप्तचर एजेंसी आईएसआई और अनेक नामों से सक्रिय जिहादी संगठन हैं। इस वैचारिक आक्रमण के विरुद्ध भारत की सफलता का एकमात्र आधार उसकी आंतरिक एकता ही हो सकती है। इस एकता को पैदा करने में राजनीतिक नेतृत्व और राज्य की मुख्य भूमिका होनी चाहिए। किंतु इस समय भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अनेक दलों में विभाजित राजनीतिक नेतृत्व व्यक्तिगत सत्ता के लोभ में उस विस्तारवादी विचारधारा की गोद में चला गया है और उसके हाथों की कठपुतली बनकर सनातन सांस्कृतिक भारत पर आक्रमण कर रहा है। आखिर, मुलायम सिंह यादव द्वारा मुसलमानों से माफी मांगने का इसके अलावा और क्या अर्थ हो सकता है? बिहार में लालू, पासवान और सोनिया पार्टी के बीच मुस्लिम वोटों को रिझाने की जो बेशर्म स्पर्धा इस समय लगी है, उसके कारण अपने मुस्लिम वोट बैंक को बचाने के लिए नितीश को नरेन्द्र मोदी विरोध और भाजपा नेतृत्व के सार्वजनिक अपमान की सीमा तक झुकना पड़ा। जिस मुस्लिम मंत्री जमशेद अशरफ के मंत्रालय में घोटाले के कारण जे.डी.(यू)-भाजपा गठबंधन सरकार को बदनामी झेलनी पड़ी, वह अशरफ मंत्री पद से बर्खास्त होते ही सोनिया पार्टी में चला गया और वहां उसे हाथों हाथ अपना लिया गया। मानो वह घोटाला, उसका भंडाफोड़ और उस पर मचाया गया शोर सब पहले से लिखे नाटक का रिहर्सल मात्र हो।मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए ही भाजपा और संघ परिवार को मुस्लिम विरोधी चित्रित करना इन सब दलों की आवश्यकता बन गयी है। पहले अयोध्या में विवादित बाबरी ढांचे के ध्वंस और 2002 से गुजरात के दंगों का राग अलापना उनकी टेक बन गयी है। मुस्लिम समाज में उदारवादी नेतृत्व को प्रोत्साहन देने और उसके भीतर आत्मालोचन की प्रवृत्ति को बलशाली बनाने के बजाय वे उसे हिन्दू विरोधी मजहबी उन्माद के रास्ते पर धकेलने में जुट गये हैं। उनकी इस राष्ट्रघाती रणनीति का खामियाजा देश की कानून व्यवस्था और सुरक्षा बलों को भोगना पड़ रहा है। यदि संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी का दंड सुनाये जाने पर भी फांसी नहीं दी जाती तो न्याय व्यवस्था का क्या मूल्य रह जाता है? यदि न्यायालय द्वारा दंडित खूंखार आतंकियों को एक अपह्मत विमान में कैद 160 नागरिकों की प्राणरक्षा के लिए उनके रिश्तेदारों, विपक्षी दलों और मीडिया की चीख-पुकार के सामने झुककर रिहा किया जाता है तो देश के सम्मान और मनोबल की रक्षा कैसे हो सकती है? यदि दिल्ली के बाटला हाउस की मुठभेड़ में मोहन चंद शर्मा की दिनदहाड़े शहादत को सोनिया पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा नकारा जा सकता है, तो आतंकवाद विरोधी लड़ाई में पुलिस बल का मनोबल कैसे टिका रह सकता है? आतंकवाद के विरुद्ध नि:शस्त्र, निर्दोष जनता के जानमाल की सुरक्षा के अपने दायित्व को वह कैसे पूरा कर सकती है?निर्भय आतंकी-भयभीत जवान!इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति के.जी.बालकृष्णन को, जो कुछ ही दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं, यह कहना पड़ा है कि जन सुरक्षा के हित में कई बार आतंकियों से मुठभेड़ पुलिस की मजबूरी बन जाती है। भारत की लचर न्याय व्यवस्था और उसमें वोट राजनीति के हस्तक्षेप ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि खूंखार आतंकियों को कानून की गिरफ्त में लाना असंभव हो गया है। शायद लोग भूल गये हैं कि अस्सी के दशक में पंजाब पाकिस्तान प्रेरित जिस आतंकवाद के जबड़ों में फंस गया था, वहां से उसकी रक्षा न्याय व्यवस्था या राजनीति के द्वारा संभव नहीं हुई थी अपितु तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री स.