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अवसरवादी राजनीति में सिद्धांतों की कोई महत्ता नहीं रहती, ऐसा ही कुछ कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस के बनते-बिगड़ते संबंधों के विषय में कहा जा सकता है। नेशनल कांफ्रेस के निर्माता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला कांग्रेस के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की सहायता से जम्मू-कश्मीर के “प्रधानमंत्री” बने, किन्तु 1952-53 में जब वे जम्मू-कश्मीर को एक प्रकार से स्वतंत्र राज्य बनाने तथा जनमत संग्रह का राग अलापने लगे तो उन्हें पद से हटाकर जेल में डाल दिया गया, जहां वे 11 साल तक बंद रहे। इससे पूर्व महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध हिंसा भड़काने के आरोप में भी शेख अब्दुल्ला लगभग साढ़े तीन साल जेल में रहे थे।1975 में कांग्रेस की ही नेता तथा प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला से फिर समझौता कर लिया। इस प्रकार कश्मीर की सत्ता एक बार फिर शेख अब्दुल्ला को सौंप दी गई। 1977 में जब केन्द्र में श्रीमती इन्दिरा गांधी को हार का मुंह देखना पड़ा तथा कांग्रेस के स्थान पर जनता पार्टी की सरकार बनी तो कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस के संबंध फिर टूट गए। 1983 में चुनाव के पश्चात डा. फारुख अब्दुल्ला नेशनल कांफ्रेंस के मुख्यमंत्री बने तो कांग्रेस ने अब्दुल्ला परिवार तथा उनके परिजनों के विरुद्ध कई गंभीर आरोप लगाए तथा एक लाल रंग की पुस्तिका भी निकाली, जिसे “लाल किताब” के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस किताब में अब्दुल्ला परिवार द्वारा नाजायज ढंग से अरबों रुपए की सम्पत्ति जुटाने का उल्लेख किया गया था। इसके अतिरिक्त उग्रवादी संगठन जे.के.एल.एफ के प्रमुख अमानउल्ला खान के साथ फारुख अब्दुल्ला के संबंधों की भी खुलकर चर्चा थी।1984 में कांग्रेस ने फारुख अब्दुल्ला के बहनोई जी.एम.शाह के साथ मिलकर नेशनल कांफ्रेंस की सरकार का तख्ता पलट दिया किन्तु फिर कश्मीर घाटी में साम्प्रदायिक दंगे हुए, मंदिर तोड़े गए। तब 1986 में कांग्रेस ने फिर से नेशनल कांफ्रेंस के साथ नाता जोड़ लिया। राजीव-फारुख समझौते के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में फिर से कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेस की सरकार बनी। 1986 में दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा उसमें व्यापक धांधली हुई, जिसके परिणामस्वरूप आतंकवाद का जन्म हुआ। जब केन्द्र में वी.पी. सिंह की सरकार बनी और मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री बने तो फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर लंदन भाग गए।1996 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो नेशनल कांफ्रेंस ने अलगाववादियों के साथ मिलकर चुनाव का बायकाट किया, किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री देवेगौड़ा ने फारुख अब्दुल्ला को चुनाव में भाग लेने के लिए मना लिया तथा 1996 के अक्तूबर में फिर से नेशनल कांफ्रेंस की सरकार गठित हुई। इसके बाद से डा. फारुख अब्दुल्ला कांग्रेस को जमकर कोसते रहे तथा पीठ में छुरा घोंपने के आरोप लगाकार सभी के सामने कानों को हाथ लगाकर यह कहते रहे कि वह जिन्दगी में कभी कांग्रेस के साथ नाता नहीं जोड़ेंगे। जब केन्द्र में राजग सरकार बनी तो नेशनल काफ्रेंस इसका एक अंग बन गई तथा श्री वाजपेयी के मंत्रिमंडल में श्री उमर अब्दुल्ला विदेश राज्यमंत्री रहे। इस प्रकार पिछले कई सालों से कांग्रेस तथा नेशनल काफ्रेंस के नेता एक दूसरे के विरुद्ध आरोपों की झड़ी लगाते रहे हैं।भाजपा ने कांग्रेस-नेशनल कान्फ्रेंस की एक बार फिर से गठबंधन सरकार बनाने को “सत्ता की भूख और मजबूरी” कहा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और जम्मू नगर के पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित विधायक प्रो.चमनलाल गुप्ता ने कहा कि वास्तविक रूप से यह जनादेश कांग्रेस की गुलाम नबी आजाद सरकार के विरुद्ध था, जो गत जुलाई में गिर गई थी। उस समय इस सरकार को लगभग 38 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था जिसमें कांग्रेस के सदस्यों की संख्या ही लगभग 30 थी। किन्तु इस चुनाव में कांग्रेस को केवल 17 सीटें मिली हैं और इस प्रकार कांग्रेस को जनादेश विपक्ष में बैठने के लिए मिला था। किन्तु कुर्सी की भूख मिटाने के लिए कांग्रेस ने उस नेशनल कान्फ्रेंस के साथ हाथ मिलाया है जिसके साथ कांग्रेस के संबंध भूतकाल में न केवल बनते और बिगड़ते रहे हैं बल्कि राज्य की जनता के लिए ही नहीं बल्कि सारे देश के लिए हानिकारक सिद्ध हुए हैं।प्रो. गुप्ता ने कहा कि भाजपा के सदस्यों को विपक्ष में बैठने का लोगों ने दायित्व सौंपा है जिसे वह पूरी ईमानदारी के साथ निभाएंगे और अपने चुनावी घोषणा पत्र पर खरे उतरने के लिए सरकार पर दबाव डालेंगे।30
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