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चर्चा सत्र

by
Jul 3, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jul 2010 00:00:00

इसमें कोई संदेह नहीं कि 1947 में भारतवर्ष का विभाजन हुआ और तबसे हम दो, या अब तीन, संप्रभु राज्य हैं। किंतु यह एक अस्थाई स्थिति है। तीनों, एक भारत देश हैं जहां एक लंबा, सभ्यतागत संघर्ष चल रहा है। अंतिम परिणाम आना शेष है। इस संघर्ष में समझ, अविश्वास, झगड़े आदि की प्रकृति वही है जिसे पिछले सौ वर्ष के इतिहास में बार-बार देखा जा सकता है। 1947 से पहले जो विचार, भूमिकाएं और स्थितियां मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश सत्ता के माध्यम से व्यक्त होती थीं, कुछ वही तब से पाकिस्तान, भारत और अमरीका के नाम से चल रहा है। इसीलिए पूरी समस्या को विदेश-नीति के खाने में रखकर ठीक से नहीं समझा जा सकता।दुर्भाग्य से भारत की सेकुलर सरकारों ने इस संघर्ष को पहचाना नहीं, इसीलिए उनकी तैयारी भी नहीं रही। 1947 से पहले स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम भागीदारी के लिए कांग्रेस के विविध, विफल प्रयासों और बाद में भारत के पाकिस्तान से सद्भाव बनाने के प्रयासों में एक समानता है। समस्या की सांगोपांग पहचान, उसके उपाय के विकल्प, उन पर गंभीर व खुला विमर्श, तद्नुरूप अपनी नीति स्थिर करना, यह न तब था, न अब है।तात्कालिक समाधान की कोशिशजैसे 1905 से 1947 तक देखा गया, कांग्रेस नेतृत्व मुस्लिम समस्या के संदर्भ में सदैव तात्कालिकता का शिकार रहा। उसके ऊपरी दो-एक नेता अपनी व्यक्तिगत प्रवृत्ति और बुद्धि से किसी उपस्थित प्रश्न का समाधान पाने का यत्न करते थे। एक ही समस्या निरंतर नए-नए रूप में उपस्थित होती थी। फिर भी उसे विस्तृत अध्ययन या विमर्श का महत्व नहीं दिया गया। किसी तरह तात्कालिक प्रश्न से छुटकारा पाने तथा मूल समस्या से नजर बचाने की प्रवृत्ति रही।अधिकांश कांग्रेसी नेता उसी प्रवृत्ति के थे। महर्षि अरविंद जैसे विरले लोग थे जिन्होंने समस्या को आंख मिलाकर देखा। पर मुख्य प्रवृत्ति कतराने की थी, इसलिए ऐसे स्वरों को जानबूझकर सुना नहीं जाता था। किसी बड़े मुस्लिम नेता से “वार्ता” करके जैसी-तैसी, दिखावे वाली भी सही, एकता बनाने की “शार्टकट” चाह ही इन नेताओं की स्थाई प्रवृत्ति रही। यह आसान उपाय की लालसा थी। पर मुस्लिम लीग की अनुचित, अहंकारी मांगों को स्वीकार करके “राष्ट्रीय एकता” बनाने की चाह जितनी दयनीय थी, उससे अधिक समस्या को और बढ़ाने वाली भी। किंतु हमारे नेता उसे नहीं देख पाए, क्योंकि वे देखना ही नहीं चाहते थे। अपनी ही सद्भावना, उदारता पर स्वयं आश्वस्त और किसी समझौते की कागजी उपलब्धि को ही वे समाधान मान लेते थे।इसीलिए जो दृश्य 1947 से पहले था, वही, एक भयंकर विभाजन के बाद भी, रूप बदल अविराम चल रहा है। चाहे, वह भारत के विरुद्ध उसी समय युद्धरत पाकिस्तान को भारत से ही धन (खजाने का हिस्सा) दिलाने के लिए गांधी जी का सफल अनशन हो, चाहे नेहरू द्वारा कश्मीर में पाकिस्तानी हमले को पीछे धकेलती भारतीय सेना को रोक देना, पुन: 1965 के हमलावर पाकिस्तान को भारत द्वारा भूमि वापस करना हो (ताशकंद), या फिर उसके एक नए हमले और हार के बाद 1972 (शिमला) में एक लाख बंदी सैनिकों समेत, जीती जमीन एक बार पुन: वापस कर देना, अथवा और आगे कई मौकों पर किए गए समझौते-एक सद्भावपूर्ण संबंध पाने में इन सबसे मिली विफलता में एक दुखद समानता है। समस्या को इस या उस पाकिस्तानी नेता से “वार्ता” से मिले कोरे शब्दों की उपलब्धि से संतुष्टि के रोग से भारत सरकार सदैव ग्रस्त रही है।