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गरीब देश के अमीर जन प्रतिनिधि

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Apr 7, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Apr 2010 00:00:00

डा.सतीश चन्द्र मित्तलभारत विश्व के गरीब देशों में से एक है। अत: यहां के सांसदों का भी आर्थिक दृष्टि से पिछड़ापन होना स्वाभाविक है। परंतु वे इतने बेचारे भी नहीं है कि उन्हें गरीब देशों की कोटि में रखा जाए। डा.राममनोहर लोहिया ने 1946 ई.में अपने एक भाषण में भारत के भविष्य का चित्र खींचते हुए बताया था कि स्वतंत्र भारत में आर्थिक क्षेत्र में एक अमीर व एक गरीब में अधिक से अधिक एक और दस से अधिक अनुपात का अंतर न होगा। परंतु आज इस संदर्भ में सोचना कोरी कल्पना ही लगती है। भारत की जनसंख्या में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 28 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है। गरीबों की जनसंख्या 38 प्रतिशत है। आज भी प्रति एक हजार में केवल 226 व्यक्ति ऐसे हैं जो नियमित वेतन पाते हैं। शेष दिहाड़ी मजदूर हैं या अन्य किसी तरह पेट पालते हैं। स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े देखें तो भयभीत करने वाले हैं। जहां 50 प्रतिशत बालक असंतुलित आहार से ही मर जाते हैं। एक विश्वव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार भारत में विश्व के समकक्ष मध्यम वर्ग है ही नहीं। इसके अनुसार वर्तमान संदर्भ में मध्यम वर्ग के लिए प्रत्येक व्यक्ति की दैनिक आय कम से कम 10 डालर अर्थात लगभग 450 रुपया होनी चाहिए। इस श्रेणी में मुश्किल से केवल 5 प्रतिशत व्यक्ति आते हैं। शेष बचता है एक छोटा- सा अमीर वर्ग जो लाखों, करोड़ों, अरबों में खेलता है।सांसदों का वर्तमान वेतन एवं भत्तेवर्तमान समय में प्रत्येक सांसद को 16000 रुपया मासिक वेतन मिलता है, जो एक वर्ष में 1 लाख 92 हजार रुपया बनता है। परंतु अतिरिक्त सुविधाओं तथा भत्तों के रूप में देश के खजाने से अपूर्व धनराशि मिलती है। इसमें नि:शुल्क सुसज्जित आवास, 34 हवाई यात्राएं, प्रथम श्रेणी की रेल सुविधाएं, स्वास्थ्य संबंधी असीमित धन, टेलीफोन की डेढ़ लाख लोकल काल आदि आते हैं। संसद के दिनों में 20,000 रुपया मासिक अतिरिक्त मिलता है। यह बड़ा आश्चर्य है कि चरण सिंह महतो की अध्यक्षता में बनी 11 सदस्यों की एक संयुक्त संसदीय समिति ने सांसदों का वेतन पांच गुना बढ़ाने की मांग की है। अर्थात वेतन 16000 रुपया से बढ़ाकर 80000 रुपया मासिक करने की सिफारिश। उनका कथन है कि यह वेतन भारत के सरकारी सचिव से केवल एक रुपया ज्यादा होना चाहिए। स्वाभाविक है कि वेतन के अनुपात में भत्ते का खर्च भी बढ़ेगा। उपरोक्त प्रस्ताव से संभवत: देश के प्रधानमंत्री को भी कोई एतराज नहीं है।विश्व के गरीब देशों से तुलना करेंनिश्चय ही उपरोक्त वेतन तथा भत्ते दुनिया के समृद्ध देशों से कम हैं। उदाहरण के लिए अमरीका के सांसदों को प्रतिवर्ष 77 लाख, आस्ट्रेलिया में 54 लाख, कनाडा में 70 लाख, जर्मनी में 55 लाख, इटली में 68 लाख, नार्वे में 53 लाख, फ्रांस में 39 लाख तथा इंग्लैंड में 44 लाख रुपया वार्षिक मिलते हैं।आर्थिक दृष्टि से भारत विश्व के अनेक गरीब देशों में आता है, अत: औचित्य यही है कि भारत के सांसदों के वेतन की तुलना भी उसके समकक्ष देशों से की जानी चाहिए। क्या संयुक्त संसदीय समिति को इसकी तुलना नेपाल, म्यांमार, लंका, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि देशों से नहीं करनी चाहिए। विशाल जनसंख्या वाले देश चीन या रूस, कोरिया, थाईलैंड या अन्य देशों के सांसदों के वेतन से नहीं करनी चाहिए?