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अभी भी समय है संभलें देश के कर्णधार

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Apr 7, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Apr 2010 00:00:00

लक्ष्मीकान्ता चावलाआज बहुत समय बाद मैं फिर लिख रही हूं कि देश के रहबरो यह उत्तर दो कि काफिले क्यों लुटे? यह जून का महीना है और सन् 1857 के मई-जून के महीने में देशभक्त शस्त्र हाथ में लेकर कानपुर से दिल्ली तक चल रहे थे और उनका दिल भारत की स्वतंत्रता के लिए तड़प रहा था। वैसे हम उन दिनों पराधीन थे, पर कुछ गद्दारों को छोड़कर सारा देश भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए कमर कसकर तैयार हो गया।10 मई, 1857 को मंगल पांडे ने पहली गोली चलाकर स्वातंत्र्य आंदोलन का जो सूत्रपात किया, वह गंगा की प्रखर धारा की तरह बढ़ता गया। उसमें भारत के बेटे-बेटियों ने स्मरणीय बलिदान दिए। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना जी पेशवा, खुदाबख्श, अजीमुल्ला, मोती बाई और काशी बाई जैसे बाहदुर भारत पुत्र-पुत्रियां राष्ट्र गगन में अपनी अमिट छाप छोड़ गए।देश के कर्णधारों से मेरा ही नहीं, हर संवेदनशील भारतवासी का यह प्रश्न है कि शासन चलाने और नीतियां बनाने में कहां गलती कर दी, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप आज भी लोग दिल्ली का घेराव कर रहे हैं। किसी ने उत्तर प्रदेश से आकर दिल्लीवासियों का पानी बंद करवा दिया और दूसरी दिशा से यह धमकी आ रही है कि अगर उन्हें पिछड़ी जाति घोषित न किया गया तो वे दिल्ली का पानी ही नहीं, दूध, सब्जी, अनाज आदि की आपूर्ति बंद करवा सकते हैं। आजादी से पहले लोग सर्वस्व समर्पण के लिए आते थे और अब दिल्लीवासियों पर, या यूं कहिए भारत की सरकार पर दबाव बनाने के लिए आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि नीतियां बनाने में और फिर लागू करवाने में बहुत बड़ी-बड़ी गलतियां हमारी सरकारें कर चुकी हैं, अब भी कर रही हैं। कोई तो उत्तर दे कि जो नियम 1947 से लेकर 1952 के मध्य कुछ वर्षों के लिए बनाए गए थे, वे सदा के लिए कैसे हो गए? क्या कोई ऐसी औषधि है जो जीवन भर के लिए लाभकारी हो सकती है? ओढ़ने-पहनने की क्या कोई ऐसी व्यवस्था है जो गर्मी और सर्दी में एक-सी प्रभावी होती है। देश उन्नति कर रहा है, पर आश्चश्चर्य है कि लोग पिछड़ रहे हैं। यह सच्ची बात है कि स्वतंत्रता के पहले दशक में जितने वर्ग अनुसूचित जातियों में शामिल किए गए, उससे कहीं ज्यादा आजादी के सातवें दशक में हो गए हैं। कोई मानेगा कि देश आगे बढ़ रहा है और लोग पिछड़े हो रहे हैं। ऐसे ही पिछले सप्ताह भारत सरकार ने पंजाब में गरीबी रेखा से नीचे परिवारों की संख्या दोगुनी स्वीकार कर ली। क्या मजाक है? आम आदमी की औसत आय बढ़ रही है, बड़े-बड़े भवन खड़े हो रहे हैं, चंद्र ग्रह तक हमारी पहुंच होने ही वाली है। कुछ अमीर लोग करोड़ों रुपयों की केवल एक ही कार खरीद लेते हैं और कार का वीआईपी नंबर लेने के लिए लाखों उड़ा रहे हैं। आम जनता के खास प्रतिनिधि उन सभी सुख सुविधाओं से संपन्न हो गए हैं जो 1975 तक नहीं मिलती थीं। इसका अर्थ यह है कि देश अमीर हो रहा है, पर गरीबी रेखा से नीचे लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसका सीधा कारण यही है कि जिन्हें सहारा चाहिए था उनके लिए हम कुछ नहीं कर सके।