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विशेष सम्पादकीय

by
May 12, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 May 2010 00:00:00

द बल्देव भाई शर्मायत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:।जहां कृष्ण हैं, वहां धर्म है और जहां धर्म है, वहां जय है।-वेदव्यास (महाभारत, भीष्म पर्व, 66/35)बिहार में राजनीतिक क्रांतिबिहार ने पूर्व में बाबू जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आंदोलन की ज्वाला से आपातकाल के घने अंधकार को चीरकर भारत के लोकतंत्र को प्रकाशमान किया था। अब फिर से बिहार ने लोकतंत्र का एक नया अध्याय लिख दिया है। कांग्रेस व उसके सहयोगी रहे सेकुलर दलों व उनके नेताओं ने सत्ता की राजनीति, राजनीति के अपराधीकरण, सत्ता के बल पर भ्रष्टाचार, जातिगत व पांथिक विद्वेष के उभार और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को जनाकांक्षाओं पर थोपने को ही लोकतंत्र का पर्याय बना दिया था, लेकिन राज्य की जनता ने बता दिया है कि राजनीति के केन्द्र में अब यह सब नहीं चलने दिया जाएगा, बल्कि जनहित ही लोकतंत्र और राजनीति की धुरी बनेगा। गुजरात से चलकर छत्तीसगढ़ होते हुए यह संदेश अब बिहार से गुंजायमान हुआ है, पूरे देश में इसकी अनुगूंज उठे और राजनीतिक परिदृश्य बदले, इस चुनाव के बहाने बिहार में हुई राजनीतिक क्रांति का यही संदेश है, क्योंकि ताजा चुनाव परिणामों के बाद बिहार सुशासन, विकास व स्वस्थ राजनीति की एक नयी पहचान बनकर उभरा है जिसने तमाम सामाजिक व राजनीतिक दुराग्रहों को ध्वस्त कर एक नई संरचना की ओर कदम बढ़ाए हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में अपना कार्यकाल पूरा करने वाली राजग सरकार ने राज्य में सुशासन, विकास व स्वस्थ राजनीति की जो नींव रखी, उसे लालू राज के 15 वर्षों में जुमलों की राजनीति से बड़ा धोखा खा चुकी जनता ने आशंकित मन से जांचा-परखा और जब वह आश्वस्त हो गई तो इस विश्वास की एक बुलंद इमारत खड़ी करने और बिहार का खोया हुआ गौरव पुनस्स्थापित करने के लिए अब इस सरकार को प्रचंड बहुमत दे दिया। इस प्रबल जनाकांक्षा का ही परिणाम है कि इस बार बिहार के चुनावों में मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने, बाहुबलियों की राजनीतिक व हिंसा जैसी लोकतंत्र विरोधी गतिविधियां कहीं दिखाई नहीं दीं। जिन लोगों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए बिहार व वहां की जनता को एक मजाक बनाकर रख दिया था, उन्हें मतदाता ने पूरे जोर से झटककर कूड़ेदान में फेंक दिया है। इस उपक्रम में सबसे सशक्त बनकर उभरी है महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। पुरुषों के 50.77 प्रतिशत मतदान के मुकाबले महिलाओं के 54.85 प्रतिशत मतदान के आंकड़े इसका साक्ष्य हैं। राजग सरकार ने पंचायतों में उन्हें 50 प्रतिशत आरक्षण देकर सामाजिक व राजनीतिक जीवन में महिलाओं को जो सम्मान का स्थान दिया था, उसे उन्होंने बखूबी समझा और अपनी यशस्वी भूमिका निभाई।