बेअंत सिंह की सहमति से पंजाब पुलिस की पर्दे के पीछे आतंक विरोधी रणनीति के कारण हो पायी थी। उस साहसी रणनीति के द्वारा स्थापित शांति पर सवार होकर जो लोग सत्ता में पहुंचे हैं वे अब उन वीर पुलिसवालों को प्रताड़ित और लांछित कर रहे हैं। उनमें से बहुत से लोगों ने आत्महत्या कर ली, और अनेक जेलों में सड़ रहे हैं। इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या हो सकती है? यही आज कश्मीर में हो रहा है। कश्मीर घाटी में पृथकतावादियों का वर्चस्व छाया है, पृथकतावादी विचारधारा के आवेश में पुलिस पर पथराव किया जा रहा है। कायर राजनेता कश्मीर घाटी को भारत का अंग बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस और सेना पर छोड़कर घरों में सुख भोग रहे हैं किन्तु पृथकतावादियों की चीख-पुकार पर सैनिक अधिकारियों को दोषी ठहराने और दंडित करने के लिए दौड़ पड़ते हैं, ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा हो तो कैसे?इसी क्रम में गुजरात की घटनाओं को देखा जाना चाहिए। 2002 फरवरी से पूरे भारत में झूठे सेकुलरिस्ट गुजरात में मुस्लिम नरमेध का शोर मचा रहे हैं। कभी नरोदा पाटिया, कभी गुलबर्ग सोसायटी, कभी इशरत जहां का एनकाउंटर तो कभी सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर, अपप्रचार का यह सिलसिला अखंड चल रहा है किंतु उनके इस प्रचार का कोई असर गुजरात की जनता पर, जो इन सब घटनाओं की साक्षी है, नहीं हो रहा है। 2002 से अब तक अनेक बार चुनाव हुए, कभी असेम्बली का, कभी लोकसभा का, कभी स्थानीय निकायों का। इन चुनावों में सोनिया, राहुल से लेकर दिग्विजय तक सभी तोपें जुट गयीं पर हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। आज के ही अखबारों में गुजरात में सोनिया पार्टी के प्रवक्ता और विपक्ष के नेता रहे अर्जुन मोधवाडा ने अक्तूबर में होने वाले निकाय चुनाव में अपनी पार्टी की सुनिश्चित पराजय पर चिंता प्रगट की है। सोनिया ने भी यह मान लिया है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी और भाजपा टीम की लोकप्रियता में गड्ढा डालना उनके लिए संभव नहीं है। किंतु उनकी निगाह राज्यों में सत्ता पर नहीं, बल्कि केन्द्र की सत्ता पर टिकी है और उनके लिए पूरे भारत के मुस्लिम वोट बैंक में भाजपा विरोधी भाव गहरा करना आवश्यक है क्योंकि उनकी एकमात्र अखिल भारतीय प्रतिद्वंद्वी भाजपा ही है, अन्य कोई दल नहीं। गुजरात विरोधी प्रचार उसी रणनीति का अंग है।मोदी के खिलाफ सोनिया का षड्यंत्रगुजरात में तीस्ता सीतलवाड, शबनम हाशमी, सेड्रिक प्रकाश, और मुकुल सिंहा जैसे पूर्णकालिक हिन्दुत्व विरोधियों के सहारे वे गुजरात सरकार पर मुस्लिम विरोधी छवि चस्पा करने वाला एक न एक आरोप उछालती रही हैं। कुछ दिन पहले इशरत जहां जैसी निरीह-निर्दोष महिला की झूठे एनकाउंटर में हत्या का आरोप गुजरात सरकार पर लगाया गया और अब सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी कौसर बी को झूठे एनकाउंटर में हत्या का आरोप लगाकर राज्य के गृहमंत्री अमित शाह को सीबीआई ने गिरफ्तार करवा लिया है। पहले मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की विशेष जांच टीम (सिट) के सामने नौ घंटे लम्बी पेशी की अपमानजनक स्थिति पैदा की गयी। सोनिया गिरोह मान बैठा है कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार को गुजरात के भीतर चुनाव के मैदान में हराना असंभव है अत: छल-छद्म के द्वारा वे उनके त्यागपत्र की स्थिति पैदा करना चाहते हैं।