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रूप हैं, रंग हैं, और सब ढंग हैं, जल रही आंख की हर नमी के लिए, आदमी ही नहीं आदमी के लिए। छूटती जा रही हर सतह क्या करें? शाम होने लगी है सुबह क्या करें? सोचता कौन है सरजमीं के लिए? आदमी ही नहीं, आदमी के लिए। एक माहौल जन्मा कहीं थम गया, जोश का स्वर बर्फ-सा कहीं जम गया। लक्ष्य ही रह गया हर कमी के लिए। आदमी ही नहीं आदमी के लिए। चेतना यों मिली, आस्था सो गई, भीड़ के तंत्र में क्रांति ही खो गई। शंख बजने लगे मातमी के लिए। आदमी ही नहीं आदमी के लिए।27
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