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ऐसे कठिन समय में जब पूंजीवाद के हाहाकारी स्वर में आम आदमी की आवाज कहीं गुम-सी होती जा रही है, साहित्य जगत में भी निचले तबके को पूरी तरह उपेक्षित और बहिष्कृत कर दिया गया हो, तो अचरच नहीं किया जाना चाहिए। बावजूद उसके भूले- भटके किसी संवेदनशील रचनाकार की कलम से ऐसी रचनाएं जन्म लेती रहती हैं जो स्थिति की भयावहता को हमारे सामने उजागर करती हैं। ग्रामीण परिवेश से संबंध रखने वाले युवा कथाकार गोविंद उपाध्याय का दूसरा कथा संग्रह “समय, रेत और फूकन फूफा” कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में संकलित कुल 20 कहानियों में आम आदमी के जीवन के विविध पक्षों को पूरी संवेदनशीलता के साथ उभारा गया है।संग्रह की शीर्षक कहानी “समय, रेत और फूकन फूफा” एक ऐसे किसान की गंवई चालाकियों की कथा है जो अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर गुजरता है। हालांकि कथानक की दृष्टि से यह कहानी किसी गंभीर या विचारणीय ग्रामीण परिवेश से जुड़े प्रश्न को नहीं उठाती है लेकिन इसकी आंचलिक भाषा और ठेठ गंवईपन से भीगी शैली पाठक को बांधे रखती है। ग्रामीण परिवेश और परम्पराओं से जुड़ी एक अन्य मार्मिक कहानी “उपेक्षा” में नायक की मां और पत्नी के वैचारिक मतभेद को सशक्तता से उभारा गया है। अतीत को आधुनिकता के समक्ष समर्पण करना ही पड़ता है, इसका मार्मिक चित्रण इस कहानी में किया गया है।ग्रामीण अंचलों में आज भी शादी- विवाह के मामले किस तरह तय किए जाते हैं और किसी काबिल लड़के के पिता उसकी पूरी कीमत वधू पक्ष से वसूलने के लिए किस तरह लालायित रहते हैं, इस मानसिकता को चुटीले अंदाज में लेखक ने कहानी “दामोदर मिसिर का लरिका” में व्यक्त किया है। राजसत्ता हासिल कर अंधी कमाई करने की भूख अपने देश की व्यवस्था में हर स्तर पर मौजूद नजर आती है, फिर वह चाहे सांसद, विधायक का चुनाव हो या गांव के सरपंच का। सत्तालोलुप व्यक्ति कुर्सी हथियाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं, इसी मानसिकता को व्यंग्यात्मक पुट के साथ कथाकार ने “धोती” कहानी में उभारने का सफल प्रयास किया है।संग्रह में शामिल कुछ अन्य कहानियों में बाजारवाद और पूंजीवाद की दुरभिसंधि से उपजी त्रासद स्थितियों का भी मार्मिक चित्रण किया गया है। “विकसित और विकासशील” कहानी में निजी कंपनियों की मनमानी और वहां काम करने वाले कर्मचारियों की दुर्दशा को कथानक का आधार बनाया गया है तो “मोहभंग” में लोकतंत्र के चौथा स्तंभ कहे जाने वाली पत्रकारिता को भी पूंजीवाद के पिछलग्गू होने की विडम्बनापूर्ण स्थिति को कहानी का विषय बनाया गया है। संग्रह में शामिल कुछ अन्य कहानियां, जैसे नाटक तो चालू है, नया घर और अंत:व्यथा में भी मानवीय संबंधों और जीवन की विडम्बनापूर्ण स्थितियों को कथाधार बनाया गया है। शेष कहानियां भी पठनीय हैं और लेखक के कथाशिल्पी होने को प्रमाणित करती हैं।दपुस्तक- समय, रेत और फूकन फूफालेखक- गोविंद उपाध्यायप्रकाशक- विकास प्रकाशन, 311-सी,विश्व बैंक कालोनी, बर्रा, कानपुर-208027मूल्य- 175 रु., पृष्ठ- 11621
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