सांसदों की शैक्षणिक योग्यतायह उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारत में सभा, समिति ही नहीं, बल्कि ग्राम पंचायत के सदस्य बनने के लिए विशिष्ट योग्यताएं थीं। उदाहरणत: चोल शासन में ग्राम पंचायत का सदस्य वही बन सकता था जिसकी आयु कम से कम पैंतीस वर्ष हो, जिसके पास एक एकड़ जमीन हो तथा एक वेद का ज्ञाता हो अर्थात् जीवन के उतार चढ़ाव से अनुभवी, आर्थिक दृष्टि से संतुष्ट तथा शैक्षणिक दृष्टि से विद्वान हो।यह सर्वविदित है कि वर्तमान काल में 26 नवम्बर, 1949 को, भारत की संविधान सभा में बिना वेतन के सेवा करने वाले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान की मूल प्रति पर हस्ताक्षर करते हुए दो असहनीय दु:खों की अभिव्यक्ति की थी। प्रथम, भारतीय संविधान, भारत की किसी भी भाषा में न होने पर अंग्रेजी में है तथा दूसरे, संविधान में जन प्रतिनिधि के लिए कोई भी शैक्षणिक योग्यता नहीं रखी गई। अत: भारत का कोई भी अनपढ़ अथवा अशिक्षित व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच सकता है। जबकि विश्व के प्राय: सभी देशों में सांसदों के लिए स्पष्ट निर्देश हैं।भारत के संदर्भ में यह शैक्षणिक योग्यता तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि संसद की संयुक्त समिति ने सांसद का वेतन भारत के सचिव से एक रुपया अधिक करने की मांग की है। यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में सचिव आई.ए.एस. कैडर से आते हैं। अत: उनकी नियुक्ति कठोर परिश्रम तथा कड़ी प्रतियोगिता का परिणाम होता है। सांसद के लिए भी समान शिक्षा, योग्यता तथा अनुभव होना चाहिए। अच्छा तो यह होता कि संसद की गरिमा व प्रजातंत्र की प्रगति के लिए भारतीय संविधान में परिवर्तन कर सांसद की निम्नतम योग्यता निर्धारित हो ताकि सांसद यह कह सके कि पारित किए विधेयक में क्या-क्या बातें दी गई हैं।वर्तमान सांसदों की आर्थिक स्थितिसंयुक्त समिति के ही एक सदस्य ने अपने एक लेख में भारत के सांसदों की दयनीय तथा मजबूर स्थिति का वर्णन करते समय उसका वेतन एक क्लर्क से भी कम बतलाया है। वस्तुत: ये अमान्य तथा अतार्किक है। यदि सांसद की चुनाव से पूर्व उसके द्वारा ही दी गई आर्थिक स्थिति का अवलोकन करें तो स्पष्ट होता है कि अधिकतर सांसद लखपति या करोड़पति हैं। अत: वे बेचारे नहीं हैं और न ही गरीब देशों से पीछे हैं।काम के अनुसार वेतन होवर्तमान संसद के केवल दो सदस्यों ने भारत के प्रधानमंत्री से मिलकर इस तर्कहीन वेतन बढ़ोतरी की आलोचना की तथा देश की सामाजिक, आर्थिक तथा भारतीय श्रमिकों की स्थिति के संदर्भ में मूल्यांकन करने का आग्रह किया। क्या समान काम के अनुसार समान वेतन का सिद्धांत सांसदों पर लागू नहीं होता है? यह सर्वविदित है कि संसद की बैठकें नियमित रूप से घटती जा रही हैं। 1952-61 के दशक में लगभग 124 बैठकों का अनुपात था जो पिछले दशक में घटकर कुल 81 बैठकों का रहा। अर्थात 34 प्रतिशत काम कम हुआ। इसी भांति राज्यसभा में 20 प्रतिशत कम काम हुआ। अत: बैठकों में कमी, सदस्यों की बढ़ती अनुपस्थिति, नित्य बढ़ते हंगामे, असंसदीय व्यवहार, ऊंघते अथवा मौनी सांसद, उसके स्वरूप को जाहिर करते हैं। क्या अनुपस्थिति का वेतन नहीं कटना चाहिए?स्वतंत्र आयोग की नियुक्ति होअत: यह आवश्यक लगता है कि भारत के सांसदों के वेतन तथा भत्तों का भुगतान भारत की आर्थिक स्थिति के अनुकूल हो। यह समान काम तथा योग्यता के सिद्धांत पर हो, देश के सर्वोच्च जन प्रतिनिधियों के वेतन निर्धारण के लिए एक स्वतंत्र आयोग की नियुक्ति की जाए। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सांसद जनता के प्रतिनिधि हैं न कि सरकारी नौकरशाह या वेतनभोगी कर्मचारी। उनका वेतन उनकी गरिमा के अनुसार दिया जाना चाहिए। वे स्वयं अपना वेतन तय करें ऐसी हास्यास्पद स्थिति नहीं होनी चाहिए।20

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