इस चुनाव परिणाम से लालू यादव, उनके सहयोगी रामविलास पासवान व एकला चलो के गुमान से भरी कांग्रेस सदमे में है। जनता ने एक बार फिर लालू यादव के जन-विश्वासघात को करारा तमाचा जड़ा है और बता दिया है कि लोकतंत्र का अर्थ मसखरों की जुमलों व छलावों से भरी राजनीति नहीं है बल्कि भारतीय संविधान में जिस लोक कल्याणकारी राज्य की संकल्पना प्रस्तुत की गई है, उसका सतत् पारायण है। लालू यादव ने “माई” (मुस्लिम-यादव) समीकरण, अगड़ों-पिछड़ों की राजनीति, गरीब-अमीर के द्वंद्व व परिवारवाद के सहारे जिस भ्रष्ट व आपराधिक राजनीति का जाल बुना उसे समझने में भोली-भाली जनता को 15 वर्ष लगे। लालू राज की उद्दंड आकांक्षाओं को इसी बात से समझा जा सकता है कि पटना उच्च न्यायालय ने उसे “जंगल राज” की टिप्पणी से आरोपित किया था। उन्होंने अपने जातीय समीकरण के दम पर राजग सरकार के विकास पथ पर कांटे बिखेरने का जो दावा किया था, जनता ने उसकी हवा निकाल दी। जनता जान गई कि जो व्यक्ति चुनाव जीतने के लिए सिवान जेल में बंद माफिया शहाबुद्दीन से मिलकर चुनावी गणित बिठाने का प्रयास कर रहा है, वह जनद्रोही है। अपने 15 साल के कुशासन के बाद लालू यादव जनाक्रोश को भांप गए थे, इसलिए पिछले चुनाव में भी उन्होंने जनता से अपनी भूलों के लिए माफी मांगी और इस बार “हम बिहार के विकास व सम्मान के लिए अपना जीवन दान दे चुके हैं” जैसे जुमले उछालकर पुन: धोखे का जाल फैलाया, लेकिन जनता ने इस झांसे में न आकर उन्हें इतना तगड़ा झटका दिया कि उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जिन्हें राज्य में अपनी राजनीतिक विरासत बचाए रखने के लिए उन्होंने दो बार मुख्यमंत्री बनवाया था, दोनों स्थानों से चुनाव हार गईं और लालू का राजनीतिक महल भरभराकर गिर पड़ा। उन्होंने “गरीबों के मसीहा” का ढोंग रचकर जिस सामंतवादी व परिवारवादी राजनीति का दुष्चक्र खड़ा किया, जिसके परिणामस्वरूप चारा घोटाले जैसे हजारों करोड़ के अनेक भ्रष्टाचारी प्रकरण सामने आए और बिहार मानो एक परिवार की जागीर बन गया, बिहार की अधिसंख्य जनता अपमान व अभावों की जिंदगी जीने को मजबूर होकर देशभर में भटकती हुई आर्थिक विस्थापन का दर्द झेलती रही। ऐसे लोकतंत्र के अपराधियों की यही सजा हो सकती है, जो बिहार की जनता ने उन्हें दी है क्योंकि उसके समक्ष राजग सरकार ने जनाकांक्षाओं को पूरा करने वाला एक भरोसेमंद विकल्प प्रस्तुत किया।रामविलास पासवान जैसे लोग जो अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए राष्ट्रहित को ताक पर रखकर मुस्लिम वोटों के लिए कभी जिहादी आतंकवाद के सरगना ओसामा बिन लादेन के मुखौटों का सहारा लेते रहे तो कभी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा व सामाजिक ताने-बाने को एक षड्यंत्र के तहत छिन्न-विछिन्न करने में लगे करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों को भारत की नागरिकता देने जैसी राष्ट्रघाती मांगें उठाते रहे, वह लालू यादव के बगलगीर होकर जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें भी राज्य के मतदाता ने धूल चटा दी। इससे साफ है कि जनता न तो देशहित पर आघात बर्दाश्त करती है और न जनहित की उपेक्षा, मौका पड़ने और विश्वसनीय विकल्प सामने आने पर वह ऐसे तत्वों पर कसकर वार करती है। बिहार की जनता ने यह दिखा दिया है। प्रत्येक राजनीतिक दल व राजनेता को यह एक सबक है। पप्पू यादव, आनंद मोहन सिंह, साधु यादव, सूरजभान, प्रभुनाथ सिंह जैसे बाहुबली, जो कभी लालू यादव व कांग्रेस की छत्रछाया में राजनीति का जनविरोधी चेहरा बन गए थे, इस चुनाव में सबको मुंह की खानी पड़ी, क्योंकि राजग सरकार ने पिछले पांच वर्षों में बिहार में जंगलराज को खत्म कर कानून का राज स्थापित किया और 70 प्रतिशत से ज्यादा अपराधी जेलों में डालकर जनविश्वास अर्जित किया।