अधूरी सोचअनगिनत विफलताओं, विश्वासघातों, आक्रमणों को झेलकर भी भारत का सेकुलर नेतृत्व पुन: उसी लीक के सिवा और कुछ सोच नहीं पाता। क्योंकि वह समस्या के सभी पहलुओं पर विचार ही नहीं करता, करना ही नहीं चाहता कि यह भारतीय या हिन्दू संस्कृति के अस्तित्व और अधिकार की लड़ाई है, जो इसके प्रति स्थाई बैर रखने वाली एक साम्राज्यवादी विचारधारा से है। यह विचार करने के बदले वह उलटे अपनी नई पीढ़ियों से भारत-पाकिस्तान या कांग्रेस-मुस्लिम लीग प्रसंग की सभी बातों, यहां तक कि इतिहास के बड़े-बड़े तथ्यों तक को छिपाता है। इस चिंता से कि “संबंधों” पर बुरा असर पड़ेगा। जबकि पाकिस्तान के नौनिहालों को झूठी बातों से भी भारत के विरुद्ध तैयार किया जाता है। तब यहां एकतरफा “सेंसरशिप” से हमारी नई पीढ़ी अज्ञान में रहेगी, और बार-बार धोखा खाएगी। यही हो भी रहा है।इस बीच, पहले ब्रिटिश और आज अमरीकी सत्ता अपने हितों के लिए कभी हमारे विरुद्ध मुस्लिम लीग कार्ड का उपयोग करती है, तो कभी कांग्रेस (या भारत) की स्थिति से सहमत होते हुए लीग (या पाकिस्तान) पर दबाव डालती है। ताकि अपना हित सधे। ब्रिाटिशों या अमरीकियों की आलोचना करने का कोई अर्थ नहीं, जब हमने अपनी समस्या को उनके “दरबार” में ले जाने की बचकानी आदत डाल रखी है। अंग्रेजों को अपना सर्वाधिक मूल्यवान उपनिवेश अधिकाधिक समय तक अपने हाथ में रखने की चाह थी। उसी तरह, आज अमरीकियों को रूस, चीन या अफगानिस्तान के संदर्भ में एक उपयुक्त “लीवर” या उपकरण चाहिए। पाकिस्तान सदैव न केवल अमरीका बल्कि किसी के लिए “लीवर” बनने के भी लिए तैयार रहा-बशर्ते वह भारत को नीचा दिखाने, संभव हो तो उसे और तोड़ने में सहयोग करे। पाकिस्तान ऐसा क्यों कर रहा है? क्यों वह एक स्वतंत्र मुस्लिम देश बनकर संतुष्ट नहीं हुआ?महर्षि अरविंद की चेतावनीक्योंकि पाकिस्तान वास्तविक देश नहीं है। वह एक बैरी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है, इसीलिए वह विश्व पटल पर सामान्य संप्रभु राज्य की तरह आचरण नहीं करता। उसे भारत पर कब्जा करना है, इसे तोड़ना है, अन्यथा वह स्वयं टूट जाएगा। इससे भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है। यदि वह 1947 के विभाजन को खत्म कर पुन: अखण्ड भारतवर्ष की स्थापना का लक्ष्य देश के सामने नहीं रखा जाता, तो भारत और खंडित होगा। यह चेतावनी महर्षि अरविंद ने 15 अगस्त 1947 को ही दी थी। क्या देश के विभिन्न भागों से इसके संकेत नहीं मिलते रहते हैं?हम यह सब देख, झेलकर भी उस संघर्ष से बचने की बचकानी चाह रखते हैं। जिस दिन भारत इस संघर्ष को आंख मिलाकर देखने के लिए तैयार हो जाएगा, उसी दिन से हमारी विजय आरंभ हो जाएगी। हम चीन, रूस या इरुाायल से कम साधनवान नहीं हैं। ये देश अपनी शिकायतें वाशिंगटन या न्यूयार्क “दरबार” में नहीं ले जाते। हम क्यों ले जाते हैं? क्योंकि हम मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए और अपना उत्तरदायित्व नहीं संभाला। अन्यथा हमारे पास सब कुछ है कि इस संघर्ष में विजयी हो सकें। यह युद्ध हम पर थोपा हुआ है। इससे कतराना न धर्म है, न फलदायक। पर यह मुख्यत: धर्मनिष्ठा, स्वाभिमान, मनोबल और चरित्र का युद्ध है। अस्त्र-शस्त्र या कूटनीति आदि उसके बाद आते हैं। यह समझकर ही कोई उचित नीति बन सकती है। द6

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