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परबतिया की सामाजिक सुरक्षाप्रकृति, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, जीवन मूल्य, पर्व-त्योहार और नाते-रिश्तों से हमारा विविध रूप रंग-रस व गंध का सरोकार रहता है। हमारी प्रकृति व संस्कृति परस्पर पूरक हैं, परस्पर निर्भरता ही इनका जीवन सूत्र है। हम उनके साथ रिश्तों के सरोकार से विलग नहीं रह सकते, लेकिन बदलते दौर में यह ऊष्मा लगातार कम हो रही है। इन सरोकारों में आई कमी कहीं न कहीं हमारे मन को कचोटती है। प्रकृति व संस्कृति के संरक्षण के लिए इन सरोकारों को बचाये रखना बहुत जरूरी है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत है यह स्तंभ। -सं.द मृदुला सिन्हाअत्यंत पिछड़े गांवमें जन्मी परबतिया का विवाह बगल के गांव में ही हो गया था। छुटपन से ही मां की बकरियों को चौर में चराने ले जाती परबतिया का कब ब्याह, कब गौना हुआ, उसे कुछ स्मरण नहीं। पर गांव में आए भूकंप, बाढ़, आग लगी सबका हिसाब है उसके पास। हर-प्राकृतिक या मानवीय प्रकोप में मरने वालों की सूची कंठाग्र है। इन हादसों में मरने वालों के परिवारों की हालत वह आंखों देखी खबर की तरह बयां करती है। और उन दुर्दिनों में गांव के समर्थ लोगों द्वारा दी गई सहायता भी। एक दूसरे के आंसू पोंछते गांव ने अपना दु:ख गांव में ही दफना दिया। न राहत देने कोई कभी आया, न कोई मांगने बाहर गया। अपने घरवालों के साथ परबतिया भी मालिक के खेत में बनहारी (मजदूरी) करती थी। पिछले वर्ष उसके गांव में बड़ा कारखाना लगा है। बाजार भी बने। मजदूरों के रहने के लिए छोटे-छोटे घर भी। उसकी बहुएं उस कारखाने में काम करती हैं। वे मजदूरनियों के संघ की अध्यक्ष और मंत्री भी बनी हैं। दोनों बहुएं अपनी सास की तुलना में अपने काम और समय को बेहतर बताने के प्रयास में रहती हैं। उस शाम सविता ने कहा – “मां जी! हमें तनख्वाह के अलावा भी बहुत सी सुविधाएं मिलेंगी। बच्चे के जन्म पर तनख्वाह के साथ छुट्टी, पौष्टिक भोजन के लिए पैसे आदि-आदि।” परबतिया गांव में हो रहे हर परिवर्तन से अपने समय के रीति-रिवाज का मिलान करती रहती है। उसके समय में “मेटरनिटी लीव” जैसी सुविधाएं तो नहीं थीं। सविता ने कहा- “उनके खेत में काम करतीं आप लोग तो मालिक की गुलाम थीं, गुलाम।”परबतिया को यह बात लग गई। उसने कहा- “नहीं रे। हम गुलाम नहीं थे। खेत से आया अनाज जब तक मालिक की कोठी में न चला जाए, हम ही मालिक थे। खेत को जोतना-कोड़ना, पानी पटाना, बीज डालना, निराई करना सब हमारा काम। फसल को काटने से लेकर दौनी करने और मालिक के बखारी में पहुंचाने तक। तुम्हारे ससुर एक दिन काम पर न जाए तो मालिक के यहां खलबली मच जाती थी। बीमार पड़ने पर मालिक के घर से दवा-दारू और खाने की सामग्री भी आ जाती। सुबह-शाम मालिक स्वयं हालचाल पूछने आ जाते। हम ही खेती-बाड़ी और फसल के मालिक थे। इसलिए वे हमारे बारे में सोचते और हम उनके खेत और माल-मवेशी के बारे में। बरसात के दिनों में बाढ़ आती थी। खेत में काम नहीं रहता था। उन दिनों मालिक हमें कर्जा देकर जिन्दा रखते थे। अन्न के बिना हम मर जाते तो उनका खेत कौन जोतता?”बड़े ध्यान से सुन रही थी सविता। बोली – “मां जी! फैक्ट्री की नौकरी में बच्चे के जन्म के बाद भी सुविधाएं मिलेंगी।”परबतिया जोर से हंसी। हंसी थाम कर बोली- “हमारे बच्चा होने के समय तो हमें कुछ करना ही नहीं होता था। केवल दर्द सहना। बाकी सब मालकिन करती थी। मेरी सास मालकिन के कान में कह देती- “हमारी बहू पेट से है।” फिर तो मालकिन मेरे बच्चे होने का दिन गिनतीं, मैं नहीं। पुराने धुले कपड़े, शुद्ध सरसों का तेल, अजवाईन, हल्दी सब वे ही सहेजतीं। बच्चा पेट में पलता तब भी और बाद में भी, कुछ-कुछ अच्छा खाना अपने घर से भेजतीं। मेरी सास को बुलाकर समझातीं – “परबतिया को भरपेट भोजन दिया कर। द्विजीवा है न।” या – “बच्चे को दूध पिलाती है न! उसे भरपेट भोजन चाहिए। रूखा-सूखा भी नहीं।” जब तक मेरा बच्चा दूध पीता, वे मजदूरी में धान ही देतीं। सुबह -सुबह मेरे घरवाले को सीख देतीं- “अपनी घरवाली को भरपेट चावल, दाल और माड़ खिलाओ। सब्जी भी। तभी दूध होगा। बच्चा पलेगा। तुम अभी दो कौर कम भी खाओगे तो चलेगा।”