अभी-अभी पंजाब के ही गांवों में काम कर रहे डाक्टरों ने एक सर्वेक्षण कर रपट दी है कि जो बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं, प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते हैं, उनमें से अधिकतर खून की कमी से पीड़ित हैं। खून की कमी तो तभी होती है जब भरपेट भोजन न मिले और भरपेट भोजन तो उसी वर्ग को नहीं मिलता जो अत्यंत गरीब है। कौन नहीं जानता कि अत्यंत गरीब लोगों में से अधिकांश नशे के दलदल में फंसे हैं। भारत के सभी प्रांतों में शराब बेच-बेचकर राजस्व कमाया जा रहा है। इसमें केवल गुजरात ही अपवाद है। अपने देश और प्रदेशों के जो लोग बहुत गरीब हैं उनकी जीवनशैली का सर्वेक्षण करवाया जाए तो यही परिणाम मिलेगा कि आबकारी विभाग को अधिक आय उस वर्ग द्वारा दी जा रही है जो वर्ग गरीब है या गरीबी रेखा के नीचे जीने के लिए सिसक रहा है।इसके साथ ही एक सर्वेक्षण यह भी होना चाहिए कि ऐसे कितने लोग हैं जो अनुसूचित जाति में 1950-60 के बीच स्थान पा गए और अब वे उन्नति करके शिखरों पर बैठे हैं। शिक्षा, व्यापार, उद्योग के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर चुके हैं, फिर भी अत्यंत गरीब का अधिकार और उनको मिलने वाला लाभ वे ले रहे हैं। शिखरों पर बैठे यह लोग केवल भाषण देकर उन लोगों को गुमराह करते हैं जिन्हें वास्तव में सहारे की आवश्यकता है। जिनकी तरफ बढ़ाया हुआ थोड़ा सा भी मदद का हाथ उन्हें बहुत आगे ले जा सकता है। पर कहीं राजनीतिक मजबूरियां, कहीं तुष्टिकरण और कहीं निजी हित उनका भला नहीं होने दे रहे, जिन्हें वास्तव में सहायता और सहारा चाहिए।दक्षिण भारत के एक दो प्रांतों में तो सम्प्रदाय के आधार पर आरक्षण देने की पूरी तैयारी हो चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका देकर कुछ लोगों ने अभी इसे रुकवाया है, पर अपने देश का राजनीतिक ढांचा इसे कब तक रुकने देगा, नहीं कहा जा सकता।देखिए देश कहां से कहां पहुंच गया। जून, 1857 में हम देश की आजादी के लिए बलिपथ पर बढ़ने और मरने को तैयार थे। जून, 2010 में हम अपने को पिछड़ा वर्ग घोषित करवाने के लिए दिल्ली का दिल घायल कर रहे हैं। पानी रोक लिया और अब अन्न और दूध, सब्जी और फल रोकने की धमकी दे चुके हैं। इसलिए देश के बुद्धिजीवियों को, विश्वविद्यालयों में बैठे शिक्षाविदों को, राजनीति के क्षेत्र में कार्य कर रहे वोटभक्त नहीं, राष्ट्रभक्त नेताओं को मुखर होना होगा और पूरे देश में एक स्वर बुलंद करना होगा कि जो आर्थिक दृष्टि से पीछे रह गए उन्हें आगे लाना है। जो सुविधा, सहारा, आरक्षण देना है, उनको देना है जो गरीबी रेखा के नीचे हैं, स्कूलों से बाहर हैं, जिनके लिए महाकविसुमित्रा नंदन पंत ने यह कहा था-इन कीड़ों का भी मनुज बीजयह सोच ह्मदय उठता पसीजस्वंतत्रता से पहले एक कवि ने लिखा था-लपक चाटते जूठे पत्ते,जिस दिन मैंने देखा नर कोसोचा क्यों न टेंटुआघोटा जाए उस जगपति कामेरा अब यह कहना है कि अगर आज भी इस देश के बच्चे जूठे पत्ते चाटते हैं, भूखे पेट स्कूल में आकर केवल दोपहर के भोजन की प्रतीक्षा में तड़पते हैं, खून की कमी के कारण स्कूलों से बाहर जाते हैं, तो अब शिकायत जगपति से नहीं, राष्ट्र के नेताओं से है और होनी भी चाहिए। आज देश की आवश्यकता यह है कि जात-पांत के बंधनों से देश को मुक्त किया जाए और जिसे जिस सहायता की आवश्यकता है वह दी जाए। धर्म और संप्रदाय, जाति और वर्ग यह उनकी चर्चा का विषय है जिनका पेट जरूरत से ज्यादा भर चुका है। भूखे का धर्म तो रोटी है और हमें रोटी सबको देनी है। मुझे आश्चर्य है कि वर्गहीन समाज की बात करने वाले, वसुधैव कुटुम्बकम का विश्व को संदेश देने वाले आज जनगणना में भी जाति की चर्चा कर रहे हैं। दिल्ली में जो हो रहा है, जो करने की धमकियां दी जा रही हैं, उसके लिए मुझे अपने देश के नेताओं से सीधा-सीधा यही कहना है-तू इधर-उधर की न बात करयह बता कि काफिले क्यों लुटेमुझे राहजनों से गर्ज नहीं,तेरी रहबरी का सवाल हैअभी भी बहुत कुछ बचा है। जागो और देश को संभालो। केवल नेताओं का नहीं हर संवेदनशील राष्ट्रभक्त नागरिक का कर्तव्य है कि वह उनको जगाए जो देश की नीतियां बनाते और देश