यह चुनाव परिणाम कांग्रेस व उसके युवराज राहुल गांधी के लिए अत्यधिक शर्मनाक साबित हुआ है। कांग्रेस, जो राज्य में राजग सरकार के विकास की मुहिम की खिल्ली उड़ाती थी और कहती थी कि यह विकास तो केन्द्र के पैसे से हुआ है, मतदाता ने उसे बता दिया कि विकास का असली श्रेय किसे है। लालू यादव के साथ “सम्मानजनक” चुनावी समीकरण न बैठ पाने की वजह से एकला चलो का नारा देकर कांग्रेस ने जो चुनावी अभियान शुरू किया उसका आधार बनाया झूठ व भ्रम को। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर सांप्रदायिकता का कार्ड खेलने से भी वह नहीं चूकी और मुस्लिम मतदाता को बरगलाने के लिए उसकी मिलीभगत से मोदी व नीतीश का एक साथ फोटो प्रकाशित कराके भ्रम फैलाने का प्रयास किया गया। लेकिन भांडा फूट गया। ये सारे हथकंडे तो कांग्रेस के किसी काम आए ही नहीं, “युवराज” के करिश्मे की भी हवा निकल गई। बिहार की जनता, विशेषकर युवाओं ने राहुल गांधी की युवा अपील पूरी तरह खारिज कर दी। राहुल ने जिन 17 विधानसभा क्षेत्रों में पूरा जोर लगा दिया, वहां सिर्फ एक सीट ही कांग्रेस जीत सकी और दो विधायक भी चुनाव हार गए। पूरे राज्य में पार्टी की जो दुर्गति हुई वह बेहद शर्मनाक है, क्योंकि वह पिछली विधानसभा की सीटों से आधी भी नहीं जीत सकी और सिर्फ 4 पर सिमट गई। सोनिया पार्टी के लिए इससे बुरा क्या होगा कि उसके प्रदेश अध्यक्ष को भी जीत नसीब नहीं हुई। जिस राहुल गांधी के करिश्मे को वह बिहार के रास्ते पूरे देश में प्रभावी बनाना चाहती थी, उसका मुलम्मा उतर गया। बिहार ने राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए चलाए जा रहे “मिशन 2012” को भी तगड़ा झटका दिया है, क्योंकि जब “युवराज” के करिश्मे की कलई खुल गई तो उ.प्र. में उनका पुरसाहाल पूछने वाला कौन होगा? जो कांग्रेसजन राहुल गांधी में भावी प्रधानमंत्री की छवि और कांग्रेस का भविष्य तलाश रहे थे, वे अब बेहद सदमे में हैं। बिहार ने बता दिया है कि राहुल गांधी की राजनीति हवाई और नाटकीय है, जन सरोकारों से उसका दूर का भी रिश्ता नहीं।इन चुनाव परिणामों ने पूरे देश को यह संदेश दिया है कि जनाकांक्षाओं को धता बताकर सत्ता स्वार्थों की राजनीति लंबी नहीं चलती, जनहित और विकास यदि सरकार की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर नहीं होंगे और जन सरोकारों को यदि राजनीतिक संबल नहीं मिलेगा तो किसी भी सरकार और किसी भी दल को अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल होगा। राज्य की राजग सरकार के जन सरोकारों का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उसने 5 साल के शासन में विकास पर 36000 करोड़ खर्च किए और लालू यादव के 15 वर्षों के शासन