मेरा घरवाला उन्हें चिढ़ाता-मालकिन! आपके खेत में बैल की तरह खटता मैं हूं और आप मेरी घरवाली की चिंता करती हैं। मैं भूखा रहूं तो कैसे काम करूंगा आपके खेत में?””अरे बिसवा! तुम भी तो बाल बच्चों के लिए ही मेहनत करते हो। घरवाली से ही घर और बाल बच्चे हैं।” बहुत कुछ समझाती थीं। तुम्हारे ससुर जी मालकिन को मां के समान ही मानते थे। दोनों बहुएं, सास की सुनने और गुनने पर बाध्य हो जातीं। परबतिया को नये जमाने की पढ़ी-लिखी बहुएं भी पसंद हैं। उनकी कारखाने की नौकरी भी। पर अपने जमाने को कमतर मानने के लिए वह तैयार नहीं थी। उस दिन सविता और मालती अपने बच्चों को तैयार करके साथ ले जाने लगीं।परबतिया ने पूछा- “क्या आज काम पर नहीं जा रहीं। बच्चों को कहां ले जा रही हो?”सविता ने कहा- “मां जी! अब हम अपने बच्चों को भी कारखाने में ही रखेंगे। वहां “क्रेच” है। एक महिला सब बच्चों की देख-रेख करेगी। है न अच्छी बात।”परबतिया हंसी । बोली- “बहू! हम भी गोदी का बच्चा तक खेत पर ही ले जाते थे। मालिक के घर में काम हो तो बच्चा वहीं खेलता। कभी-कभी तो मालकिन ही उसे खिलाती-खेलाती। फसल की कटाई के समय बच्चा खेत पर ले जाती। पहले फसल काटकर उस पर कपड़ा बिछाकर बच्चे को सुला देती। दो तीन बड़े बच्चे उसकी रखवाली करते। जिस फसल के बौझे पर बच्चा सुलाती थी, वह फसल मालिक नहीं लेते थे। उनमें से 8-10 सेर अन्न निकल ही आता। उस बच्चे का हिस्सा होता। दूसरे छोटे बच्चे भी अपने उठाने लायक फसल घर ले आते। मालिक देखकर भी अनदेखा कर देते थे। मालिक से हम, हम से मालिक थे। अब तो वह जमाना रहा नहीं।”परबतिया की आंखों से जलधार बह चली सविता ने कहा-“क्या हुआ? आप रोईं क्यों?”आंखें पोंछती परबतियां बोली- “बुढ़िया मालकिन की याद आ गई। उनके अपने नाती-पोते पटना, बनारस रहते थे। हर छ: महीने पर वे उनके सारे पुराने कपड़े मंगवातीं। टूटे बटन टांकतीं, उधड़ी हुई सिलाई सिलतीं, फिर हमारे बच्चों को अपने हाथों पहनातीं। अब कहां वैसी मालकिन मिलेंगी। गांव की सारी उपजाऊ जमीन लेकर इतना बड़ा कारखाना बना दिया। कारखाने में इतने सामान बनेंगे। देश-विदेश जाएंगे। क्या तुम्हारा कारखाना हमारी मालकिन जैसी मालकिन पैदा कर सकता है? नहीं न! फिर कहां से मिलेगा तुम लोगों को वह प्यार? पैसा चाहे जितना मिल जाए।”सुनीता की सास को मिली सामाजिक सुरक्षा के सामने निश्चय ही कारखाने की मजदूरनी को मिली सुविधाएं फीकी पड़ जातीं। सविता को मिलने वाली सुविधाओं में रकम ज्यादा है, पर परबतिया के मालिक-मालकिन द्वारा दी गई सुविधाएं परिवार के एक प्रमुख सदस्य के नाते मिली सुविधाएं थीं। तभी तो आज भी परबतिया मालकिन का स्नेह और सरोकार स्मरण कर बिलखती है। सविता की आंखें भी भर आईं, मालकिन द्वारा मिली सामाजिक सुरक्षा की स्मृतियों में। परबतिया तो आज भी सुरक्षित है।सविता ने कहा-“मां जी! आपकी बातें सुनकर लगता है कि आपका ही समय अच्छा था।”परबतिया ने कहा- “नहीं! समय कोई, अच्छा बुरा नहीं होता। समय तो समय है। तुम लोगों को कारखाने में ही काम करना है। कारखाने वाले ही मालिक-मालकिन हैं। उनका काम ही मन लगाकर करो। अपने काम के लिए ही वे तुम्हें सुविधाएं देते हैं। अब मालिक, मालिक का अंतर है तो है-तुम क्या कर सकती हो।”दोनों बहुओं ने सहमति में सिर हिलाए। पर उनके मन में एक आकांक्षा उपजी-“काश! हमारे कारखाने में सास जी की मालकिन जैसी मालकिन का निर्माण हो पाता?” द13
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