जिस इशरत जहां को निरीह-निर्दोष कहा जा रहा था उसके बारे में अमरीका की शिकागो जेल में बंद हेडली ने भारत की राष्ट्रीय जांच टीम के सामने खुलासा किया कि वह काफी पहले से लश्करे तोएबा की फिदायीन टोली की सदस्य थी और नरेन्द्र मोदी की हत्या का दायित्व उसे दिया गया था। अब सोहराबुद्दीन को पाक साफ बताया जा रहा है। उसके असली चेहरे पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है। कुछ समाचार पत्रों में ही प्रकाशित जानकारी के अनुसार, सोहराबुद्दीन लम्बे समय से भगोड़े अन्तरराष्ट्रीय आतंकवादी दाऊद इब्रााहिम के गिरोह का सदस्य था। चार राज्यों-मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र को उसकी तलाश थी। उसके विरुद्ध मध्य प्रदेश में 13, गुजरात में 4, महाराष्ट्र में 2, और राजस्थान में एक अपराध के मुकदमे दर्ज हैं। दाऊद इब्रााहिम गिरोह के सदस्य के नाते सोहराबुद्दीन ने अयोध्या में विवादास्पद बाबरी ढांचे के ध्वंस का बदला लेने के लिए 1993 में अमदाबाद में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पर हमला करने के लिए हथियार बांटने का अपराध कबूल किया था। जांच के दौरान इंदौर जिले के उसके खेत में स्थित कुएं में से 24 ए के 56 राइफलें, 27 हैंड ग्रेनेड, 5250 कारतूस और 81 मैगजीन बरामद हुई थीं। 9 नवम्बर 1995 को उसकी गिरफ्तारी हुई थी। 9 दिसंबर तक एक महीने उसे पुलिस रिमांड पर रखा गया था। इस केस में उसके साथ 60 लोगों के विरुद्ध वारंट जारी हुए थे। उनमें से 14 व्यक्ति गिरफ्तारी से बच निकले। इनमें दाऊद इब्रााहिम, रसूल पट्टी और शरीफ खान की गिरफ्तारी के लिए लाल कार्नर नोटिस भी जारी किया गया था। अमदाबाद के शाहपुर पुलिस स्टेशन में उसके विरुद्ध झूठे प्रमाण पत्र के आधार पर हथियारों की खरीद फरोख्त की शिकायत भी दर्ज है। 6 फरवरी 1999 को सोहराबुद्दीन को मध्य प्रदेश पुलिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया था। वह अपनी पत्नी कौसर बी के साथ फरार हो गया था। फरारी के दौरान उसका अपने भाइयों रुबाबुद्दीन और सबाबुद्दीन के साथ सम्पर्क बना रहा। वह राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के बड़े व्यापारियों से सशस्त्र गिरोह के बल पर रंगदारी में भारी रकम वसूल करता था। इन अपराधों में प्रजापति भी उसके गिरोह का सदस्य था। ऐसे मंजे हुए अपराधी की गिरफ्तारी आसान नहीं थी। हैदराबाद के मुहम्मद नयीमुद्दीन और उसकी बीबी सलीमा की मदद से ही उसे पकड़ा जा सका। नयीमुद्दीन पहले अपने को माओवादी कहता था, बाद में वह पुलिस का एजेंट बन गया। 19 नवम्बर 2005 को सोहराबुद्दीन और कौसर बी हैदराबाद आये। जिसकी जानकारी पुलिस को मिल गयी। आंध्र पुलिस की सहायता से गुजरात पुलिस दल उसे गिरफ्तार करने में सफल हो गया। अब सोहराबुद्दीन की गिरफ्तारी और “हत्या” के लिए कांग्रेस शासित आंध्र प्रदेश की पुलिस भी उतनी ही सहभागी है जितनी गुजरात की पुलिस। राजनीतिक दुर्भाव और पक्षपात का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि पूरा अपप्रचार गुजरात की भाजपा सरकार और पुलिस के विरुद्ध ही केन्द्रित है, आंध्र का कोई नाम भी नहीं ले रहा।कांग्रेस का खिलौना बनी सी.बी.आईयह पूरा अभियान राजनीतिक है, इसका पता तो इससे लग जाता है कि सीबीआई कुछ खबरिया चैनलों और अखबारों को गोपनीय वीडियो व डीवीडी सप्लाई करके मीडिया ट्रायल की स्थिति पैदा कर रही है। टाइम्स नाऊ जैसे चैनल बड़े गर्व से कह रहे हैं कि वह गोपनीय डीवीडी हमें मिल चुकी है। सीबीआई पूरी तरह से सत्तारुढ़ दल का हथियार बन चुकी है। उसकी विश्वसनीयता समाप्त हो गयी है। एक ओर तो वह आरुषि हत्याकांड जैसे अनेक मामलों को सुलझाने में विफल रही है दूसरी ओर वह सत्तारुढ़ दल के हाथ का खिलौना बनकर मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव जैसे नेताओं पर दबाव बनाने का माध्यम बन गयी है। वस्तुत: इस सत्तालोलुप सिद्धांतहीन राजनीति ने समूचे प्रशासन तंत्र को नष्ट कर दिया है। आम नागरिक स्वयं को असहाय पा रहा है। उसे ही इस दुष्चक्र से बाहर निकलने का उपाय खोजना है। अन्यथा भारत भारत नहीं रह पायेगा।द10

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