में सिर्फ 25000 करोड़ खर्च हुए थे। गांव-कस्बों तक सड़कों का जाल फैलाते हुए इस सरकार ने करीब 10 हजार किमी. लम्बी सड़कों का निर्माण कराया है, जबकि लालू यादव बिहार की सड़कों को एक लोकप्रिय अभिनेत्री के दमकते चेहरे जैसा चमकाने का जुमला उछालते रहे और ग्रामीणों की सड़कें बनवाने की मांग पर कहते थे कि सड़क बनेगी तो गांव में पुलिस आएगी, तुम्हारे लिए परेशानी पैदा करेगी। यह है सत्ता स्वार्थों व जन सरोकारों की राजनीति में अंतर, जिसे जनता ने पिछले 5 वर्षों में बखूबी समझा और दिल खोलकर सराहा। इसी का परिणाम है राजग को मिला प्रचंड बहुमत जिसमें उसे 84 प्रतिशत से भी ज्यादा सीटों पर विजय मिली। विपक्षी दलों का तो अस्तित्व ही लगभग समाप्त हो गया। गठबंधन में जनता दल (यू) व भारतीय जनता पार्टी दोनों को ही खूब बढ़त मिली है, लेकिन भाजपा ने 102 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़कर 91 पर जीत के साथ 90 प्रतिशत सीटें जीतकर इतिहास रच दिया है। उसे पिछली 55 सीटों के मुकाबले 36 सीटें ज्यादा मिलना इस बात का द्योतक है कि भाजपा के खिलाफ मुस्लिम साम्प्रदायिकता भड़काने का विरोधी दलों का सारा षड्यंत्र विफल हो गया। गुजरात में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार की हवा तो पहले ही कई बार निकल चुकी है, लेकिन बिहार चुनाव परिणामों ने देश की राजनीति को स्पष्टत: यह संदेश दे दिया है कि मुस्लिम विरोध का भ्रम फैलाकर भाजपा को न तो अलग-थलग किया जा सकता है और न उसके विजयरथ को रोका जा सकता है, क्योंकि निष्पक्ष व ईमानदार तरीके से की गई राजनीति के मर्म को अंतत: जनता समझती है और सुशासन व विकास का पलड़ा जाति-मत-पंथ की राजनीति से भारी होता है। शायद कहीं न कहीं नीतीश कुमार के मन में भी कुछ संशय रहे होंगे तभी गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा बिहार के बाढ़ पीढ़ितों के लिए भेजी गई राशि उन्होंने वापस कर दी और चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी के शामिल होने से उनके बचने की भी खबरें आती रहीं ताकि मुस्लिमों के बीच कोई गलत संदेश न जाए। लेकिन जब गुजरात में पिछले हर चुनाव में मुस्लिम मतदाता मोदी के साथ खड़ा होता रहा है तो बिहार में राजग सरकार के सुशासन में भूमिका निभाने वाली भाजपा से वह क्यों कतराएगा? यह बिहार की जनता ने बता दिया है। इसलिए ऐसे सभी संशय खत्म हो जाने चाहिए। राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे राजनीतिक दुराग्रहों से बाहर निकले, यह संदेश भी इन चुनाव परिणामों से मिलता है। बिहार का गौरव जगाने, राज्य को नया चेहरा- नया तेवर देने के वादे के साथ यह सरकार चुनकर आई है, इसलिए एक बड़ी चुनौती व बड़ी उम्मीद का सामना भी इसे करना पड़ेगा। अपने प्रशासकीय कौशल से यह सरकार जनाकांक्षाएं पूर्ण करने में सफल होगी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा के सहयोग से राज्य को एक नूतन रचनात्मक दिशा देने में सफल होंगे, बिहार की जनता का यह विश्वास स्तुत्य है। उसके इस विश्वास की हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए।4

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