को चलाते हैं। दलड़का-लड़की एक समानद विजय कुमारआपातकाल के समय भारत में इंदिरा गांधी और संजय की तूती बोलती थी। इंदिरा गांधी के बीस और संजय के चार, अर्थात् 24 सूत्रों के कारण लोग चौबीसों घंटे मुंह बंद रखने को मजबूर थे। जबरन नसबन्दी के उस दौर में “लड़का हो या लड़की, बच्चे सिर्फ दो” तथा “दो बच्चों का लक्ष्य महान, लड़का-लड़की एक समान” जैसे नारे हर दीवार पर लिखे मिलते थे। इनका अर्थ उस समय तो समझ में नहीं आता था, पर “लड़का-लड़की एक समान” वाली बात अब जरूर पूरी होती दिखाई दे रही है।बचपन में जब कभी सड़क से कोई ऐसी कार निकलती, जिसे कोई महिला चला रही हो, तो हम बच्चे आश्चर्य से कहते – देखो, देखो, लड़की कार चला रही है। ऐसा ही आश्चर्य उन्हें स्कूटर चलाते देखकर होता था, पर अब तो हर चौथे वाहन को चलाने वाली महिलाएं ही होती हैं। टैक्सी और बस से लेकर, रेल और वायुयान तक वे चला रही हैं। इससे लड़का-लड़की की समानता पर संदेह नहीं रह जाता।पहले लड़के प्राय: विज्ञान और लड़कियां इतिहास, गृह विज्ञान, चित्रकला आदि लेती थीं, पर अब यह भेद नहीं रहा। लड़कियां पुलिस और सेना में जा रही हैं, तो लड़के भी होटल मैनेजमेंट के नाम पर खाना पका और खिलाकर झूठे बर्तन साफ कर रहे हैं। पहले लड़के फुटबाल, हाकी, वालीबाल आदि खेलते थे और लड़कियां रस्सीकूद या गिट्टू, पर अब सब दूरदर्शन और कम्प्यूटर पर क्रिकेट देखकर ही फिदा हैं।पहले छोटे लड़के निक्कर और बड़े पैंट पहनते थे। छोटी लड़कियां फ्राक या स्कर्ट तथा बड़ी सलवार कमीज पहनती थीं, पर अब जीन्स ने यह भेद मिटा दिया है। इतना ही नहीं, लड़का हो या लड़की, घर और घर के आसपास सभी बरमूडा पहने दिखते हैं। वह निक्कर है या पैंट, यह मैं आज तक नहीं समझ पाया। लड़कियां बाजार और कालिज में भी बड़ी शान से निक्कर पहन कर आ जाती हैं, पर लड़के यहां कुछ पिछड़ गये हैं। जीन्स को अधिकतम नीचे पहनने की भी प्रतियोगिता सी चली है। कई बार एक हाथ मोबाइल और दूसरा कमर पर जीन्स के साथ होता है। हाथों का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या होगा, सचमुच भगवान ने सोच समझ कर ही दो हाथ दिये हैं। दुपट्टा तो इतिहास की चीज हो गया है, पर साड़ी अभी अस्तित्व बचाये हुए है।नाक-कान के आभूषण भी पहले नारी वर्ग के श्रंृगार थे, पर अब लड़के यहां भी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। वे कान के साथ ही होंठ और भौंहें छिदवा रहे हैं, तो लड़कियां नाभि में मोती टंकवा रही हैं। चूड़ियां, बिछुवे, पायल और सिंदूर से सजे लड़के मैंने अभी नहीं देखे, पर फैशन युग में वह दिन भी शायद आ ही जाएगा।लड़का-लड़की एक समान का मामला यहीं समाप्त नहीं होता। पहले महिलाएं धूम्रपान नहीं करती थीं। गांव में वे भले ही कभी हुक्का गुड़गुड़ा लेती हों, या खेत में मेहनत मजदूरी कर बीड़ी पी लेती हों, पर अब तो लड़का हो या लड़की, सभी खुलेआम धुआं उड़ाते मिलते हैं। घर में मौका न मिले, तो बाहर सही। शहरों में इसकी अच्छी सुविधा है। राजीव नगर वाले सोनिया विहार में जाकर सिगरेट पी लें, तो कौन देखता है?शराब के क्षेत्र में भी लड़कियां तेजी से समानता की ओर बढ़ रही हैं। शादी-विवाह में दो-चार घूंट लगा लेना और बात है, पर शराब की दुकान पर ही बोतल खोलकर गटगट करने का दृश्य सचमुच बड़ा वीभत्स लगता है। कल जब एक युवती शराब के नशे में अस्त-व्यस्त सी एक नाले में पड़ी दिखाई दी, तो मैं समझ गया कि हमारे दूरदर्शी नेताओं और समाजसेवियों का “लड़का-लड़की एक समान” वाला सपना अब शीघ्र ही पूरा होने को है।पर इनमें से किस समानता पर गर्व करूं और किस पर शर्म, यह निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूं। यदि संभव हो, तो आप ही कुछ सहायता करें।11

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